बाबूजी अब और नरभसइया गए है। शरीर से तो कमजोर हो ही गए थे मन से भी कमजोर हो गए हैं। उनके इस जन्म के कर्म थे, भाग्य था, पढ़ाने की अपनी जिद थी कि बेटा तो डॉक्टर बन गया। लेकिन सचमुच में यह दैवीय प्रताप और उनके पूर्व जन्मों के संचित पुण्य कर्म ही थे, जो बहू धीरे-धीरे उनकी माँ में तब्दील होती चली गई!
हिंदुस्तानी पत्नियों की अटूट परंपरा को कायम रखते हुए माँ की शिकायतों का पुलिंदा अभी भी जारी है। इस उम्र में भी विश्वास है कि बोल-बोल कर पति को सुधार ही लेगी। मैंने फोन पर समझाया भी कि बेटा भी अब इस प्रक्रिया से immune हो चुका है, अब तो बाप को बख्श दो। लेकिन शायद यह पत्नी -धर्म का अभिन्न अंग है, इसीलिए जीते जी तो वह इसे नहीं छोड़ने वाली।
पिछले 3 महीने से मैं बाबू जी से झूठ पर झूठ बोले जा रहा हूँ कि अगले महीने पूरे परिवार को लेकर पटना आऊंगा। इस महीने फिर से उसी झूठ को दोहराना है, क्योंकि अगले महीने से यह सच हो जाएगा। (दिसंबर में सही में जाना है!) कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर बाबूजी को भूलने की बीमारी नहीं होती तो.... तो कभी यह लगता है कि कहीं वह भूल जाने का नाटक तो नहीं करते, जिससे बेटे के झूठ का भरम भी बना रहे। 90+ की उम्र में भी उन्हें मेरी बेटियों के current क्लासेस याद है और परीक्षा के रिजल्ट भी पूछते रहते हैं!
करीब-करीब बेड पर ही पूरा दिन रात गुजारना, लेकिन सारे परिवार वालों को याद रखना - यह एक अलग ही तरह की जिजीविषा और जीवंतता है। जन्मभूमि की याद उन्हें बरबस आने लगी है और हर दसवें दिन पर ' महना' ( गाँव ) जाने की जिद पकड़ लेते हैं। भला हो बारिश का, कि एक permanent झूठ 3 महीनों से चलता आ रहा है कि रास्ते में बाढ़ आ गई। वह विश्वास कर भी लेते हैं और हर आने जाने वाले से इस बाढ़ की सत्यता के बारे में पूछते भी रहते हैं।
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