भैया मॉर्निंग वॉक करके वापस भी आ गए और इधर बाबूजी की किस्सागोई पूरे उफ़ान पर थी। ढ़ेर सारे अनसुने गाँव, अंजाने शहर और अपरिचित लोगों के नाम और उन सब से जुड़े नए-नए वाकये जब कानों में इकट्ठे हो गए, तो उनके अंदर का डॉक्टर जाग गया। अखबार लेकर बाबूजी के कमरे में घुसे और उनकी कमजोर नस दबा दी - " लगय छय, अब अयोध्या में राम मंदिर बन जैतय।"
राम जी का बाण बिल्कुल निशाने पर लगा! अपने आसपास बैठे सारे मुसाफिरों को अपनी- अपनी यात्रा पर उन्होंने रवाना किया और भैया के हाथ से सारे अखबार ले लिया। पन्द्रह मिनट के अंदर उन्होंने हिंदी के तीन अखबारों और अंग्रेजी के दो अखबारों का पन्ना-पन्ना अलग कर दिया।( भैया उनके पास पिछले दिनों के भी अखबार साथ में लेते चले जाते हैं।) देश-दुनिया- समाज के इस विहंगम अवलोकन के बाद बाबूजी ने अपना conclusice remark दे डाला - "नय बनयलकै अब तक, लगय छय।" भैया ने भी सुर लगा दिया - "बनतय त, सब्भे कोय चलबै साथे।"
बाबूजी खुश हो गए। भाभी तब तक दूध-रोटी ले आई थी। खाते-खाते वाल्मीकि रामायण से रामचरितमानस तक इधर-उधर कर डाला। कम्बन तक बात पहुंचती, उससे पहले खाना खत्म हो गया था। भैया ने बिस्तर पर उन्हें लिटा कर सर के नीचे तकिया लगा दिया। उनींदी आँखें पत्थर सी बोझल हो रही थी; शरीर थका थका सा लग रहा था। नींद का नशा हवाओं में घुलता जा रहा था। कमरे में किसी और ही लोक की दिनचर्या चल रही थी; कोई और "घड़ी" अपना काम बराबर कर रही थी।
कुछ देर बाद भैया विजयी भाव से कमरे से निकले- नींद की दवाई दिए बिना बाबूजी सो गए थे!
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