त्योहारों का आना आजकल एक टीस सा देता फिरता है ; एक लकीर सी खींचती चली जाती है | पर व्यक्त करना भी बस एक cliche का कोरस गान है !
सबकी वही कहानी है , चालीसवें के पूर्वार्ध से गुजर रहे सबकी कहानी का कमोवेश प्लाट भी समान है | दिल के गुबार तो सुनने पड़ेंगे ही; social media पर जीने के अपने terms & conditions हैं |
हाँ तो भक्तजनों , पहले हजार कमी थी , पर त्योहार का इंतजार ज़रूर रहता था | स्कूल की छुट्टी का लोचा नही था ; उसके लिए तो बिहार बोर्ड के सरकारी स्कुलों के छात्र इच्छाधारी नाग थे | नये कपड़े भी नही मिलते थे, पकवानों की भी बहार नही रहती थी | बाबूजी के दिन भर घर पे रहने के अपने fallout थे | ना बहनों को इत्ते पैसे या Gift मिल पाते थे , ना भाईयों को अपने फुली जेब का कोई गुमान हुआ करता था | माँ शतरंज के इस खेल के दोनो ओर के मोहरे चलने मे माहिर हुआ करती थी| वही पैसे देने को देती थी और वही उन्ही पैसो को अपने पास जमा भी करवा लेती थी | पर भाई लोगों कुछ तो होगा कि , उस पूरी-आलू की रसदार सब्जी-खीर वाले recipe का सच मे इंतजार रहता था !
आज भी बहनों के लिए दिल मे वही प्रेम का ज्वार है , बस ज्वालामुखी के मुहाने पे समय का भारी ढक्कन रखा है | दोनो बेटियों का अपने भाईयों को राखी बांधने का उत्साह देख कर दोनो दीदी याद आ गई | फोन पे बात की, video call भी हो गया | कुछ तो अब भी missing है, जो वैसा मजा नही आ पाया |
हमलोगों के बचपन के उन दिनों मे शायद बाबूजी भी वैसा ही सोचते होंगे, जैसा कि आज हम महसूस कर रहे हैं |उनसे पुछने की हिम्मत तो नही जुटा पाऊँगा, सो मेरी theory को सच मान लेना|
क्या पता , शायद यही सच हो !
पीढ़ी दर पीढ़ी यही हो रहा हो!
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