Sunday, January 26, 2020

बदलती हवाएं

पिछले एक-दो सालों से देश की हवाएं कुछ बदल सी गई है। कभी लगता है कि भांग पड़ गई है, तो कभी लगता है कि जहर सी घुल गई है। हवाएं घनी होती जा रही है, धुंध सी बढ़ती जा रही है, कोहरे में दूर तक देख पाना बड़ा ही मुश्किल होता जा रहा है। इस पर कुछ लोगों का नया तुर्रा और उनके अजीबोगरीब फरमान- के भैया, खालिस ऑक्सीजन ही रखेंगे हवा में, बाकी सारी गैस गायब कर देंगे। यह बात अलग है कि फेफड़ों को इसकी खबर नहीं है!
बाबूजी इस उम्र में ना तो अखबार पढ़ते हैं, ना किसी से गप करते हैं, टीवी देखे हुए भी जमाना हो गया। सो हमें लगा कि बदलती वैचारिक क्रांति के सुर और देश के शुद्धिकरण के ताल से वो तो बिल्कुल अनभिज्ञ होंगे। वैसे भी बड़े आम आदमी का जीवन गुजारा उन्होंने। पहले भी कभी उन्हें राजनीतिक बहसों में नहीं पड़ते नहीं देखा और धर्म को लेकर तो पूरी तरह से "असली वाले निरपेक्ष" थे। पर इधर उनके भी चाल-ढाल, बात-व्यवहार और रिएक्ट करने का तरीका बदल सा गया है। लग रहा है कि समाज की सामूहिक अवचेतना अपना अधिकतम समय बेड पर गुजारने वाले अपने दसवें दशक को जी रहे एक कर्मयोगी की विचार-श्रंखला में आरोपित हो गई है। और किसको कहूं, यह तो पक्का बदली हवाओं का ही दोष है।
विश्वास मानो, हवा जरूर बदली है। जिन्होंने हमें धैर्य का संस्कार दिया, वही अब अधीर हो गए हैं। Semester-break की छुट्टियों में घर पर आए अपने पोते को सुबह-शाम convince करने पर लगे हैं कि वह कॉलेज जाने से पहले शादी कर ले। उसने पढ़ाई का हवाला दिया तो अपने जीवन के उदाहरण से चुप करा दिया। पूरी गाथा सुनाई की कैसे सातवीं क्लास में ही उनकी शादी हो गई थी और उसके बाद उन्होंने पढ़ाई continue रखते हुए MA(triple) और पीएचडी किया। और पुराणों की गाथाओं से लैस ऐसी शिद्दत से वह इस प्रयास में जुटे थे, मानो बाल विवाह संस्कृति का अभिन्न अंग और एक अनुकरणीय संस्कार है। भैया ने मलमास का हवाला देते हुए मामले को एक महीने तक खींचा; तब जाकर वह शांत और निश्चिंत हुए। सचमुच वंदनीय है सनातन व्यवस्था की परिपाटी, जो हर तरह के आचरण को अनुकरणीय और आदर्श बना देती है!
हर चीज की जल्दबाजी, हर बात में व्याकुलता। किसी भी चीज की demand मुंह से निकले नहीं कि वो सामने हाजिर होना चाहिए। मांग भी एक खत्म, कि दूसरी चालू। लगता है अपनी सरकार से उन्होंने रेस लगा ली है। जिस रफ्तार से सरकार हमें नए-नए मुद्दे पकड़ाए जा रही है, वैसी ही speed इधर भी चालू है। लगता है समय की कमी का एहसास दोनों को हो रहा है! execution में भी बड़ी समानता है। सब कुछ जल्दी खत्म करने की व्यग्रता दोनों के व्यवहार में अक्सर उग्रता का रूप लेते जा रहें हैं।
facebook, twitter, insta वगैरा बाबूजी को बिल्कुल पता नहीं, लेकिन उनकी स्मरण शक्ति और भूल जाने की शक्ति दोनों ही बड़ी ही तीव्र हो गई है - बिल्कुल social media generation की तरह। किसे पहचानेंगे और किसे नहीं पहचान पाएंगे - इस बात को लेकर बड़ी ही भ्रम और संशय की स्थिति रहती है। या जिसे सुबह में पहचाना, उसे शाम में भी पहचान लेंगे - इस बात की भी कोई निश्चितता नहीं है। पहचान लेने पर भी कैसा reaction show करना है, वो पूरी तरह से उनके मूड पर ही dependent है। यह बात भी दीगर है, कि कोई पहचाना व्यक्ति भी दो मिनट से अधिक उनके पास बैठ जाए, तो फिर उन्हें कोफ्त होने लगती है। फिर अपने logout होने का indication पूरे perfection से दे देते हैं; बिल्कुल blank screen हो जाते हैं। दूसरा बेचारा उठ खड़ा होता है। प्रणाम में आशीर्वाद एक ही मिलता है - " फेर अइहो।"
बदलती हवाएं सचमुच से बाबूजी के दिमाग में घुस गई है। आसपास दिख रहे लोगों का चेहरा भूलने लगे हैं, लेकिन अपने बचपन की लोग उन्हें याद आने लगे हैं। मिलने जाने वाले को ऊंची आवाज में बार-बार बताना पड़ता है कि वह कौन है। कभी पहचान लेते हैं और कभी नहीं पहचान पाते। पर पिछले कुछ महीनों से हर एक-दो दिन पर एक अजीब सा वाकया repeat होने लगा है।
बाबूजी के कमरे में उनके गेस्ट आते हैं। उन अतिथियों के भी बैठने की जगह नियत नहीं है। कुछ कुर्सी पर बैठते हैं, कुछ पंखे के पास, कुछ जमीन पर कोने में, तो कुछ हवा में ही रहते हैं। गर्मी में AC के पास, तो जाड़े में Blower के पास वो टिके रहते हैं। उनके नाम भी बाबूजी को नहीं पता, लेकिन वह उनके "अपने गेस्ट" हैं। उन अपनो के लिए चाय नाश्ते की फरमाइश करते रहते हैं। उनसे बात करते रहते हैं उन्हें अपने गांव वाले घर में settle करवाने का आश्वासन भी देते रहते हैं। बीच-बीच में ऐसे ही कुछ imaginative figures को डांटते भी रहते हैं- "जा भाग, यहां तेरे लिए कोई जगह नहीं है।" लगता है NRC Bill पूरी तरह से अक्षरशः बाबूजी के दिमाग में ही छप गया है !
हर बात में उतावलापन है, लेकिन एक चीज को लेकर निश्चिंतता है। पटना जाने पर इस बार भी बाबूजी ने वही बात दोहराई - "अयोध्या में राम मंदिर बनतौ, त ले चलिहे।" मैंने भी उनको पक्का आश्वासन दिया। लेकिन मेरे बाबूजी मेरे अनुमान से कहीं ज्यादा ही practical, pragmatic और realistic निकले। एक सवेरे उन्होंने सपाट स्वर में उद्घोषणा कर दी- " यमराज अइले छलै। ओकरा कह देलिऐ कि अब तीन साल बाद अइहो।"
यमराज भी सच्चे कर्म योगी की बात नहीं टालेंगे। सो मोदी जी, तीन साल का वक्त है, मंदिर तो बना ही डालो।

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