Tuesday, January 28, 2020

जय श्री राम

अपनी याददाश्त में मैंने कभी बाबूजी को मंदिर जाते नहीं देखा। Collective/social mode of worship का तो छोड़ दें, घर पर भी कभी पूजा पाठ करते नहीं देखा। बताने की आवश्यकता नहीं कि व्रत- अनुष्ठान आदि से भी उनका कोई विशेष मोह नहीं था। कभी सनातन संस्कार के नाम पर भी उन्होंने हम पांच भाई-बहनों में किसी में भी यह आदत डालने की जरूरत नहीं समझी और इसीलिए शायद कभी कोशिश भी नहीं की। माँ ने तो उनके लिए एक विशेषण भी इजाद कर लिया था - "अधरमी"। और उनको सही में नहीं पता था कि बाबूजी के नाम वाले कॉलम में सबसे पहले जो "डॉक्टर" लिखा जाता है, उसकी तहें "भारतीय दर्शन के कर्मकांड और संत-परंपरा के संगम" के शोध पत्र पर जाकर खुलती है। 

मां रोज पूजा करती थी, अभी भी करती है। घुटनों से लाचार हो रही है, लेकिन अभी भी रोज पूजा घर जाने की हिम्मत जुटा लेती है। पति और बच्चों के लिए precribed सारे व्रत उपवास उन्होंने किए। छठ का भी निर्वाहन अपने शारीरिक सामर्थ्य के हिसाब से कुछेक साल पहले तक करती रही। बाबूजी के "अधर्म" को काटने के लिए उन्होंने पूरे जी-जान से सारे कर्मकांड का धर्म निभाया।

फिर आया अपने-अपने जीवन को जी रहे 90 की आयु पार इन दोनों के सामने 9 नवंबर 2019 का दिन। सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया कि अयोध्या में जन्म स्थान पर राम जी का मंदिर बने। बाबूजी तो अब अखबार पढ़ते नहीं, समाचार देखते नहीं, बहुत होश भी नहीं रहता, सो भैया ने जा कर यह खबर सुनाया। सुनते ही आह्लादित हो गए और एक अजीब सी उर्जा का संचार हो गया। अपने अंदर विश्वरूप का भान लिए भैया को ठसक से बोले - "हम जिंदा छियौ, इहेले ऐसन decision अइलौ। अब राम-मंदिर बन जयतौ। फिर हमरा अयोध्या जी ले चलिहे।"
 मां ने तुरंत पत्नी धर्म निभाया- "आय तक कहियो मंदिर गैलहो, जे अब जैभो?" 

सदा की तरह बाबूजी चुप हो गए, लेकिन संपूर्ण जीवंतता और जिजीविषा से परिपूर्ण आंखें बोल रही थी - 
"मोदी जी, तुम मंदिर बनाओ। हम जरूर दर्शन करने जाएंगे।"


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