प्रतीक चिन्हों(symbols) का अपना एक अलग ही महत्व रहता है। वे असली सत्य के पास ले जाकर आपको छोड़ देते हैं और फिर यह आपके बुद्धि-विवेक पर निर्भर करता है कि आप सत्य की अतल गहराइयों में कितनी गहराई तक जा सकते हैं। जैसे बिना बिंब के प्रतिबिंब की परिकल्पना नहीं की जा सकती , ठीक उसी तरह से mythology में वर्णित कहानियाँ, उनके पात्र और प्रतीक भी आधारभूत जीवन मूल्यों और उसे निभाने के आधार को ही दर्शाते हैं।
रावण जलते नहीं, उन्हें जलाना पड़ता है! हाँ, uncosciously वे खुद-ब-खुद निर्मित जरूर हो जाते हैं। वह हमारे अंदर बैठा अहंकार है, हमारे वजूद के दुनियावी रूप का आभासी परछाई मात्र। लोग हमारे अंतस को नहीं पहचानते, हमारे projected स्वरूप को जानते हैं। वही स्वरूप, जिसे हमने बड़ी ही शिद्दत से गढ़ा है। उस मायावी तिलस्म को तोड़ने के लिए कोई बाहर से शक्ति नहीं आएगी, हमारे अंतस के राम को ही उसे जलाना पड़ेगा।
रावण तो परछाई मात्र है, सो उसके महिमामंडन में ना तो ज्यादा वक्त जाया करना चाहिए और ना ही उसे बनाने के लिए ढेर सारी मुद्रा। और इसी व्यवहारिक सत्य का ध्यान रखते हुए इस साल दशहरे के पावन अवसर पर निर्मित हुआ- "रद्दी का रावण"। जैसे अपने-अपने रावण को बनाने के लिए हम अपने अंदर के सारे दुर्गुण को एक साथ जमा कर लेते हैं, उसी तरह से इस बार के रावण को बनाने के लिए घर की जितनी बाकी रद्दी थी, वह काम आ गई। छोटा सा रावण बनाना बड़ा ही स्वाभाविक और self projection के लिए अनुकूल था, क्योंकि बड़े रावण बनाने का मतलब था कि अपने अंदर दुर्गुणों का भंडार दिखाना। और अंदर का राम इसके लिए allow नहीं करता!
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