Tuesday, January 28, 2020

बाबूजी शुरू से ऐसे ही थे

सब कहने लगे हैं कि नब्बे के करीब पहुँचते पहुँचते बाबूजी अब पगला से गए हैं ; कुछ भी बोलते रहते हैं | भाभी बता रही थी कि अब  तो नींद की दवा लिए बिना सो भी नहीं पाते ; रात  रात  भर जगे रहते हैं और दिन मे भी नहीं सोते | दिन भर कुछ से कुछ बेसिर पैर का बोलते रहते हैं | कुछ अंजाने लोगो को , जो वहाँ है भी नहीं , उन्हे भगाते रहते हैं | खाने- पीने  की भी अब  सुधबुध नहीं रही है | 

पर बचपन से तो बाबूजी ऐसे ही थे मेरे | मेरे स्कूल के दोस्त उन्हे पागल ही बुलाते  थे , क्योंकि घर मे  दस- बीस मिनट गुजरने  के बाद वो उनको जाने का सिग्नल दे देते थे (पढ़ना नहीं है तुम सबको )| इसके बाद अगर पाँच मिनट और भी वो बैठ गए , फिर तो एक दौर शुरू होता था...... और इसकी परिणति माँ के डायलॉग से होती थी- "अब चुप भी हो जाइए, कुछ भी बोलते रहते हैं |" हाँ बाबूजी , मुझे भी यही लगता रहता था कि माँ बिल्कुल ठीक कह रही है | दोस्त बेचारे खिसक लेते थे मेरी तरफ तरस भरी निगाहें फेरते हुए |

और मैने तो उन्हें सोते हुए भी कम ही देखा है बचपन मे| मैं तो अपने समय पे सो जाता था और बाबूजी किताब लिखते रहते थे | सबेरे जब मैं जगता था , तब भी वो किताब लिखते ही दिखते थे ( नब्बे के दशक मे बिहार मे अधिकांश बी एड वाले बाबूजी की किताब पढ़कर ही मास्टर बनते थे)| और दिन मे तो SCERT थी ही उन्हे जगाये रखने के लिए | अब चालीसवें की शुरुआत मे मुझे इस गुड़ाकेशी का मर्म महसूस होने लगा है - घर चलाना उस जमाने मे भी मुश्किल ही होता होगा !

क्या बताऊँ , रविवार का दिन हमारे लिए बड़ा ही भयंकर होता था| सब भाई बहन अपनी अपनी किताबों से चिपके रहते थे |एक अजीब सी खामोशी फिजाओं मे बिखरी रहती थी| (बताना भूल गया था कि मेरे ISM मे admission लेने के बाद घर मे TV आया था और वो भी इसीलिए , क्योंकि मेरे बाद और कोई छोटा नहीं था|) सो कोशिश ये रहती थी कि हम बाबूजी जी को बोलने का कोई मौका ना दें| लेकिन पूरे पाँच थे , दिन भर मे गलती तो हो ही जाती थी... और फिर क्या था , पढ़ाई की जरूरत पर एक आख्यान तो बनता ही था| वो भी high level वाला, आखिर MA( Triple), PhD holder का भी अपना level तो होगा ही|

हमें पता हो या नहीं , घर मे आने वाले मेहमानों को हमारे Exam-Schedule का जरूर पता रहता था | जिनको ना हो और उन दिनो अगर वो घर मे धमक जायें , तो बाबूजी उनको अच्छे से feel करा देते थे | बेचारों की जबान हलक से चिपकी रहती थी , कि कोई बच्चा पढ़ने मे disturb ना हो जाए | कुछेक को तो घर से भगाने तक की भी नौबत तक आ गई थी | मेरे नानीघर वालो ने थोडी छूट लेने की कोशिश की थी, पर बाबूजी ने कोई लिहाज ना रखा ; बाकियों की तो कभी हिम्मत ही नहीं हुई | और इसमें माँ की मौन स्वीकृति का अब मतलब समझ मे आता है , जब दो  बेटियों का मैं पिता हूँ |

हमने खाने -पीने को लेकर जाने कितने नखरे किए हों , लेकिन बाबूजी ने आज तक किसी भी menu को लेकर कभी कोई शिकायत नहीं की| हम कहते भी थे कि बाबूजी का कोई खाने का शौक ही नहीं है , जो दे दो , खा लेते हैं | सुनके वो बस मुस्करा देते थे | वो तो बड़ी बुआ एक बार पटना आई थी , तो उन्होने बाबूजी के बचपन के किस्से सुनाए | तब पता चला कि उम्र बढ़ने से शौक खत्म होते जाते हैं !

मेरे बाबूजी शुरू से ऐसे ही थे ....

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