Wednesday, December 26, 2007

खुद ही खुद के पास गए,
खुद मिट गए/यूँ खाक हुए,
फिर खुद को तलाशा तो,
आप भी वहीं पर्दाफाश हुए...।

खुदी वही पे मुस्करा रही थी!

Monday, December 24, 2007

खुदा की नेमते

एक दुआ कबूल हुई....
किया था जिसे/किसी और ने/
किसी और के लिए।

खुदा जगा / तैयार हुआ/ हाथ
नेमतों के बोरे मे डाले
और / दोनो मुठ्ठियाँ भर/
निकल पड़ा-
’हैव्स’ की बस्ती मे/ किसी घर के/
छप्पर की छाती चीर/
अपने हाथ खाली करने को।

खुदा था;जमीं के उपर का था/
और क्या कहूँ?
जमीं के उपर चलता भी था।
मंजिल देखने को/नीचे निगाह दौड़ाई,
दिखा जो/
हिकारत से नजरे वापस फिर आई-
एक पिलपिलाती, गंधाती
अपने ही बच्चों से बिलबिलाती/
टूटे झोपड़े,मरियल लोथड़े,
गरीबी थी,बेचारगी थी,
एक अन्चाही सी अवारगी थी-
एक’हैव्स-नॉट’की बस्ती
कातर निगाहों से उपर देख रही थी,
और अपने आप ही/खुद के लिए/
दुआएँ भी माँग रही थी।

कोफ्त हुई देखनेवाले को/
इस जिल्लत को देखकर,
पात्रता की कसौटी कसी/उसने मुठ्ठी भींच ली/
और कसकर।
पर नेमते तो सूखी रेत होती हैं,
जितना जकड़ो/ कसमसा उठती है,
कैद से फिर निकल पड़ती हैं-

सो खुदा की/
अँगुलियों के पोर के
चन्द झरोखे खुले / और
नेमते कुछ/
इधर-उधर छिटक गई।

खुदा को कुछ आभास हुआ,
मुठ्ठी हल्की होने का भास हुआ,
पर जो सब कुछ ना कर सके,
वो खुदा ही क्या हुआ-
जमीन पर पहुँचने के पहले/
सारी छिटकी नेमते/
सिफ़र हो चुकी थी।

मै भी खुदा के हाथ से छिटकी एक नेमत हूँ............।

वो आदमी

"छोड़िए ,आप मुझे नहीं समझ पाऐंगे।...( फिर एक लम्बी साँस .... कुर्सी के हत्थों से उसके हाथ फिसल कर नीचे गिरने और आँखो मे शून्य घिर आने की एक साथ प्रक्रिया...)...मैं भी खुद को नही समझ पाया ।"- सामने बैठे शख्स के होठो की थिरकन मे लिपटी ये आखिरी आवाज मुझे मीलो दूर से आती लगी।मैने उठने का उपक्रम किया ,पर मीलो दूर से इस आदमी ने अंगुलियों की एक अजीब सी हरकत से मुझे रोक दिया और फिर शुरू हुआ वही सिलसिला .......।

ये पहली बार नही था कि मै उसके सामने बैठा इस स्थिति से गुजर रहा था। और अब तो दावे के साथ कह सकता हूँ ,कि ये आखिरी बार भी नही था। जब भी मै उसके पास जाता था, बातचीत कुछ यूँ मोड़ ले लेती और अंतिम पलों मे ऐसा ही दृश्य उभर आता। वो मीलो दूर से अपने कदम बढाता ,अपने कदमो को जाँचता-परखता मेरी ओर बढता आता और मै सामने वाली कुर्सी पर निर्विकार अपनी धैर्य परीक्षण करता रहता। उसे मुझसे कोई सरोकार नही था;शायद मै ना भी रहता, तो कोई फर्क नही पड़ता।..... कदम हमेशा उसी रफ्तार से बढते,किसी मुकाम पर थमते...पर एक जगह पर वो वापस जरूर मुड़ता था... और जिन्दगी का वो हिस्सा उसने हमेशा अपनी कहानी मे दुहराया था। जिस अदा से, जिन शब्दो के सहारे उसने अपनी कहानी बताई थी, वो मुझे जुबानी याद हो आई थी। शायद उसे भी नही मालूम हो,पर मै जानता था कि फलां हर्फ पे ओठ कितने खुलते हैं ,किस बात पर माथे पे तीन लकीरे उभर आती हैं और......।

वो आदमी था और आदमी नही भी था। दूर से देखने वाले को वो आदमी ही नजर आता- सामान्य कद,इकहरा बदन और शरीर की परिभाषा पूरी करने को जो जो चाहिए था, सब के सब मुकम्मल अपनी जगह जमा थे। आँखे वहीं नाक के उपर और ललाट के नीचे थी, नाक होठो के ऊपर और होठ ठुड्डी के ऊपर- सब गर्दन पे टिके सिर मे ही स्थित थे। ये और बात थी कि आँखे बुझी-बुझी थी,नाक थोड़ी झुकी थी,ठुड्डी थोड़ी निकली और होठो के दोनो सिरे पे अदृश्य सी लक्ष्मणरेखा। उसे इस लक्ष्मणरेखा के बारे मे पता नही था। पर महीनों मैने उसके होठो का जरा भी क्षैतिज फैलाव नही देखा,फिर सीता-सुरक्षा के इस विद्या के स्वामित्व की जानकारी उसे दी। उसे तो ब्रम्हास्त्र मिल गया और अब मेरे सामने मुस्कराने की भी कोशिश नही करता था ।

पर इस आदमी सा दिखने वाले जीव के नजदीक कोई भूल से भी पहुँच जाता,फिर मालूम होता था कि ये आदमी नही था। वो तो एक खुली किताब था ,जो गुजरी जिन्दगी के हर पलो को खुले पन्ने मे बिखेरे पड़ा था। पता नही भूत का भूत उस पर इस कदर छाया था कि आज की तस्वीरों मे भी वो कल की सूरत ढूँढता फिरता। जो कोई भी अपना लगता,उसे सारी कहानी सुना डालता। विषय कोइ भी हो,मसला कैसा भी हो, साहबान सारे वाकयात अपने उपर ढाल लेंगे और जैसे ही उनके ओठो से ये लफ्ज फिसलता कि "छोड़िए ,आप मुझे नहीं समझ पाऐंगे।",फिर आगे की बाकी सारी घटनाएँ मेरे आगे नाच जाती - एक लम्बी साँस... फिर कुर्सी पे टिका हाथ नीचे झूल जाएगा;उसी समय आँखो मे सूनापन पसर आएगा..बहुत दूर से एक आवाज आएगी-"मैं भी खुद को नही समझ पाया।"... मै उठने की कोशिश करूँगा, वो अंगुलियाँ धीरे-धीरे मुठ्ठी बाँधने की स्टाइल मे खींचेगा(मुझे रोकने की ये उसकी खास अदा थी।).. और प्रोजेक्टर पर पहली रील चढ जाएगी फिर से। उसके करीबी लोगो की ये बदनसीबी थी कि उसके रीलो की संख्या दिन-प्रतिदिन बढती जाती थी। इस बात पर फिर अफसोस होने लगता था कि ये वर्तमान फिसल कर अगले ही पल भूत क्यूँ बन जाता है।

शुरू-शुरू मे तो अजीब सा लगता था,जब मै यूँ घंटो बैठा उसकी रोज की वही बकवास सुनता रहता था। वो हर बार कुछ इस तरह से पुरानी बातो को दुहराता रहता, मानो एक नई दास्तां उसके जीवन मे गढी गई हो। प्रतिक्रिया-स्वरूप टोकता भी था मै बीच मे-"क्या ये पुरानी जिन्दगी से चिपके हुए हो।भविष्य के सुनहरे सपने देखो;सपने ना रास आते हो, तो वर्तमान की कठोर जमीन पे चलो।"एक बार यहाँ तक पूछ डाला था-"यार,आँखे तुम्हारी जड़ी तो सामने है,पर पीछे ही क्यूँ देखती है?"सुनकर सूनी आँखों से मुझे घूरा उसने(शुक्र था,उस क्षण वो आगे को ही देख रही थी)और फिर वही से शुरू हो गया,जिस शब्द पे उसने बात रोकी थी। धीरे-धीरे मै भी अपनी इन हरकतों की निरर्थकता समझ गया अब तटस्थ भाव से उसके सामने बैठा रहता हूँ। कहानी चलती रह्ती है ;रील पे रील चढती जाती है....और मै बीच मे फुर्सत निकाल जाने-पहचाने पात्रो को कोई और जामा पहनाने की सोंचता रहता हूँ।

सब के सब तो मेरे परिचित हैं,जान पहचान वाले बन गए हैं। मैं उसके मुहल्ले के उस अवारा,बदमाश लड़के को लाखो की भीड़ मे पहचान सकता हूँ,जिसने गुल्ली-डण्डे मे इसे सैंकड़ो बार पदाया था। बाल-मनोविञान की परख से वंचित उसके मास्टर को भी मैं पहचान सकता हूँ, जिसने होम-वर्क नही कर पाने के कारण इसे दिन भर धूप मे मुर्गा बनाए रखा था। जिस बॉस ने पहली बार देर से आने पर इसे डाँटा था,उसकी डाँट और दानवी चेहरा मै कभी भी जेहन मे ला सकता हूँ। वो बात-बात पर पीटने वाला बड़ा भाई,बगल मे रहने वाला इसकी बहन का आशिक,कॉलेज मे पढ़ने वाली दो चोटी वाली लड़की,इसकी मरगिल्ली पत्नी(sorry,अब दिवंगत हो गई है),दिन मे दो बार घर खाली करने की धमकी देने वाला मकान-मालिक और सारे ऐसे लोग,जो गलती से इसकी जिन्दगी का शरीके-इतिहास बनने आए(इतिहास की ऐसी मिट्टी पलीद होती है,जानता होता तो कोई अतीत को शब्दों का आकार ना देता)-सबको भली-भाँति जानता हूँ मै। कभी-कभी तो लगता है,जिसका भी जिक्र चल रहा होता है,वो आकर हम दोनो के बीच बैठ गया है और मुझसे दरख्वास्त कर रहा होता है कि उसकी नजरो से मै उसे देखूँ। पर मुझे तो कहानी से मतलब है,उसकी सच्चाई या सापेक्षता से नही।

आप कहेंगे कि ये तो सबकी जिन्दगी मे होते रहता हैं;फिर इसे क्यूँ अपने पास सहेजे रखना और रोज जम आए वक्त की धूल को साफ करते रहना। समझाया तो मैने भी यही था इसे,पर कोई फायदा नही हुआ। अपना पुराना राग उसने अलाप डाला-"छोड़िए ,आप मुझे नहीं समझ पाऐंगे।(एक लम्बा अंतराल,शरीर की कुछ हरकतें)शायद मैं भी खुद को नही समझ पाया!"सच कहता था वो,सचमुच मै उसे समझ नही पाया;मैने कोशिश भी नही की। वह जब अपने अतीत की गलियों मे खो जाया करता था,तब मै पूरा ध्यान सिर्फ इसमे टिका रहता कि ये वाली मैने कितनी बार सुन रखी है। वो समझता था कि मै उसके साथ हुमसफर बना चल रहा हूँ,सो कहानी मे उसे किसी नए मसाले भरने की जरूरत नही होती थी। नीरस,बेजान सा वो लफ्ज निकालता रहता और मै जाने कहाँ-कहाँ से उन रास्तों से भागता फिरता।

उसकी जिन्दगी मे आखिर समझने को आखिर रखा भी क्या था-दफ्तर के बाबू के घर मे,जहाँ महीने के बीस तारीख के बाद जीवन के निशान बस दो वक्त बिना सब्जी वाली रोटी हो,वहाँ अपने पाँच भाई-बहनो की छाया मे इसने बचपन गुजारा था। किसी तरह पढता रहा;एक सरकारी स्कूल जाता रहा। फिर ट्यूशन की बैशाखी ने कॉलेज का मुँह दिखा दिया। सालो बेरोजगारी के साथ हमबिस्तरी के बाद किसी तरह से उससे पीछा छूटा और अपनी टूटी खटिया पे वह एक प्राइवेट ऑफिस के बाबू का तमगा लगाए अकेला सोने लगा। फिर शादी हुई,बीबी की बीमारी और इलाज के खर्च ने कभी परिवार बढाने की इजाजत नही दी।... बीबी मर गई और फिर वो अकेला हो गया है। अब ऐसी जिन्दगी मे क्या खासियत हो सकती है,जिसकी गुत्थी मै सुलझाने की कोशिश करता। जटिलताएँ तो वहाँ आती है,जहाँ लोग आम छोटी-छोटी समस्याओं से उपर उठ गए हों;सब कुछ पास मे है,फिर भी अन्जानी सी अपरिभाषित कमी महसूस हुए जा रही है। जिसकी पूरी जिन्दगी मे कमी ही कमी हो,उसके बारे मे क्या दिमाग लगाना। खाली पेट खाना न मिले,तो जाहिर है भूख लगेगी,कमजोरी का अहसास होगा..हाँ,भरपेट लजीज खाने के बाद कोई भूख जगे,तब कोई खास बात है;तह मे जाने को वो वाला कीड़ा कुलबुलाए।

पर थी एक खासियत,जो इसे औरो से जुदा करता था। भूत को इसने अपने वजूद का हिस्सा बना लिया था,जिसके बिना इसे अपना अस्तित्व ही अधूरा लगता;जिसके जिक्र के बिना जिन्दगी इसे बेमानी लगती। वह अपने बीते कल के बिना रह नही सकता था और अतीत उसे वर्तमान और भविष्य की तरफ देखने की फुरसत नही देता था। हाँ,बस इतना ही समझ पाया था उसे...वो भी,क्यूँकि सिर्फ यही खासियत उसमे मुझे दिखी थी। सच बताऊँ,वक्त का इतना अच्छा इस्तेमाल मैने किसी और को करते नही देखा। वक्त घड़ियों की सूई की टिक-टिक मे बँधा रहता था और ये दोनो हाथो से उस बीते हुए टिक को समेटता और अगले टिक के बीतने का इंतजार करता। मैने एक बार पूछा भी था उससे-"तुम्हे नही लगता,कि तुम्हारी जिन्दगी टिक-टिक की मोहताज हो गई है?"वो शायद समझ नही पाया,अलबत्ता उसने एक कहानी जरूर शुरू कर दी थी,जिसमे वो था,उसका बाप था,एक टेबुल घड़ी थी और उसके हाथो से नीचे गिर टिक-टिक के लायक नही बची थी।...कुछेक पात्र और थे-उसके बाप का थप्पर और तीन दिन तक सारे बच्चों के रात का नदारद खाना... हाँ एक नंगी सच्चाई जुड़ी थी-वे महीने के आखिरी दिन थे। अब इस बात को क्या याद रखना और बार-बार दुहराना;बच्चे तोड़-फोड़ करेंगे,तो बाप को गुस्सा आएगा ही।

मै भी क्या करूँ,उसकी वाली नजर कहाँ से लाऊँ। अब देखो ना,उसके साथ पढने वाली दो चोटी बाँधने वाली लड़की छुट्टियों के बाद बॉब-कट मे आ गई,तो जनाब ने उस दिन से उसे देखना ही छोड़ दिया। गुस्से मे रात का खाना भी नही खाया। यहाँ तक तो सोच पाया मै कि ड्रीमगर्ल कैसे नापसंद हो गयी,पर मेरी समझ के बाहर की बात थी कि उसने रात का खाना क्यूँ नही खाया। एक और तफसील(उसी की जुबानी)संग इसके जोड़ना चाहूँगा कि उस दिन शाम मे घर पहुँचने पर बाप ने उसे अवारा,बेरोजगार आदि विशेषणों से लांछित किया था और माँ टीन के खाली कनिस्तरों को पटक-पटक कर उनमे से आटा निकालने की नाकाम कोशिश रात नौ बजे तक करती रही थी।

कई सारे ऐसे वाकयात हैं,जो मुझे भी सोचने को बाध्य कर देते हैं कि उससे बोल ही डालूँ-"मै आपको नही समझ सकता।"जब इसकी पत्नी बहुत ज्यादा बीमार थी और बिस्तर पे पड़े-पड़े भगवान को याद करती थी,तो ये भी साथ मे उपरवाले से कुछ माँगा करता था। दवा या दुआ -दो विकल्प हैं;सब तो इतने खुशकिस्मत होते नही कि दोनो एक साथ मिल जाए। बात उन दिनो की थी,जब नौकरी मे छँटनी वाली लिस्ट मे इसका भी नाम था। इसने मुझे जब बताया कि वो दुआ किसलिए करता था,तो सचमुच मुझे लगा कि इसे समझने के लिए कई और बुद्धियाँ मुझे चाहिए। अपनी बीबी से जुड़े इसके पास मुकम्म्ल दो या तीन किस्से ही थे,जिनको सुनाते वक्त आँखो का सूनापन और गहरा हो जाता था और बीच-बीच मे होठ अपनी हरकत बंद कर निगाहों को आगे की दास्तां का जिम्मा दे देते थे। एक तो बता चुका मै कि उसकी बीमार पत्नी उपर जाने का इन्तजार कर रही थी और वो दुआ माँग रहा था कि इन्तजार कम से कम हो जाए;सही मे दिल से इसने कभी ठीक होने कि दुआ नही माँगी। हाँ,बाकी कुछ जो भी वो माँगती थी,ये दे देता था...पानी पिलाता रहता था,दूर कुर्सी पे सामने बैठा रहता था...उन दिनो ये भी बैठा ही था। दुनियावाले समझते थे कि बीबी का कितना ख्याल रखता है और ये जानता होता था कि लोग इसे समझ नही सकते।

बाकी दोनो दास्ताने एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। शादी हुई जब इसकी,पतित्व के सारे अरमान मचल रही थे;फूटपाथी किताबो के अफसाने और वात्सायन के फल्सफे कुलाचे मार रहे थे। पर पहली रात ही इसे पता चला कि लोग मुर्दों के साथ सोने मे डरते क्यूँ हैं। अंत मे वही इसके बेवजह पौरूष प्रदर्शन से टूट गई और शादी के पहले की दास्तां....वादे,कसमें और किसी और के हो जाने की तफसील सुना डाली। ये पत्थर का बुत हो गया और बुत जब हिला,तो कमरे मे दो बिस्तर(अलग-अलग)लग चुके थे....दोनो अभी भी हैं। वैसे बीबी जल्द ही साथ छोड़ गई;उसकी लाश के संग उसकी दो तमन्नायें भी जल के धुआँ हो गई। जब तक जीती रही,सोचती रही कि अपने पति(वैध)की गोद मे सर रख के बीमार जिस्म मे नई रूह जगवाए और उसके पावों मे सर रखके माफी माँग ले। पर जनाब ने न कभी छुआ,न छुने की छुट दी। काश इतना ही तटस्थ रहता... पर सब कुछ होते हुए व्यक्तित्व की मूरत मे झाँकते रहते थे-reactions,over-reactions,retaliation और कभी escapism...फिर भी दुनियावाले इसे neutral ही समझते रहते थे। जब इसकी बहनो के किस्से आम होने लगे थे,फिर इसने वो शहर छोड़ दिया था...मैने उसके व्यक्तित्व की मूरत से झाँकते सारे चेहरो का विशेषण उस पर थोप दिया था और उसका सपाट सा जबाब था-"मै क्या हूँ,ये नही जानता।पर इतना जरूर मालूम है कि ये मेरी जिन्दगी का हिस्सा है।"अब बताइए,ऐसे मे कौन इसे समझ पाएगा।

बाप का जिक्र आते ही नफरत और हिकारत से इसका चेहरा विद्रूप हो जाता। माँ को भी कभी स्वतंत्र माना नही इसने,सो बाप के संग वो भी होम हो जाती थी। अपने जीवन के शुरू के हिस्से की कहानियों का खात्मा वो कुछ यूँ किया करता-"my birth was an accidental default..सालो ने अपनी मस्ती के लिए..।"कभी उसने ये नही सुनाया था कि बाप ने कन्धे पे बिठा गलियो मे उसे घुमाया था या माँ ने गोद मे बिठा बड़े-बड़े कौर उसके मुँह मे ठूँसे थे। हाँ,बड़े भाईयो के दोस्तो से उसे ये जरूर पता चला था कि उसके जन्म के कुछ दिन तक उसका बाप अपने बच्चों से नजर बचाते रहता था। फिर एक गाली उसकी जुबान से फटाक से निकलती थी-"साले के पास इतनी ही शरम थी,फिर बेटियों से क्यूँ?"मैने कभी उससे पूछा भी नही कि बाप को लेकर इतना गन्दा क्यूँ सोचता है। शायद उसके जबाब से मै संतुष्ट भी नही हो पाता;उसका नजरिया मै समझ कहाँ पाता हूँ। एक sophisticated आदमी की जुबान से इतनी गन्दी भाषा-ये विरोधाभास समझ पाना हर किसी के बस की बात थोड़े ही है।

हुआ यूँ था कि दफ्तर मे काम करने वाली एक संवेदनशील महिला,जिसका कोई भाई नही था,ने रक्षाबंधन पे इसे राखी बाँधने की पेशकश की। पहले ये तो ठठाकर हँसा,फिर उसने कलाई के इस धागे का महत्व पूछा। वो चकरा गई और खिसियाना सा चेहरा बनाए खिसक गई। शायद वो समझ ही नही पाई-सवाल मे जुड़े तथ्य को,या सवाल पूछने वाले आदमी को-या कुछ और तो नही समझ गई ,जैसी विडम्बना इसके साथ अक्सर होती है। बाद मे इसने मुझे बताया था कि जब से बाहर से लगे कमरे मे इसकी दोनो बड़ी बहने सोने लगी थी ,परिवार की माली हालत सुधरने लगी थी। जब इसने अपने किताबो के आदर्श को यथार्थ की जमीन पर पटकना चाहा,फिर’बहन...’ का इल्जाम लगा इसे घर से निकाल दिया गया। अर्थ और मूल्यों की इस लड़ाई से अब किसी को क्या लेना,क्यूँ कोई समझने की कोशिश करे।

उसकी जिन्दगी हर मायने मे अधूरी सी लगती रहती थी,हाँ हर जगह कमी ही कमी भरी हुई थी;अभाव का कही अभाव बिल्कुल नही था। हर खाली गैप को भरने की उसकी अदा भी निराली थी-उस गैप से जुड़े किस्से से जिन्दगी का खालीपन भर लेता था। उसकी जिन्दगी एक शीशे का मकान सा था,जिसमे वो कैद था। रोज कुछ शीशा पिघल कर उसमे समा जाता और मकान का दायरा घटता जाता। मकान सिमट रहा था,वो बढता जा रहा था। एक बार मैने सवाल का प्रारूप बदल दिया था-"क्या आपने खुद को समझने की कभी कोशिश की?"कुछ पल खामोश रहा,फिर बोल फूट पड़े-"एक मुकम्मल तस्वीर तभी बन पाती है,जब आईने के सामने एक ही चेहरा हो। आईने के सामने खड़े होते ही बहुत सारे चहरे एक साथ आ जाते हैं,सबको मिलाकर देखने की कोशिश मे एक अजीब सा चेहरा सामने आता है-थोड़ा मूर्त्त,थोड़ा अमूर्त्त-शायद लिजलिजा सा। लिजलिजेपन को छूने गया,फिर अपने लिजलिजे वजूद का अह्सास होते ही खुद पर से विश्वास ही हट गया।"उसने मेरे चेहरे पर अजीब सी असामान्यता देखी और फिर अपने किशोरवय की वो दास्तां शुरू कर दी,जब उसकी मसें भींगने लगी थी और दिन मे बीसियों बार वो अपना चेहरा देखता रहता था.... और तब तक सुनाता रहा,जब तक मेरा चेहरे पे सुनी कहानी को फिर से सुनने की जिल्लत और उससे उत्पन्न खीझ नही दिखाई देने लगी।

वो तो खुद को नही समझ पाया,पर मै क्या समझूँ उसे-पिघला हुआ शीशा,लिजलिजा अक्स....या अतीत के पर्दो मे छुपा एक कुण्ठित व्यक्तित्व... पर कुण्ठा तो मेरे ही अंदर है। ठीक ही कहता है वो-"देखिए,आप मुझे नही समझ सकते।"

बुतरखौकी

लम्बे-लम्बे कदमों से मानो दौड़ते हुए उसने गलियारा पार किया और वहीं सीढियों पर कोने मे बैठ गई।मुठ्ठी की गरमाहट अब तक पूरे बदन पे छा चुकी थी; मन मे हँसी भी वो- क्या कहेगा कोई? देह पूरा तप रहा है।कहीं बुखार तो नहीं हो आया । थर्मामीटर लगेगा,माथे पर पट्टी डालेगी मुन्नी की मैया ,मुन्नी तो चुपचाप कोना मे जा कर रोएगी। रामधनवा तो घबरा ही जाएगा, जल्दी से जा कर उ दवाई दुकान वाले डाक्टर को रिक्शा पर बैठा कर ले आयेगा।उ क्वैक (इस शब्द पर उसने अपनी पीठ ठोकी।अब वो भी तो ये सब जान गई है!) ......... साला क्वैकवा हजार नौटंकी करेगा, नब्ज देखेगा,बीपी नापेगा, स्टेथो लगाएगा। मुन्नी की मैया तब तक रूआँसी होकर बोलेगी-
"पारा १०२ को भी पार कर गया।"
"अब तो दवा भी काम नही करेगी।अब तो इन्जेक्शन लगाना होगा।"
क्वैक की आवाज उसके कानों मे हथौड़े सी बजी और देह मे झुरझुरी सी दौड़ गई;बचपन से ही सूई लगवाने से डरती थी वो।सारे विचार इसी थपेड़े मे बिखर गए और वापस वो अपने आप मे आ गई। मुस्कुरा कर मन ही मन में उठी ,होठो के कोर भी रोकते-रोकते थोड़े फैल ही गये। बेमतलब मे कितना सोच लेती है वो । अपने आपको संयत करते हुये उसने राहत की साँस ली।मुठ्ठी अभी भी नोटों की गरमाहट को कैद किए थी।

आने-जाने वाले की ओर पीठ करके एकदम से कोने में वो बैठ गयी और मुठ्ठी खोलकर पाँचो नोटो को दो बार गिना। बीस बीस के पुराने नोट थे ;गाजरी रंग थोड़ा फीका और स्याह सा हो उठा था।पर यही तो है गांधी बाबा की महिमा - नया पुराना सब एक सा होता है, कड़-कड़ा हो, तुड़ा -मुड़ा हो,सब एक जैसा काम करता है। पर कटे-फटे नहीं,नहीं तो गांधी बाबा गुस्सा जाएँगे! रोकते रोकते इस सोच पर हँसी भी आ गयी उसे। पर इसका भी इलाज है;रामधनवा बता रहा था कि चौक पर कटे-फटे नोट बदले जाते है,लेकिन दस रुपये सैंकड़ा काटता है।उसने हिसाब लगाया और घबरा गई-
’बाप रे हर बीस टकिया पे दू-दू रुपया ।मतलब पाँच नोटो पर दस रुपये;खाली नब्बे ही बचेंगे।’
सिहर सी उठी वो,पर अगले ही क्षण संभल गई। पांचो नोटो को एक एक कर खोल कर आगे पीछे देख लिया,फिर गिना- बीस..चालीस...साठ..अस्सी..सौ..पुरे-एक सौ रुपये!रामजी,किशन जी,दुर्गा माँ, काली माँ, हनुमान बाबा सबको मन ही मन गोर लगा।
’ ऐसे ही बरकत दिहो देवा।’
उसने पाँचो नोटो को जतन से मोड़ा और फिर आँचल की छोर में रखकर गांठ लगाने लगी।अचानक कुछ याद आया और दाँतो से जीभ को काट लिया-
’बाप रे! इतनी बड़ी भूल!- शंकर जी छूटिये गए।उ गुस्साहा भी हैं।सब कमाईया खत्म करवा देंगे।’
उसी मनोवेग में पास रखे कैक्ट्स वाले गमले पर सिर टिका दिया मानो शिवलिंग हो।फिर मन को दिलासा दिया-
’ अच्छा भोले बाबा तो भोला है।अगले सोमवार को तीन तीन पत्ता वाला बेलपत्तर चढा आएगी रोड के बीच वाले मन्दिर में,फिर तो उ खुश हो ही जाएँगे।सोमवार को भीड़ो रहता है हुआँ पर।रोड तो दू घन्टा पुरा जाम हो जाता है।’
भोले के भक्तों के दमकते चेहरे,ट्रैफिक जाम में फँसे लोगो के खीझते ,बड़बड़ाते चहरे और उ टोपी वाला उजला ड्रेस वाले सिपाहिए का बेचारगी से भरा चेहरा- सब एक साथ आँखों के सामने घूम गया.....इन विचारो को झटक कर आँचल की गाँठ को कमर में खोंसा और उठ खड़ी हुई।
’ क्यूँ सोचती है वो इतना?आज इतनी उपरी कमाई हुई है और वो बेमतलब में परेशान हो रही हैं।’
नोट देते हुए कम्पाउन्डर बाबू ने भी तो मुँछो से मुस्कराते हुए मिठाई माँगी थी।
’ मरे मुंहझौसा।ऐसा काम करूँ मैं ,पाप लगे मुझको और दुश्मनवा के मुँह मे मिठाई कोंचूँ।’-
पाप काटने के लिए उसे फिर से भोला बाबा याद आ गए,जो केवल बेलपत्तर मे खुश हो जाते हैं।

घर का रास्ता तो उसे इस तरह याद हो चला था कि आँखे मूँद कर भी वो नर्सिंग होम से घर पहुँच सकती थी।सीधे चलो,पीपल के पेड़ से आगे जाकर बाँए मुड़ना है,बाजार पार करते ही बोर्ड दिखने लगता है-इंदिरा आवास वाला।उसी के इक्कीस नंबर वाले एक कमरे को वह,रामधन,मुन्नी और मुन्नी की माँ घर कहते थे।और क्या,घर थोड़े ही ईंट-पत्थर, सीमेंट-बालू का बनता है।वो तो साथ मे रहने वाले के आपसी प्यार की निशानी है।
’सब कितना प्यार करते हैं एक दूसरे से; कितना खुशहाल घर है उसका।’
उसने फिर से जीभ काट ली।
’कहीं अपनी ही नजर ना लग जाए!अच्छा,घर जाकर दरवाजा के उपर काजल का टीका कर देगी और हनुमान बाबा के फोटो पर अगरबत्ती।’
अचानक अगरबत्ती की सुगंध उसे कहीं से आई।शनिवार का दिन था और शाम को पीपल पर कोई श्रद्धालु जल चढाकर अगरबत्ती खोंस गया था।

पेड़ से सटे-सटे एक कच्ची पगडण्डी निकली थी,जो निगाह ओझल होने तक झाड़-झँखार से छिपी हुई मालूम पड़ती थी।बड़े-बड़े पेड़ भी थे,जो रेलवे लाइन तक फैले हुए थे।रेलवे वालो की जमीन थी,सो कुछ बन नही रहा था और उस छोटे से शहर मे सब इसे जंगल पुकारा करते थे। बच्चे डरते थे;बड़े डराते थे-इसी जंगल के नाम पर,इसमे रहने वाले शेर-बाघ-चीता के नाम पर। औरते डरती थी;औरते डराती थी-भूत-प्रेत के नाम पर,जो दिन-भर तो जंगल मे अल-मस्त घूमते थे और रात मे पीपल के पेड़ पर रैन-बसेरा करते थे।सुखिया को हँसी आ गई-
’झूठ बोलते हैं सब। अभी तक इतने सारे दिनो से उसी कच्चे रास्ते से जंगल में गई है वो, ना कोई जानवर दिखा है ना कोई भूत प्रेत।आज भी तो गई थी वो बड़े से पोलिथीन के थैले को कुँए मे डालने उसी रास्ते से, कहाँ कुछ हुआ था।’
वो कुआँ उस जंगल का सबसे डरावना पहलू था,जिसके बारे में कई बाते प्रचलित थी।उनमे सबसे ज्यादा मान्य दो थी- एक तो कि आजादी के बाद सुभाष चन्द्र बोस उस जंगल मे छुप कर रह्ते थे और कुँए मे आजाद हिन्द फौज का खजाना छुपा रखा था। और दुसरे कि भूत-प्रेत के बच्चे और स्त्रियाँ वहाँ नहाया करती हैं।भय का वजूद लालच को ग्रसे हुए था और लोग प्रायः उस कुँए से डरते ही थे।कुछ साह्सी निठल्लों ने कोशिश भी की थी पर अपनी नाकामी छुपाने के लिए एक तीसरी - मध्यममार्गी - मान्यता जनप्रिय कर दी कि नेताजी की आत्मा खजाने की रक्षा कर रही है।कुछ बड़बोलो ने तो आत्मा को कांग्रेसी टोपी भी पहना दी।शहर ले नेताजी के सफाचट और दाढीजार चेहरे को लेकर भयानक मतभेद पैदा हुए।
’खैर उसे इन सबसे क्या।’-
गले मे पड़े हनुमान बाबा के ळॉकेट पर हाथ लगाया और श्रद्धावश आँखे मूँद ली।मन मे दुहराते हनुमान जी की जय की आवाज बस की पों-पों के आगे फीकी पड़ गई और उसने पाया कि चौराहे तक वो पहुँच चुकी थी।

बाँए मुड़ते के साथ निर्णय ले लिया उसने कि अब कुछ फालतू नही सोचना है।इत्ती बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ चलती है रोड पर।कुछ हो गया,फिर सबका क्या होगा?रामधनवा बेचारा कितना रिक्शा खींचेगा? मुनिया की मैया कहाँ तक साहब लोगो के यहाँ जाकर बरतन-बासन करेगी? उ भी तो जवान-जहान है और साहब लोगो की नजर - हाय दैया! कितने निर्ल्लज और पापी होते हैं सारे। सब गरीबन मरद उनका गोर चाटे और उन सबकी जोरू उनका बिस्तर गरम करें - यही सोचते हैं ना इ साहब लोग। मुँहझौंसा,कैफट्टा,दुश्मनवा,जोनजरनवा....
.......गालियों की लम्बी कतार को एक गाड़ी के हार्न ने तितर-बितर कर दिया।वो सड़क के और किनारे हो आई और विचारो की एक नई श्रँखला आकर जुड़ गई-
’नही देवा।कुछ ना करिया हमरा के।परिवार के नास हो जैतै।’
मुन्नी की पढ़ाई छूट जाएगी।पढ़ेगी नही,तो मेम कैसे बनेगी;फिर साहब से उसका बियाह कैसे होगा?साहब लोग तो शादी मे दहेज कितना माँगता है।उसी को तो वो जोड़ रही है;सारा पाप इसी के लिए तो वो कर रही है।कल ही पोस्ट-ऑफिस जाकर इ पैसा जमा कर आएगी।मेम बनी मुन्नी और उसका साहब दुल्हा- दोनो की जोड़ी को उसने अपने पैरो पर झुकते पाया और मन ही मन आशीर्वाद भी दे डाला।

"दू ठो चाकलेट दे देना।"उसने रामेसर साव की दुकान पर खुद को बोलते हुए सुना।
’हमेशा एक लेने वाली को ये क्या हो गया है आज।लगता है बुढ़िया भी एक खाएगी।’-
साव जी ने मुस्कराते हुए एक रुपए की माँग पेश कर दी।आग लगे इस महँगाई को - सोचते-सोचते वो घर पहुँच गई। मुन्नी दरवाजे पर ही खड़ी थी,आकर गले मे लटक गई।गोदी मे ले चूमते हुए दोनो चाकलेट उसे दे दिए। पानी लेकर लक्ष्मी जैसे ही आई कि अपनी माँ को देखते ही मुन्नी गोद से उतर कर भाग गई।उसे डर था कि एक चाकलेट वो कहेगी बचाकर रखने को - बेला-बखत के लिए।लक्ष्मी बचा-बचाकर घर चलाती है;बस्ती मे सब लोग इसकी तारीफ करते हैं और सुखिया भी इसीलिए निश्चिंत रहती है।नही तो आजकल की बहुएँ तो,बस चले तो फैशन-पट्टी मे घर फूँक दे!

पैर-हाथ धोकर खटिया पर बैठी ही थी कि रामधन के रिक्शे की चों-चों,चाँय-क्राँय सुनाई दी। घर के आगे सड़क पर रिक्शा लगा रहा था। पड़ोस वाले मना भी करते हैं,तब भी वो वहीं लगाता है। पहले-पहल बस्ती के पार्क मे लगाता था,रोज कोई न कोई उपद्रव। कभी टायर पंक्चर,तो कभी सीट फाड़ दे कोई। उधर गाय-भैंस बँधी रहती है,उनके सींग मारकर गाड़ी पलटने का डर। चाय पीते-पीते सुखिया को उसने बताया कि चार बजे के करीब उसके नर्सिंग होम मे एक जचगी का पेशेंट लेकर गया था वो।
"तों कहाँ गेल हलहि? हम खोजबो करलिअय।"
सुखिया कुछ बोलने ही वाली थी कि मुन्नी को सामने देख एकदम से चुप लगा गई।लक्ष्मी ने ही अपने मरद को टोका-
"इ का पुलिसिया जैसा पूछ रहे हैं। एतना बड़ा हॉस्पिटल है,गई होंगी कहीं काम से।"
हाँ, काम से ही तो गई थी वो!पर क्या बताए? कौन सा काम!....उसने हनुमान जी के फोटो की तरफ मुँह घुमा लिया।

फोटो मे छाती चीरे वानरदेव जय श्रीराम की उदघोषणा कर रहे थे।बाप रे,आम आदमी का सीना चीरो,तो बलबल खून फेंकने लगेगा।बेहोश करो,टार्टर डालो,टाँका मारो,एंटीबायोटिक खिलाओ,पानी चढाओ,खून दो,विटामिन दो..... कितना नौटंकी है! यहाँ देखो,मजे मे फाड़ डाला छतिया को और राम-लखन दिखाय दिया। मजे हैं हनुमान बाबा के,बगल वाला फोटो मे कँधा पर दोनो भाई को बिठाए थे और छाती पर टाँका का कोई निशान नही।’सब प्रभु की माया है’- उसने श्रद्धावश अपने हाथ जोड़ लिए।बजरंगबली की आवाज कानो मे गूँजती सुनाई दी-
"तू मत घबरा।मै जानता हूँ, अपने परिवार के लिए ये सब कर रही है।मैं तेरे पापो को हर लूँगा।"
भक्त-प्रभु सम्वाद अभी चल ही रहा था कि मुनिया आकर देह पर लद गई-
"दादी,कहानी सुनाओ ना।"
"जा पहले खाना खा ले।अरी लक्ष्मी,हमर रनिया के खाना दे दहो।"
रानीजी ने मुँह फुला लिया।सुखिया ने उसे पेट पर बिठा लिया और पुचकारने लगी-
"रात मे सुनैबै कहानी।खूब्बे सारा।बढ़िया वाला।"
फिर कान मे धीरे से पूछा-"अलिया-झलिया करभि अभी?"
उत्तर की बिना प्रतीक्षा किए अपने घुटनो को मोड़कर मुन्नी को दोनो तलवो पर बिठा लिया और झुला झुलाने लगी।दादी के घुटनो पर सिर टिकाए मुन्नी का चेहरा खिल उठा।चारपाई की चूँ-चूँ के पार्श्व-संगीत के साथ घर मे गीत उतर आया-
"अलिया गे,नुनु झलिया गे,
गोरा बरद खेत खइलखुन गे,
कहाँ गे? डीह पर गे।
डीह के रखबर के गे?
बाबा गे। बाबा गे।"
गीत के साथ झूलती हुई मुनिया ने भी दादी के साथ सुर मे सुर मिला लिया-
"बाबा गेलखुन पूरनिया गे,
लाल-लाल........
कोल्हू पर.........
..............
सास के गोर लगलखुन गे।"
मुन्नी की आवाज तेज होती जा रही थी-
"बड़की के तेल-सिन्दूर,छोटकी के झोंप्पा,
उठ रे बुलाकवाली, देख ले तमाशा...."
झूलने का अब सबसे रोमांचक और आखिरी दौर होने वाला था।मुन्नी ने खिलखिलाना शुरू कर दिया।
"नया घर उठो,पुराना घर गिरो..
नया घर..............
नया................ "
हर घर उठने-गिरने के साथ साथ मुन्नी भी उठती-गिरती जा रही थी और उसकी हँसी की आवाज बढ़ती जा रही थी। सुखिया भी हँस पड़ी।

पूरा घर दोनो की हँसी से भर गया था। तब तक लक्ष्मी घी लगी रोटी और आलू की तरकारी एक थाली मे मुन्नी के लिए दे गई। एक-एक छोटे कौर मे मन-मन भर के वादे भरकर सुखिया खिलाने लगी। मुन्नी गोद मे जितना ही मचलती,वो उतना ही मनुहार करते जाती। रोटी खत्म होने तक दूध की कटोरी रख गई थी लक्ष्मी। दूध पीना मुन्नी को सबसे खराब काम लगता था और उसे पिलाना दादी को सबसे बड़ा काम। कुछ ज्यादा ही वसूलना चाहा उसने आज उसी ख्वाहिश को पूरी करने के लिए बुक्का फाड़कर रोना शुरू कर दिया।
"लगाव एकरा दू थप्पर"रामधन गरजा उधर से।
"दादी के दुलार मे बहस गेले हय"लक्ष्मी बड़बड़ाई।
इससे पहले के मुन्नी की लड़की जात होने, उससे जुड़े जीवन के संदर्भों जैसे ’सबसे अहम दुर्घटना - ससुराल गमन’ और ’सबसे बड़ी बात - घर चलाने की जुगत’ आदि प्रासंगिक मसलो पर बात जाती,सुखिया ने मोर्चा संभाल लिया।
"बच्चा के डाँटल जाय हय ऐसे"-वो बरस पड़ी।
मुन्नी को कलेजे से लगाकर उसने फुसलाया और परी वाली कहानी सुनाने का वादा किया,जिसमे परी के पंख कोई चुरा ले जाता है और एक सजीला राजकुमार उसे ढूँढकर वापस लाता है...(बताने की जरूरत नही कि दोनो की शादी भी हो जाती है!)ये कहानी मुन्नी को बहुत पसन्द थी;काफी जुड़ाव महसूस किया करती थी वो इस कहानी से।उसने रोना बन्द कर दिया और दादी को देख मुस्कराई।
"बदमाश कही की!एक दम से अपने बाप पे गई है।"सुखिया के होठो पर भी मुस्कान खेल गई।

एतना ही बदमाश था रामधनवा भी बच्चा मे।लसराता भी ऐसे ही था वो।इकलौता जीता बेटा था; खानदान चलाने वाला और सुखिया का तो वो पालनहार ही था।पहले पहल तीनो बेटी हुई,जीती रही,बढ़ती रही।बाद मे दो बेटे हुए तो,पर साल पूरा करने के पहले ही टॉयफॉयड की भेंट चढ़ गए। फिर एकदम से अकाल हो गया.... गाँववाली सब उससे कतराने लगी।कहीं से उड़ती-फिरती खबर भी मिली कि पीठ पीछे सब उसे ’बेटाखौकी’कहते हैं।कितना रोई थी घर मे आकर,जब करजानवाली ने उसके घर मे घुसते ही खटिया पर पड़े अपने बेटे को उठाकर अँचरा मे छुपा लिया था।ननदे तो इसी कारण से नैहर आना छोड़ चुकी थी।इन सब यंत्रणाओं और कलेजा चीरती संज्ञाओं से तीन साल बाद मुक्ति दिलाई रामधन ने।बहुत मेहनत भी की थी सुखिया ने;नही तो भगवान ऐसे थोड़े ही पसीजता है!उमानाथ पे खस्सी,चण्डिकास्थान पर सवा रूपए का बताशा,हनुमान जी को सवा किलो लड्डू;अवधूत बाबा का भस्म तो छठे महीने से हर रोज सूरज निकलने से पहले जचगी तक चाटा था,एक भी दिन बिना नागा किए हुए।पीर साहब का गंडा-ताबीज तो पेट से होने की संभावना होते ही बाँध लिया था उसने।सब मनौती पूरी की थी रामधन के होने पर।मजार पर चादर भी चढ़ा आई थी वो।दबी जुबान से सास ने खर्चे पर टोका भी-"पिछले दो की तरह कहीं ये भी फिर....?" डर तो गई थी सुखिया इस आशंका पे और हर सुबह उठते के साथ बच्चे को काजल-टीका कर देती थी। कितना जतन से पाला था!.....नीचे चटाई पर लेटे रामधन को देखकर गर्व हो आया उसे।

बच्चा पालना भी कोई हस्सी-ठठ्ठा का कम नही है,कपार का पसीना तरवा से चूने लगता है।जो जतन से पालता है,वही जानता है।उसकी सास ने पहली बेटी को खूब मन लगाकर पाला; पर बाकी दोनो लड़कियों को तो जी भर के देखा तक नही।राणाबीघा वाली चाची बता रही थी कि सौर घर से उल्टे पाँव वापस लौट गई थी,अन्दर कदम भी नही रखा।हाँ,उसके बाद जो बेटे हुए, उसमे हुलस-हुलस के गीत गाया।ढोलक पे खुद बैठी थी।दिन भर कलेजे से चिपकाए रखती थी। केवल दूध पीने के लिए सुखिया के पास बच्चा आता।दोनो भगवान के घर चले गए....सुखिया ने उपर देखते हुए एक गहरी साँस ली।रामधन हुआ,तो सास भावी आशंका लिए अपने अरमानो को दिल मे दबाकर रह गई।सुखिया ने सारी जिम्मेवारी अपने उपर ले ली - सास के दिल की व्यथा वो समझती थी।यहाँ तक कि नेग माँगने पर सास ने जब सबके सामने अपनी बेटियों को खरी-खोटी सुनाना शुरू किया,तो उसी ने उन्हे रोका और ननदो की फरमाईश पूरी की। औरत ही औरत के दिल की बात जानती है! खैर अब तो बच्चा पालने मे वो एक्सपर्ट हो गई है।बड़ी लड़की भी तो अपनी एक साल की बेटी छोड़ गई थी नैहर,जब तुरन्त एक पीठपीछा बेटा हो गया उसे।फिर दूसरी बेटी का बेटा और छोटकी का.....।

"मुनिया के पप्पा ने खाना खा लिया।"खाने के लिए लक्ष्मी के इस बुलौहटे ने सुखिया को इस दुनिया मे वापस खींच लिया। पतंग कटती भी है,तो तुरंत से जमीन पर नही आ जाती..... कटने पर भी लहरा लहरा कर उड़ते हुए का आभास कराते हुए जमीन पर धीरे-धीरे आती है।अभी भी दिमाग मे बच्चे ही बच्चे भरे हुए थे।बगल मे सोई मुन्नी,कुल्ला करता रामधन,थाली मे खाना परोसती लक्ष्मी - सब उसे बच्चे ही लग रहे थे।सब के चेहरे वैसे ही मासूम,निर्दोष,पवित्र और निर्द्वन्द्व। मातृत्व के असीम सुख से भर गई वो और देह मे नई जान सी आने लगी।उठते-उठते कमर पर कुछ चुभा।हाथ लगाया,वही खजाना था।एकदम से देह निढ़ाल पड़ गया-"वो भी तो बच्चे ही होते!"
मुन्नी के चेहरे की ओर देखना चाहा उसने,पर हिम्मत नही जुटा सकी।.....इस जंजाल से निकाला लक्ष्मी ने,जो खाना लेकर वही पहुँच गई थी-
"ईहें खा ला।तबीयत ठीक ना मालूम पड़ै हय।"
इतना प्यार पाकर सुखिया फिर से जोश मे आ गई -
"जा, तू भी अपन निकाल ला। साथे खैबै हम दोनो।"
फिर कुछ सोच के बोली-
"हमरा दूध कम्मे दिहा आज।"

खाना खाकर लक्ष्मी सारा जूठा बरतन समेट कर कोने वाले नल की ओर बढ़ गई। पचासेक परिवार वाली बस्ती का यही नल था;पर चौबीसो घण्टे पानी देता था। सुबह-सुबह तो महायुद्ध का माहौल छिड़ जाता था - नहाने वाले,बरतन-बासन करने वाले,पानी भरने वाले - सब के सब एक ही समय जुट जाते थे। वो तो विधायक ददन भैया ने साल भर पहले ये नल लगवा दिया था,नही तो मील भर दूर से पानी भर भर के लाता था रामधन। बस्ती की आधी ताकत तो इसी जल-प्रयाण को समर्पित हो जाती थी,फिर काम करेगा क्या और कमाएगा क्या?शहर वाले,अखबार वाले सब ददन को गुण्डा कहते थे,डरते भी थे।
’गुण्डा हुआ तो क्या हुआ।पानी देलवा दिया,केतना आराम हो गया।’
बरतन पर राख मलती लक्ष्मी अपने विचारो मे मग्न थी -
’फिर उकरे वोट देंगे।और इ बार बड़का वाला भेपर-लैंप भी लगवाने के लिए कहेंगे।इ अंधेरा मे साँप-बिच्छू पता नही कब काट जाय।चनरमा देवता तो घटते-बढ़ते रहते हैं,इनका कोई भरोसा नही।रोशनी हो जायेगा,फिर मुनिया को भी साल-दो साल मे बरतन बासन करने भेज सकती है- पर उसकी दादी थोड़े ही मानेगी।पता नही पढ़ा-लिखा के कौन सा लाट साहब बनाएगी?’
राख लगे सारे बरतनो को पानी की धार के नीचे रख दिया ;पानी के छीटों के साथ उसके विचार भी इधर-उधर बिखरने लगे। सारी गृहस्थी उसने गिन कर समेट ली-दू ठो बड़का थाली,एक छोटका,कड़ाही,छलनी,दो कटोरी,एक तसला और एक बड़ा सा तवा - पूरे आठ।

घर वापस पहुँची,तो सुखिया तो बाहर खटिए पर चादर बिछाते पाया। एक ही कमरे का घर-
’आखिर लाज-लिहाज भी तो कोई चीज होता है।फिर भी जाड़ा और मेघा-बूँदी मे बेटा-बहू के साथ सोना पड़ता है।करवट फेर लेती है,आँख बन्द रहता है,पर कान का क्या करे?जब तक नींद नही आ जाती,अपनी काम करते ही रहते हैं मुआ।’
बीड़ी का आखिरी बचा टुकड़ा फेंकते हुए सुखिया ने आवाज लगाई-"मुनियाँ के हमरा पास दे जा।"
जब से मुन्नी थोड़ी होशियार हुई है,तब से अपने ही पास सुलाती है उसे।है भी लड़की बड़ी होशियार - मास्टर साहब भी तारीफ कर रहे थे,जब स्कूल मे फीस जमा करने गई थी वो।अँग्रेजी का कितना सारा गीत जुबानी याद है उसे; डॉक्टर साहब के बच्चा की तरह उसको भी इंगलिश वाला गिनती आता है।दूध को पता नही क्या कहती है- मिकिल..नही,म..म...... मिलुक...नही,मुलुक..नही ये भी नही है।अच्छा भोरे दिमाग लगा कर पूछेगी दूध का अँग्रेजी।जरूर अपनी मुनिया मेम बनेगी, गिटिर-पिटिर करेगी। अपने कमर मे खोंसे गाँठ को उसने एक बार और टटोला और दृढ़ता की एक चमक आ गई आँखो मे-
’बियाह उसका वो डाक्टर से ही करेगी।पर उ अच्छा होगा,इ पपियहवा जैसा नही।पैसा के लिए ऐसा पाप का काम नही करेगा।खैर उसे इससे क्या,उपर वाला इन्साफ करेगा उसका।है तो भागीदार वो भी,पर वो तो अपने परिवार के लिए,अपनी मुनिया के लिए कर रही ये सब कुछ।’

दिन भर की थकान से निढ़ाल सुखिया कब सो गई,उसे पता भी ना चला।सुबह आँखे खुली,तो पाया कि रामधन तो रिक्शा लेकर निकल गया था और मुन्नी स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी।सास को देखते ही लक्ष्मी मुन्नी को छोड़ चाय गरम करने दौड़ गई।’सही मे खराब आदत लग गया है उसको।बिना पिए कुछ होता ही नही’-चाय सुड़कते हुए वो मुन्नी को तैयार होते देखती रही।सफेद कमीज,बुल्लू स्कर्ट,लाल रिबन,उजला मोजा,काला जूता,स्कूल का बेल्ट - कितनी सजी-धजी लग रही है!स्कूल बैग पीठ पर लाद कर जब उसने टाऽऽऽटाऽऽऽऽ किया,कलेजा चौड़ा हो गया सुखिया का -
’जरूर बड़ी मेम बनेगी इ छौड़ी।क्या कहेगा सब कि इत्ती पढी-लिखी की दादी ’लिख लोढ़ा,पढ़ पत्थर’ है।’
अपने अनपढ़ होने पर पहली बार इतना खराब लगा उसे।अचानक कुछ याद आया और हड़बड़ा उठी वो।आज तो पोस्टऑफिस भी जाना है उसे।

निकल ही रही थी घर से कि लक्ष्मी उधर से शर्माई,सकुचाई आकर खड़ी हो गई।दोनो की नजरे मिली,एक नजर झुक गई।अनुभवी आँखो ने झुकी नजरों की भाषा पढ़ ली -
"कैम्मा महीना चल रहा है?"
"तीसरा चढ़ गया,दू दिन हुए।उल्टी खूब हो रहा है।लगता है इस बार बेटा का आसार है।"
सुखिया हुलस गई,सब देवी-देवता को मन ही मन पूज लिया।इतने दिन से पोते की साध थी,पूरी होने वाली थी।
’पूरी बस्ती मे मिठाई बाँटेगी,गीत-गाना होगा। पोते की छठ्ठी मे सोने का कड़ा देगी,अपना कानवाला और नाकवाला गला के। ऐसे भी तो रखे ही रहता है। रामधनवा का बापू चला गया,अब गहना किस काम का।आदमिए नही है,तो उसका निसानी रख के क्या करे। और दे भी तो उसी के पोता को ही रहे हैं।’
सुख और आनन्द के इस अतिरेक मे उसने बहू को गले लगा लिया। भारी काम ना करने और भारी सामान न उठाने के निर्देश के साथ एक स्नेह भरा आदेश भी दे डाला-
"कल तैयार रहिया।साथे नर्सिंग होम चलिहा।"

चहक-चहक के काम करती रही दिन भर।सबसे हँस के बात की;सब काम किया - न हील,न हुज्जत।शाम को डॉक्टर साहब आखिरी राउण्ड लगाकर निकलने ही वाले थे कि वो सामने जा कर खड़ी हो गई।
"क्या बात है सुखिया?सब ठीक-ठाक।"उन्हे लगा पैसा बढ़ाने को बोलेगी।
सुखिया ने दाँत निपोर दिए-
"सब आप ही दया है सरकार।हमको पोता होने वाला है।थोड़ा बहू को देख दिजिएगा।"
"हाँ,हाँ, कल लेती आना।"बोझ हल्का होते ही मुस्कराए डाक्टर साहब-"तुम्हे कैसे मालूम कि पोता होगा।"
अकचका गई सुखिया;मुँह से बोल ही नही फूटे। ये प्रश्न एक भावी आशंका बनकर उसके दिलो-दिमाग पर छाता चला गया। सच ही तो कहते हैं! ये लक्ष्मी भी झूठ-मूठ का सोचते रहती है। उल्टी से थोड़े ही पता चलता है - उसे भी दूसरी बेटी के समय कितना उल्टी हुआ था।

पर रास्ते भर वो भी यही सोचते हुए आई। रोज की तरह चलती रही,घर पहुँच गई। सब कुछ वैसा ही था। मुन्नी गरदन मे लटकी,चॉकलेट लेकर भागी,लक्ष्मी चाय बना लाई। पर मन कही और था-दो विकल्पो के बीच झूलता हुआ। एक के बारे मे जितना सोचती थी,दूसरा उतने ही शिद्दत से सामने खड़ा हो जाता। विकल्प चुनने की समस्या नही थी,उनके विद्यमान होने पर भी कोई शक नही था। हाँ,सोच का गहरापन और सारा उहापोह दोनो मे से किसी एक के हो जाने के बाद के स्तर से जुड़े थे। इसी उधेड़बुन मे वही खटिए पर पसर गई। सास को परेशान देख लक्ष्मी ने मुन्नी को पास भी फटकने नही दिया। रात मे दो चार कौर अनमने ढ़ंग से लिया,फिर हाथ धो लिया।’खाती क्या?’ - दिमाग मे तो वही झंझावात चल रहा था;पूरे परिवार का गणित बिगड़ने का डर था।

मुन्नी के लिए तो उसने सारा खाका तैयार कर लिया था।अपनी ना जी हुई जिन्दगी,अपने सपनो की जिन्दगी... मुन्नी के सहारे जीने की सोची थी। सारी दमित-शमित इच्छाएँ,दबे-कुचले अरमान, खुली या बन्द आँखो से देखे सपने.... सब के सब पूरा होने का बस एक ही जरिया था उसके पास।लक्ष्मी ने तो मना भी किया था,पर वही अपनी जिद पर मुन्नी को अँग्रेजी स्कूल मे भरती करवा आई थी।
"बाप रे!इतना चोंचला।इत्ती महंगी पढ़ाई।एतना पैसा फूँको।उ पर भी पढ़-लिख के फायदा क्या?" शुरू-शुरू मे कितना बड़बड़ाती थी लक्ष्मी।पर धीरे-धीरे उसे भी ये सब अच्छा लगने लगा था;शायद सुखिया की आँखो के कुछ सपने छिटककर उसकी तरफ भी पहुँचने लगे थे।

’एक दिन नाम रौशन करेगी इ बच्ची’-सोचते हुए पास सोई मुनिया को उसने अपने मे चिपटा लिया।पहले कुनमुनाई, फिर दादी संग चिपक गई।’इसका भाई हुआ,तो उसे भी उसी स्कूल मे पढ़ाएगी।नही,और भी अच्छा स्कूल मे - आँखो मे एक दृढ़-निश्चय की चमक कौंधी। बड़ा अफसर बनेगा,खानदान का नाम बढ़ाएगा।पैसा का क्या है,इंतजाम हो जाएगा।डॉक्टर साहब से कहकर लक्ष्मी को भी कहीं काम पर धरवा देगी। वो भी किसी साहब के घर मे बरतन-बास,झाड़ू-पोछा का काम पकड़ लेगी,बैठी ही तो रहती है सबेरे-शाम।’
मेम होगी मुन्नी,साहब बनेगा उसका भाई - सुखिया के होठो पर मुस्कान दौड़ गई।पर आँखों का छोटा सा आसमान इतने बड़े बादल को समेट नही पाया। पल्लू से उसने गीली हो आई आँखो को पोछ लिया। इस डगर पर इतनी दूर बढ़ आई थी कि पता ही नही चला कि कब दूसरी ओर खींचने वाला बल भी उतना ही विशाल हो कर मन को डराने लगा था-
"कहीं लड़की हुई तो?"
कुछ अनचाहे दृश्य और विचार मन पर बोझ बनकर जमने लगे।घबराकर उसने सारे बोझ को परे ढ़केला-
’कल पता चल ही जायेगा।’और करवट बदल कर सो गई।

पता चल ही गया,जब लक्ष्मी को दवा के लिए कम्पाउण्डर के पास बिठाकर वो डॉक्टर साहब के केबिन की ओर भागी और वहाँ घुसकर चुपचाप खड़ी हो गई।
"सब कुछ नॉर्मल है।हर महीना लाकर दिखा जाना।"
सुखिया ने कृतज्ञ भाव से हाथ जोड़ लिए-"और डॉक्टर साहब?"
प्रश्न के चोले वाले इस ’और’ का अर्थ,संदर्भ और औचित्य पता नही जो भी हो,पर इसकी प्रासंगिकता पूछने वाले और जबाब देने वाले - दोनो को स्पष्ट थी।असली बात कुछ ही क्षणों मे खुल कर आ गई -
’लक्ष्मी पर लक्ष्मी जी सवार हुई थी।’
थके कदमो से सुखिया बाहर चली आई।रामधन तब तक पहुँच गया था सब को घर लिवा जाने के लिए।रास्ते भर लक्ष्मी डॉक्टर साहब के गुण-गान करती रही-
"केतना बढ़िया थे।न इलाज का पैसा लिया,ना खून-पेसाब जाँच का। दवाईयो मुफ्त मे दे दिए। हर महीना आकर दिखाने को भी बोले हैं। आजकल ऐसा पुण्यात्मा-धर्मात्मा मिलता कहाँ है,जो गरीब-गुरबा के बारे मे सोचे।"
"सब माई के कारण होलै। ना त कोई ओतना दयालु ना हय हियाँ पर।"
रामधन ने दोनो पैर पायडिल पर जमाए हुए गरदन पीछे घुमाकर जमाने पर अपनी सटीक टिप्पणी दी। और वक्त होता,तो माई का छाती फूल जाता इ सब सुनकर,पर अभी विचारो का बवंडर चल रहा था।चुपचाप रिक्शे पे कोने मे सिमटी बैठी रही।

रात मे मुन्नी के सो जाने के बाद उसने रहस्य पर से परदा हटाया। लक्ष्मी जड़ हो गई, मुण्डी जमीन की ओर गाड़ लिया।रामधन चुपचाप बैठा रहा। सपने जब टूटते हैं,तो इतनी गहरी आवाज होती है कि बाकी सारी आवाजें उसी की गहराई मे दफन हो जाती हैं.......फिर छूट जाती है एक घनी सी चुप्पी,गूँगी-बहरी खामोशी!...कोई कुछ ना बोलना चाहता है,ना ही कुछ सुनना।
सब के सब चुप बैठे थे;एक शब्दहीन माहौल पसरा हुआ था। बड़े होने का दायित्व निभाते हुए सुखिया ने ही चुप्पी तोड़ी-
"कि करै के हय?"
स्तब्ध,शांत आँगन मे मानो एक थाली उपर से किसी के हाथ से छूटी।छन की आवाज थाली की थरथराहट के साथ धीरे-धीरे मद्धिम पड़ती चली गई,फिर थाली और छन दोनो शांत। फिर सब चुप। कुछ भारी-भारी से लम्बे होते क्षण और बीते,फिर दिल कड़ा कर उसने बात आगे बढ़ाई-
"डॉक्टर साहब बोलय हलथिन कि अगर तैयार हओ,तो सब इंतजाम हो जैतै।"
"का बोलेगा उ डगडरवा? पापी कहीं का। हमर पेट के बच्चा को मार देगा। जालिम! जमराज! हमरा सराप लगेगा उसको। उसके बंस का नास हो जाएगा।"
लक्ष्मी गरजी अचानक से मुण्डी उठाकर और डॉक्टर के पूरे खानदान को एक सिरे से गालियाँ देनी शुरू कर दी। सुखिया का चेहरा भक्क! ऐसी प्रतिक्रिया उसने सोंची भी नही थी। लक्ष्मी जैसी समझदार और परिवार चलाने वाली बहू इस कदर आपे से उखड़ जाएगी,ये बात भी कल्पना के परे थी।
"तमाशा हो जैतै। चुप रहा अभी।" रामधन ने समझाया।


पता नही रामधन का असर था,परिवार के प्रतिष्ठा का या उसके पास की सारी गालियाँ खत्म हो गई थी - लक्ष्मी की आवाज मद्धिम पड़ती गई और उसने वही बैठ के सुबकना शुरू कर दिया। सोंच और आक्रोश की दिशा धीरे-धीरे सास की ओर मुड़ने लगी-
’कैसे फटाक से बोल दिया माई जी ने।कलेजा पत्थर का मालूम पड़ता है।आधा दर्जन बच्चा खुद जना,फिर भी मोह नही।आखिर रोज काम भी तो यही करते रहती है!’
लक्ष्मी को बहुत पहले उड़ती सी खबर मिली थी कि उस नर्सिंग होम मे क्या होता है। शायद के बुर्के मे लपेट के उस शुभचिंतक ने ये सच भी उगल दिया था सुखिया उन अजन्मी-अधूरी लाशों को लेकर जंगल वाले कुएँ मे फेंकने जाती है। अपने वजूद के एक जिन्दा हिस्से को यूँ बियावान मे कूड़े के जैसे फेंक दिए जाने का ख्याल आते ही उसके सब्र का बाँध टूट पड़ा और रोने की आवाज तेज हो गई।
"चुप्प करा। रोना-गाना एकदम बन्द।" रामधन गरजा।
अपनी माँ ने अपराधग्रस्त होते चेहरे को देखकर उसे सबसे सही यही लगा। लक्ष्मी चुप तो लगा गई,पर रूलाई रोकने की जबरदस्ती कोशिश मे खाँसी का एक लम्बा दौर शुरू हो गया। पानी पिलाया सुखिया ने और फिर वही बैठकर उसे कलेजे से लगा लिया.....नवजात शिशु की तरह वो चिपकती चली गई।पहले-पहल चुप रहे,फिर दोनो बुक्का फाड़ कर रो पड़े।रामधन छत निहारता रहा।रात भर कोई नही सोया;सब अपनी-अपनी सोच मे उलझे हुए थे।

सबेरे भी माहौल भारी ही था।सब अपना अपना काम यंत्रवत कर रहे थे। मुन्नी को स्कूल पहुँचाने के बहाने सुखिया खिसक ली। इस स्थिति के लिए वो खुद को जिम्मेवार मान रही थी। घर मे अकेले बचे दोनो - अपनी-अपनी चुप्पी मे खोये हुए। शुरूआत लक्ष्मी ने ही की। रात के दबे आक्रोश को अब तक शब्द के सहारे मिल चुके थे। सुखिया भी नही थी,सो कोई मेड़ भी नही डाली;सारा पानी बहने लगा। शुरू मे तटस्थ रहा रामधन,चुपचाप उसके प्रलाप सुनता रहा। सीमाएँ जब दूर तक लँघ गई और चुप रहने से बात के और बढ़ने और बिगड़ने की आशंका दिखने लगी,फिर उसने मोर्चा सम्भाला। लक्ष्मी को पास बिठाया और समझाने के अंदाज मे बोला-
"बेचारी बूढ़ी सब कुछ करय हय केकरा लिए? हमरा,तोरा,परिवार के लिए न।अब ओकर उमर खटै वाला हय। बोलहो? तैयो दिन-रात,हर बखत अपना देह के भूलाके काम करे ला तैयार रहय है। तोरा त अपन बेटी से भी जादा मानै हय।"
अपनी बात का असर होते देखकर वो फिर मूल मुद्दे पे आया-
"एगो लरकी के पाले मे एत्ता खरच होवै हय।तू त देखवे करय हो।अब बताहो,दोसर छौड़ी के खरच कहाँ से ऐतै?फेर दोनो के सादी के खरचा!उहे ला उ ऐसन बात बोलले होतै।तू ना जानय हो माय के कलेजा।हमरा तोरा से जादे मुनिया के मानय हय।"
बात भी सच्ची ही बोल रहा था वो।लक्ष्मी भी इससे इन्कार नही कर सकती थी।मुन्नी के पढ़ाई का सारा खर्च,दूध,दवा-दारू, सबके कपड़े-लत्ते,साबुन,तेल,सर्फ - सब का जिम्मा तो सुखिया ने उठा रखा था। बेचारी उसी की चिंता मे दिन-रात लगी रहती थी।रामधन की कमाई से तो किसी तरह बस खाना-खुराकी चल पाता था। जितना ज्यादा वो सोंचती गई,भावनाओं का आशियाना मोम बनकर पिघलता गया। घर की माली स्थिति के पैराशूट से धीरे-धीरे वो यथार्थ के जमीन की ओर उतरने लगी.....वहाँ आसमान मे सूनापन उतरने लगा था। लक्ष्मी की माया देखो - एक लक्ष्मी अपने अन्दर की अपनी लक्ष्मी से धीरे-धीरे दूर हटते जा रही थी...पहचानने को,अपना कहने तक को भी इन्कार करने के लिए तैयार होती जा रही थी।

स्कूल मे मुन्नी को छोड़कर सुखिया व्यर्थ ही सड़क पर इधर-उधर टहलती रही। ’बेकार का बवाल खड़ा कर दिया उसने घर मे। होने देती बच्चा,जब खर्चा बढ़ता,तो फिर पता चलता? लेकिन लक्ष्मी भी क्या करती बेचारी - कोई भी रोएगा जब उसके बच्चे को मार दिया जाएगा।माँ का दर्द तो वो समझती ही थी।’ पर जब खूब धूप निकल आई,फिर घर की ओर बढ़ने लगी;नर्सिंग होम भी तो जाना था। अपराध-बोध और असंभाव्य के बीच डोलते हुए घर मे जब कदम रखा,तो लक्ष्मी को गुमसुम एक कोने मे बैठा हुआ पाया। सास को देखते ही वो उठ खड़ी हुई-
"माई जी,नस्ता कर ला। जाय के ना हय कि? "
सुखिया अकबका गई। क्या बोले,कुछ सूझा ही नही। तब तक थाली मे रोटी-सब्जी-अचार सामने आ चुका था।
"हमरा भूख ना लगल हय।"
लक्ष्मी ने सास को जबरदस्ती बिठाया और एक कौर उसके मुँह मे डाल दिया। डबडबा आई आँखों से धार फूट पड़ी। पल्लू से आँसू पोछते हुए सुखिया ने उसे गले लगा लिया और फफक पड़ी। लक्ष्मी खामोश रही,कलेजा पत्थर का कर लिया था उसने! निकलने ही वाली थी कि कानो मे एक सर्द आवाज टकराई-
"डाक्टर से बात कर लिहा।"
भागते कदमो से वो वहाँ से निकल गई;नजर मिलाने की हिम्मत कहाँ बची थी उसमे।

दो दिन रही लक्ष्मी अस्पताल मे। चेहरा पीला पड़ गया था - खून शायद ज्यादा बह निकला था। सुखिया भी पिस गई थी उन दिनो - घर और बीमार दोनो की व्यवस्था करते-करते। मुन्नी ने पूछा भी,पर दादी ने उसे बहला-फुसला लिया। उसे यही बताया कि उसकी माँ किसी काम से नैहर गई है। खैर घर लौट के आ गई लक्ष्मी और सब लोग पहले की तरह अपने-अपने काम मे जुट गए;जिन्दगी ढ़र्रे पर लौटने लगी।

पर कहाँ लौट पाई पहले जैसी जिन्दगी! सब कुछ दिख तो सामान्य ही रहा था,पर बहुत कुछ बदल गया था। सुखिया कटी-कटी सी रहती,सुबह पहले ही निकल जाती थी और शाम मे खूब अँधेरा ढ़लने पर वापस आती। लक्ष्मी पहले भी कम ही बोलती थी,अब और भी चुप्पी लगाए रहती थी। दोनो जब तक घर मे साथ-साथ रहते,एक खींचा-खींचा सा माहौल हो जाता था;चुप्पी ही मानो भावो के उठ रहे तूफानो का प्रतीक बन गया था। केवल औपचारिकताओ के अलावा शायद ही कोई बात करते दोनो। सुखिया ने दो-एक बार मुन्नी को बातचीत का जरिया भी बनाया,पर ऐसे हर प्रयास को लक्ष्मी ने अपने नपे-तुले शब्दो से शुरू होते ही विफल कर दिया।
"मुनिया,जा माय के कह दे उ भी दूध पीतय।"
"हम दूध पीके कहा जैबै? फेर जादे दूध के पैसा कहा से ऐतै?"
इन प्रश्नो का जबाब देने पर कितने मुद्दे जुटते चले जाते और अंत मे कौन सी बात आ जाती, सुखिया को आभास था इसका।बारूद के ढ़ेर को क्यूँ चिन्गारी दिखाना - सो चुप लगा गई।
नर्सिंग होम मे कोई नई दवा की कंपनी वाला आया था,डॉक्टर साहब को बहुत सारी विटामिन की गोली दे गया था। उन्होने सुखिया को ढ़ेर सारी पकड़ा दी घर ले जाने को।
"मुनिया, आय से सब कोय खैतै इ गोली सुबह-शाम। खून बनतय,ताकत ऐतै।"
"हमरा खून बनके कि होतय? ताकतो कौन काम के? कोनो बच्चा थोरिए पैदा करे के हय......"
आगे भी कुछ बोलना चाहती थी,पर मुन्नी को देख अचानक से चुप लगा गई।

रामधन तटस्थ था;शायद निर्विकल्प भी - क्या प्रतिक्रिया देता भला! घर मे उठ रहे इन छोटे-मोटे तूफानो को समेटे रहने मे ही भलाई थी। माँ ने तो कभी कुछ नही कहा,पर मौका पाते ही लक्ष्मी अकेले मे मन का सारा गुबार उसके सामने निकाल देती थी। उस समय चुप रहने के सिवा कोई चारा भी नही था,कुछ समझने की स्थिति मे वो थी भी नही। अपने वजूद के एक अंश खो देने का सारा मलाल सास के लिए आक्रोश बन कर निकल पड़ा था। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा - इसी सोच के साथ खुद को स्थिर रखे त्रिभुज के दोनो बिन्दुओं को दूर जाता देख रहा था। इन सब से परे थी तो मुन्नी-त्रिभुज का केन्द्र। किसी ने उसे बिल्कुल ही आभास नही होने दिया कि कुछ हुआ है। वैसे ही उछलती रहती,स्कूल जाती,सबके सपनो को जीती,रात मे दादी से चिपट कर सो जाती। घर उसी तरह से चल रहा था,जिसका वो आदी था।

’उस दिन भी तो तीन केस हुआ था!’ - बिस्तर पे पड़े सुखिया सोच रही थी।...फी बच्ची बीस रूपैया...साठ तो उसे मिले ही थे। पानी का नया बोतल बदलाया लक्ष्मी का,तो घण्टा भर के लिए निश्चिंत होकर उस काम के लिए निकल पड़ी थी। कम्पाउण्डर ने काली पोलिथिन की एक थैली पकड़ा दी उसे और हर बार की तरह वो निकल भागी कुँए की तरफ। पीपल के पास से मुड़ते हुए ख्याल भी आया कि खोल कर एक बार देख ले-
’कहाँ पहचान पाएगी? सब त मांस का लोथड़ा ही होगा।’
निष्काम भाव से उसने थैली फेंक दी। अपनी अजन्मी पोती का अंतिम संस्कार कर के कुछ दूर बढ़ी ही थी कि लगा कोई पीछे से पुकार रहा है।
"दादी इ इ इ ऽऽऽऽऽ, ओ दादी इ इऽऽऽऽऽऽऽऽऽ ।"
आवाज बिल्कुल मुनिया जैसी थी;वो भी पसर कर ऐसे ही तो बोलती है!
समूचा देह गनगना गया उसका,माथे पर पसीना चुहचुहा आया। हनुमान जी को याद करते हुए दौड़ पड़ी। रोड पर भी भागती रही... नर्सिंग होम पहुँची,तो जान मे जान आई। वहीं सीढ़ियों पर बैठ गई। कलेजा धौंकनी से भी तेज चल रहा था। साँसे जब थमी,फिर मुँह-हाथ धोया और लक्ष्मी के बेड की ओर बढ़ गई। वो सोई हुई थी;सुखिया ने चैन की साँस ली।

बगल मे लेटी मुन्नी कुलबुलाई,तो सुखिया के सोच की रेखा तितर-बितर हो गई।चद्दर ठीक से ओढ़ा दिया उसे और खुद भी सोने की कोशिश करने लगी।दिन-भर की थकान,घर का बोझिल माहौल,आँखें बन्द हो गई।
- बहुत भारी सा काला थैला लिए वो कुँए की तरफ जा रही है। बारह-पन्द्रह तो होंगे ही... मन मे हिसाब भी लगा लिया... मुनिया के एक महीने का फीस निकल आएगा। थैला जैसे ही उसने फेंका, देखा मुनिया नीचे से उड़ते हुए आ रही है।
"तू यहाँ कैसे?"
"तू ही फेंक के गई थी दादी।"
दादी को काटो खून नही।अचानक एक और मुनिया आई,फिर एक और..फिर सैंकड़ो-हजारो मुनिया कुँए से निकलने लगे।वो भागने लगी,पर कानो मे एक साथ हजारो आवाजो का हुजूम टकराने लगा-
"दादी इ इ इ ऽऽऽऽऽ,ओ दादी इ इऽऽऽऽऽऽऽऽऽ।" -
झटके से उठ बैठी सुखिया....पूरा बदन अभी तक थरथरा रहा था। आस-पास देखा,कोई नही था; कोई आवाज भी नही। घर के बाहर खटिए पर वो मुन्नी के साथ सोई हुई थी। जान मे जान आई उसकी। पानी पीकर फिर से सोने की कोशिश की,पर अब नींद कहाँ। उठी बिस्तर से और वही घर के आगे टहलने लगी।
"दादी,ओ दादी"- रोने की आवाज कानो मे पड़ी,तो डर सी ही गई पहले। थोड़ा सम्भाला खुद को फिर - मुन्नी जग गई थी और साथ मे उसे ना पाकर रूआँसी हो गई थी। अपने से चिपकाया उसे और थपकियाँ देते हुए सुलाने लगी।

अब सही मे डर लगने लगा था उसे उस कुँए और उससे जुड़े़ संदर्भों से। पर करती भी क्या, रोज का रास्ता भी वही था और काम भी वहीं का - उपर से थोड़ी कमाई भी हो जाती थी! एक बार तो मना भी किया,तो खुद डॉक्टर साहब ही आकर बोल गए, फिर कैसे नहीं जाती। रेट भी उन्होने बढ़ा दिया बिना बोले;फी केस पच्चीस रूपए मिलने लगे थे। डॉक्टर की भी मजबूरी थी,इस काम के लिए भरोसे वाला आदमी चाहिए था उन्हे। किसी नए पर विश्वास नही किया जा सकता था। सो बीच-बीच मे पचास-सौ अलग से पकड़ा दिया करते थे। ऐसी सब उपर वाली कमाई को सुखिया बिना नागा किए नियम से पोस्ट-ऑफिस मे जमा करवा आती थी और हर ऐसे अवसर पर उसकी आँखों मे ढे़रो सपनो की एक नई चमक दिखाई देती थी,मानो उन सपनो ने नए कपड़े पहन लिए हों!

सब अपनी-अपनी जगह मजबूर थे;जीए जा रही चीज को जिन्दगी कहकर आत्म-संतुष्ट थे। अब देखो ना,एक ही घर मे रहते हुए तीनो की मजबूरी अपनी-अपनी थी,आत्म-संतुष्टि के मायने अलग थे और कह सकते हैं कि जिन्दगी भी अलग ही जी जा रही थी। अब दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की किसे फुर्सत? रामधन को मानो पृथ्वी को आर-पार किये हुए सुरंग मे फेंक दिया गया था- चिरकाल तक इधर से उधर डोलने के लिए।एक छोर पर माँ की गहराती जाती चुप्पी थी,तो दूसरी तरफ पत्नी का मुखर होता जाता आक्रोश।दोनो दिन पर दिन बढ़ते जा रहे थे! रामधन के डोलने की आवृति भी वैसी ही बढ़ती जा रही थी। डर भी लगता था मन मे - कहीं दोनो छोर मिल गये तो?
’प्रलय हो जाएगा!! धरती डोल जाएगी!! - सब कुछ खत्म!!!’

धरती डोल ही गई! इतवार का दिन था। मुन्नी का स्कूल बन्द,सुखिया भी देर से ही जाती थी। सुबह-सुबह सब चाय पी रहे थे। अचानक मुन्नी उछलती-कूदती आई और दादी के गरदन मे लिपट के जोर से बोली-
"दादी बुतरखौकी है।"
सब अवाक! सुन्न! कोई हरकत नही!
मुन्नी को लगा किसी ने सुना नही। वो और जोर-जोर से बोलने लगी-
"दादी बुतरखौकीऽऽऽऽऽ..... दादी बुतरखौकीऽऽऽऽऽ...."
रामधन ने लक्ष्मी की ओर देखा,उसने मुण्डी नीचे गाड़ ली- ये नाम भी तो उसी का दिया हुआ था! मुनिया को पीटने को दौड़ा,तब तक वो उछलती हुई बाहर भाग गई थी। आधी चाय वही खटिए के नीचे रख सुखिया उठी,चप्पल पाँव मे फँसाए और काँपते कदमो से बाहर निकल गई। पीछे से लात-मुक्के-गालियो की बौछार से खुद को बचाती रोने की एक आवाज उसके कानो पर पड़ी,पर वो तो बहरी हो चुकी थी।वहाँ तो बस एक ही आवाज गूँज रही थी-
"बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! "

सर झुकाए वो चलती रही। कोई ताकत नही,जान नही,जिस्म को मानो घसीटते हुए बस्ती के बाहर ले गई। सब कुछ हार गई थी आज वो। एकदम से कंगाल हो गई थी। अपना घर,परिवार ,सारी आशायें,सारे सपने,यहाँ तक कि खुद को...सब कुछ जिन्दगी की दाँव मे गवाँ बैठी थी।
’ जिनके लिए अभी तक मरती रही,जिन्हे देख कर जीती रही,उन सबने ही उसे जीते-जी मार डाला। जिसके लिए पाप किया,वही पापिन बोले - घोर अनर्थ है! सब बेकार है! सब कुछ खत्म!’
...........कुँए मे कूदने ही वाली थी कि हजारो आवाजे एक साथ कानो से टकराई-
"बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! "
साथ मे एक और आवाज आ रही थी.....उसने सुनने की कोशिश की......!
"दादी इ इ इ ssss,ओ दादी इ इsssssss।"
...........सर पकड़ कर वही मुंडेर को थामे-थामे धम से गिर पड़ी।


सिनेमा चल रहा है मानो। कई सारे दृश्य एक एक करके आँखो के सामने आते जा रहे हैं-

’बीच चौराहे पर सुखिया को नंगा खड़ा कर दिया गया है - बिल्कुल मादरजात!
सब चिल्ला रहें हैं;ढे़र सारी आवाजे आ रही हैं - "बुतरखौकी को मार डालो। हमारा बच्चा खा जाएगी।"
भीड़ मे उसने देखा है - लक्ष्मी सबसे आगे है पत्थर हाथ मे लिए!
रामधनवा नही दिख रहा। मुनिया भी कही खेल रही होगी। नही, स्कूल गई होगी!’

’मुन्नी मेम बन गई है। गाँधी बाबा उसको अवार्ड दे रहे हैं। वो अँग्रेजी मे गिटपिटया कर बोलती है कि सब हमारे दादी का प्रताप है और उसे मंच पर बुलाती है। सुखिया मंच पर खड़ी है,पास मे गाँधी बाबा - नोट से निकल के एकदम साक्षात खड़े हैं, ताली बजा रहे हैं।डॉक्टर साहब भी ताली बजा रहे हैं। सुखिया लजा जाती है।’

’ मुन्नी की शादी हो रही है। खूब गाजा-बाजा। खूब सजा हुआ है। राजकुमारी लग रही है लाल साड़ी मे,सोना का किनारी खूब फब रहा है। उसका दूल्हा भी सजीला राजकुमार है! डॉक्टर है! सब आशीर्वाद दे रहे हैं,अक्षत छींट रहे हैं। सुखिया भी नई साड़ी पहने हुए है। दोनो दुल्हा-दुल्हन पैर पे पड़े हैं। विदाई हो रहा है,दादी से लिपट कर मुनिया भोंकार पार के रो रही है। बड़की गाड़ी मे मुनिया चली जाती है ससुराल। रात भर का जगरना हुआ है,अब सुखिया चैन से सोएगी।’

’सुखिया की लहास पड़ी है।मुन्नी लिपट के रो रही है। रामधनवा माथा पकड़ के बैठा है,आँखे गीली है। लक्ष्मी बदहवास सी चिल्ला रही है-
"हमहि मार देलिअय माईजी के। हमरा माथा पर डाकिणी सवार हो गेले हलय।अपन माय के कथि ना बोललिअय। हमरा से गलती हो गेलय। माफ कर दहो अपन बचिया के। काहे छोड़ के चल गेलहो माई जीऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ"....
.......................सुखिया की लाश को जलाया जा रहा है।’

’मुनिया का स्कूल छूट गया है फीस ना भरने के कारण। दिन भर इधर उधर बनच्चर जैसा घूमते रहती है। लक्ष्मी दो चार घर मे बरतन-बासन करती है।एक दिन एक साहब ने उसे पकड़ लिया है.... वो चिल्ला रही है,पर कौन आएगा? रामधनवा त रिक्शा खींच रहा है। घर चलाने के लिए दिन-रात करके मेहनत कर रहा है। डॉक्टर उसको टी बी बताया है। लक्ष्मी कह रही है अकेले मे उसे -
"माईजी हलथिन ,त कोई दिक्कत ना हलै। उ गेलखिन,सब कुछ खतम हो गेलै। माफ कर दिहा माईजी।"
...................आसमान मे बैठी सुखिया उसे माफ कर रही है।
आँखे खुली,तो सुरज देवता पश्चिम मे चले गए थे। सांझ की वेला थी,सब अपने अपने घर लौट रहे थे। उठी,साड़ी ठीक किया,अंधेरे मे किसी तरह से चप्पल ढूँढ़े। कही से कोई आवाज नही आ रही थी।
"सब बुतरूए हय।बुतरू-बानर के बात के कोय मतलब नय।"
उसने खुद से कहा और घर की ओर चल पड़ी।



परिशिष्ट
कहानी की सुखिया को तो परिवार चलाना है,अपने सपने जीने हैं,सो घर वापस चली जाती है। पर सुखिया स्वतंत्र है कुछ भी करने को। आत्महत्या करने से लेकर कन्या-भ्रूण हत्या के विरोध मे उठ खड़ी एक मुखर नेता बनने के दोनो अति के बीच मे जितने भी विकल्प आते हैं,सब के सब खुले हैं उसके पास। जरूरत है तो बस संदर्भों की,मायनो की,जो सुखिया के चरित्र को अपना एक प्रतिमान दे पाए। पर समस्या यही है कि सबके संदर्भ अलग हैं,सोच के मायने अलग हैं.....सो शायद सुखिया भी अलग-अलग है!

अपनी बात
ये कहानी उन अभागे दधीचियों को समर्पित है,जिन्हे उनसे बिना पूछे यूँ ही बलि-वेदी पर चढ़ा दिया गया। पता नही कौन से असुर का वध करना था? और अस्त्र भी कहाँ से बन पाता,कौन बना पाता;अभी तो हड्डियाँ भी ठीक से नही बन पाई थी!
मैने भी ऐसा ही एक पाप किया है।
प्रायश्चित-स्वरूप उन्हे अपनी रचनाधर्मिता की एक श्रृद्धांजलि -

"परेशान हैं सारे
अफवाह उड़ा दी है किसी ने-
कि लड़कियाँ कम हैं यहाँ पे!

पर/मालूम नही उन्हे /कि
घर हमारे भर गए हैं,
कोख भी कम पड़ गए हैं,
सो -
वे
बिना जन्मी हुई साँसे बनकर,
अधूरे तन की लाशे बनकर,
कूड़ों पे सज रही हैं
कुँओं मे मिल रही हैं।"

[रचनाकार का उद्देश्य किसी भी दृष्टिकोण से कन्या-भ्रूण हत्या को जस्टिफाई करना नही है। यह एक सामाजिक कुरीति और कानूनन अपराध है और हमे मिल-जुल कर अपने समाज को इस से पवित्र रखना है।]

Friday, December 21, 2007

Trivia about Life - Did you know...

Trivia about Life - Did you know...
Suppose the average human life in today's world is not more than 60 years. If you analyse the break-up of activities associated with these 60 years of your life, you can see that it more or less matches with the following:
12 Years in Working
22 Years in Sleeping
04 Years in Routine Travelling
05 Years in Eating
03 Years in Bathing, Dressing etc...
06 Years in Useless Chatting, Gossip
04 Years in Sickness & Illness
Balance ? Only 4 YearsOur only question to one and all is, why should mankind think, involve in activities that result in sufferings, terror, hatred, fighting, killings etc... in the short span of 4 years left to them. It needs to be utilized in a better way by doing all good things, helping others and thanking God for the opportunity given to us in being a human being... Live and Let Live.

Thursday, June 21, 2007

चार सोपान : जीवन के

(१)

मैं एक ठेलेवाला,
जन्म लेते ही पता चला/कि
ठेला खींचना ही है/
मेरी नियति -
सो घर से निकाला ठेला/
सवारी नही थी कोई ;
खाली ठेला दौड़ाता जा रहा था ।

कुछ पल बाद आभास हुआ/
संग मेरे कोई / दौड़ते चल रहा है;
मैने हवा मे सवाल दागा,
जबाब आया-
मै हूँ तुम्हारी जिन्दगी...।

(२)

मै एक ठेलेवाला,
ठेला खींचना मेरा काम;
पर यूँ ही / कब तक /
खाली ठेला लेकर दौड़ता रहता ?

एक जगह रूका,
सवारी की तलाश मे/ नजरें दौड़ाई-
पर दूर तक कोई /
ठेले के इन्तजार मे/
कोई नही था !
लगा -
इस बस्ती मे /शायद / सबके पास /
अपने-अपने ठेले हैं ।

पर /
मेरा आत्म-दंभ !
एक मिथ्या अहं !
बाध्य कर रहा था / मुझे /
कोई बोझ लेने को,
खुद को साबित करने को -
सो/
खुद को बैठा /ठेले पर /
खींचना शुरू किया ।

कि/
जिन्दगी ने अपना पाला बदला,
मूक दर्शक अब मुखर हो गया
और मजबूर करने लगा/ मुझे
संग अपने दौड़ने को ।
मैने इन्कार किया,
अपनी ही चाल चलना चाहा,
कि-
अचानक बदन पे एक कोड़ा आ पड़ा,
दर्द की तड़प मे / मैने देखा -
जिन्दगी का हाथ /
हवा मे लहराकर /
वापस आ रहा था ।

(३)

मै एक ठेलेवाला,
खींचे जा रहा हूँ ठेला/
खुद को उसपे बिठाकर ।
कोशिश कर रहा हूँ/
साथ चलने की -
जिन्दगी के साथ /
जो बाजू मे दौड़ती जा रही है,
और रह-रह कर /
मेरी सुस्त चाल देख /
कोड़े बरसाती जा रही है ।

काश!
वो समझ पाती /
कि-
ये सुस्ती नही ,अशक्तता है ,
नाटक नही , विवशता है......।
काश!
मै भी ये समझ पाता
कि/वो
ये नही समझ सकती ........।

(४)


मै एक ठेलेवाला,
खींचे जा रहा था ठेला /
खुद को उसपे बिठाकर ।
पुरानी नीली धारियों पे/ स्याह-सुर्ख
लाल रंग आते जा रहे थे ,
मेरे तन पे/
कोड़ो के /नए-नए
निशान पड़ते जा रहे थे ।

बेचारगी थी ! मजबूरी थी !
सो/
जिन्दगी का साथ /
छोड़ नही सकता था,
पर यूँ जिन्दगी भर /
कोड़े भी तो /
खा नही सकता था ।

एक पल रूका....
जिन्दगी का कोड़े वाला हाथ/
जब तक /
हवा मे लहराता/
तब तक/
मै चढ ठेले पे,
एक ही लात मे/
गिरा दिया खुद को/
अपने ठेले से ।

फिर जिन्दगी मुस्करा दी....
ठेला दौड़ पड़ा.........।

उपसंहार

सोच रहा था -
गर मै ना होंऊँ ,
ये जिन्दगी भी ना हो,
और
हम दोनो को जोड़ती/ साँसो की
डोर भी गायब हो जाए -
तो/ इस
ठेले का क्या होगा ?

पर पुरखे कहा करते हैं -
ठेला तो यूँ ही रहेगा,
दौड़ता हुआ ........
अजल के पहले भी
अबद के बाद भी

Wednesday, June 13, 2007

बचपन

बचपन में /याद है/ यूँ ही/
सादे कागज पे,
कुछ चेहरे बनाता था मै.....।

वो चेहरे -
कुछ लगते थे मुस्कराते/
कुछ गम के गीत गाते..।
ओठ उपर को खींच देता/
जब लगने होते थे हँसते ,
उलट नीचे को खींच लेता/
जब चेहरे थे रोते होते ।

थी इक बात /
पर उनमें ,
या तो वो खुश रहते /
या होते थे गम मे रोते ..।

आज याद आया /फिर से /
बचपन का वो शगल ,
कागज लिया /कलम उठाई /
मेरा मन उठा मचल ,
बनाने बैठ गया मैं चेहरे -

गोला इक खींचा/आँखे जड़ दी /
नथुनों के फैलाव बनाए।
जब ओठो की बारी आई,
बस/
सीधी रेखा सी खींच आई।

सीधी स्मित रेखा -
जो ना जा उपर /
मुस्कराहट का गुमान देती ,
ना नीचे मुड़ /
बेइंतहा गम का पैगाम देती।

कैसे बनाऊँ अब चेहरे/जो
बयाँ कर ना पाते हों /
खुद को ,
कोई अक्स बनने ना पाता है/
सामने आइने के करो गर/
उनको।

गलती नहीं है उनकी यारों /
चित्रकार ही ठहर गया है ,
दर्पण मे मैं नही दिखता /
वो बच्चा शायद मर गया है ।

आँगन

अपने आँगन में बैठा/
अमरूद की छाह तले /
सूरज की किरणो से/ आँखमिचौली
खेलता था मै,
चटाइ के गलीचे पे लेटा/
चाँदनी की बारिश मे / भींगता -भींगता
नहाता था मै ।

पता नही कब/
वक्त की कारीगरी ने/
डाल दिया एक छत
मेरे आँगन के उपर/
और
मुझसे मेरा आँगन छिन लिया....।
काश वो जान पाता / कि
छत आसमान नही होता है,
उसमे चँदा और सूरज नही उगते हैं...।

अब / आसमान को देखने के लिए /
धूप और चाँदनी से मिलने के लिए/
मुझे घर के बाहर
आना पड़ता है-
असुरक्षा का लबादा पहने/
जमाने से नजरें चुराए।

कल लेटा-लेटा /
छत के पार के आसमान को /
देखने की कोशिश कर रहा था ,
कि
एक पंछी आया/
कानो मे बोल गया -
मेरा खुला आस्मां लौटा दो....,
कि
एक बच्चे ने मुझे
झकझोड़ कर जगाया -
मेरा वाला आँगन लौटा दो....।

तभी /घरवाले बोल उठे -
"ये क्या आँगन मे पड़े रहते हो/
कोइ पंछी हो या बच्चे हो "
एक आवाज मेरे अंदर गूँजी-
"नहीं !
मैं छत वाले आँगन
का बाशिंदा हूँ/ और हाल ही में/
एक पंछी और एक बच्चा /
कहीं दूर दफना आया हूँ ।"

Monday, June 11, 2007

शहर और आदमी

एक मुर्दा शहर में/
साँस लेती हुई
लाशें रहा करती थीं ।

एक रोज /
मौत भरी फिजां से तंग आकर
सोचा सबने -
ये मरा हुआ शहर छोड़ दें
कहीं और जा /कोई जिन्दा शहर बसाएँ ।

एक जगह दिखी / निर्जन, वीरान फिजां मे
जिन्दगी मुस्करा रही थी......
सब आ वहीं बस गये ।

सुना /
फिर
वो शहर भी मर गया था।

मेरा मस्तिष्क : मेरे विचार

हर सुबह और शाम
शुरू होती है प्रक्रिया -
अंगीठी जलाने की ।

सुलगा उसे/
अपने घर के
बाहर निकाल रख देता हूँ,
फिर धुँआ
पड़ोसी की खिड़की पार कर
उसकी सुबह कुछ साँवला बना देता है,
शाम का थोड़ा अंधेरा बढा देता है...।
पर भले हैं वो,
कुछ नही कहते,
शायद /
आदत पड़ गई है उन्हे-
इसी तरह जीने की,
उस धुँए को साँस लेने की.....।

कुछ ज्यादा दग्ध हो जाता हूँ /
जबअंगीठी तपने लगती है पूरी -
फिर जलते कोयले निकाल /
कागज मे रखता हूँ,
औरबाहर फेंक देता हूँ ...।

यकीन मानों !
वो कागज खुद नही जलते,
जलते कोयले / अपने तन पे संजोए/
सबको जलाते रहते हैं ।

बाहर दुनियाँ तपती जाती है,
अन्दर अंगीठी ठंढाती जाती है...।

मुर्दों की ख्वाहिश

मैं अपनी मुर्दा नज्मों को
जलाता नही/
जमीन मे गाड़ता नही/
ताबूतों मे भी कैद नही करता ;
छोड़ देता हूँ/
नंगी जमीन पर
कागज का कफन पहनाकर ।

वक्त /
कभी उसके तन पर /
अपनी सारी गर्द -
सुर्ख या स्याह,
शोहरत या इल्जाम -
जमा कर/ममी बना देता है.....
तो कभी
चील-कौओ के हवाले कर देता है........।

काश!
मैं उन बेजुबान मुर्दों की
ख्वाहिश जान पाता......।

अपना हिस्सा

दिन मे सूरज उखड़ा-उखड़ा रहा,
रात मे चाँद भी रूठा सा रहा,
मैने जो माँग की,
अपने हिस्से के आसमां की ।

उड़ने की ख्वाहिश थी-
सो उड़ता रहा, भटकता रहा/
एक दिन /पैर टिकाने को
/जो थोड़ी सी जमीन माँगी /
वो भी अपने हिस्से की,
फिर सारे अपने नाता तोड़ गए,
संग जमीं के
वो भी मुझसे दूर हो गए..।

आज पैर हैं मेरे/
जमीन के कुछ उपर/
सर है आसमां के बहुत नीचे/
बीच मे लटका हुआमाँग रहा हूँ मैं-
अपने हिस्से की जमीं
अपने हिस्से का आस्मां.....।

विडम्बना ,त्रासदी और सच्चाई

विडम्बना - मेरे जीवन की!
त्रासदी -एक विकृत मन की!
शायद !

खुद को बन्द कमरे में
लोगो की भीड़ में /
पहचान कीख्वाहिश रखता हूं... ,
जहाँ-भर की दुकानों को कोसकर
बाजारू नजरों में /खुद
ही नुमाइश बनता हूँ... ,

विडम्बना नहीं !त्रासदी नहीं !
यह तो सच्चाई है -
अन्तर्द्वन्द में फँसे /
विरोधाभासों से घिरे/
लोग अक्सर ऐसा ही सोंचते हैं ।

एक अंधेरी सुरंग के बीचोंबीच खड़ा मैं -
इधर भी रोशनी है,
उधर भी रोशनी है,
इस पार आने को भी दिल मचलता है
उधर का जहाँ देखने का भी मन करता है ...,

विडम्बना ही है,
त्रासदी ही है ,
और ये सच्चाई भी है -
दो खण्डो में बँटे /आधे-अधूरे /
लोग अक्सर ऐसी ही /
दोहरी जिन्दगी जिया करते हैं ।

Sunday, June 10, 2007

आज का मसीहा

आज का मसीहा ,
लटका होगा कहीं सलीब पर ,
और माँग रहा होगा दुआयें -
उनके लिये ,
जिन्होने इस हाल पर उसे पहुँचाया ..।

क्योंकि -
उन्ही की बदौलत ,
ये लोहे की जंजीरें ,
ये कीलें , ये सलीब ,
जिन्दा घाव , टीस उठाता दर्द ,
और इन्से मिलने वाली मौत -
उसकी अपनी और सिर्फ अपनी हो सकी ..।

मैं नहीं रोया

मैं नहीं रोया
आँखे खोली /
काली रात , स्याह पन्ने /
अरमान दफन हो गये / अन्धेरे का कफन ओढे /
उसी अन्धेरे में / धुल गई परछाईयाँ भी/
सपनों की मेरे .......।
फ़लक मेरा स्याह था,
सारा चरागाँ जो बुझ गया था..।

मेरे आँगन का चाँद /
दस्तक दे रहा था , किसी गैर दरवाजे पे/
परित्यक्त निशा को छोड़ गया
मेरे घर पे .........।

अंधेरे में कुछ बूँद आ टपके-
सोये से जागा मैं , फिर /
दिल को तसल्ली दे ली -
"रात ही रोई होगी बेचारी/
अपने चाँद के लिए .....,
साँसों के तार बन्धे हैं जिसके संग /
सजाता है आँखों में जो ख्वाबों के रंग /
उसी जान के लिए,
अपने चाँद के लिए.......।"

"रात ही रोई थी सचमुच !
मैं कैसे रो सकता हूँ /
इन्सान हूँ जो....,
बचपन से ही सिखाया गया है-
जो दूसरे की है , वो अपनी नहीं हो सकती /
हाँ , गर अपनी गैर की हो जाए ,तो
रोना नहीं , आँसू दिखाना नहीं /
इन्सान तो दूसरों के वास्ते ही जीता है ,
वरना हैवान ना कहलाता वो .......।"

"वो क्या जाने बड़ी-बड़ी बातें -
वो तो हँस जाती है खुशी में ,
गीली हो उठती है गम में /
कितनी भोली है, शायद सुखी भी,
अपनी खुशी खुद जी पाती है,
अपना रोना खुद रो पाती है ।"

सच में अब लगने लगा है -
रात ही रोई थी शायद ।

कब्र की मिट्टी

कब्र की मिट्टी
अंधेरी रातों मे / दफन होता मेरा सूरज/
चीखता है, चिल्लाता है,
आवाज जा उफक तक/ लौट आती है ।
कोई सुन पाता नहीं !
कोई जान पाता नहीं !

सुनेगा भी तो कौन -
मेरी धरती / ख्वाबों में /
अपने आसमान को,
उसी उफक पर/बस /
छू भर रही होती है ।

जानेगी भी तो क्या होगा -
फ़कत रस्मोंअदायगी को/
स्वप्निल बन्द आँखें लिए/
अपना सर ढँके/
डाल आएगी / उसकी कब्र पर /
ताजी भुरभुरी मिट्टी ।

उसे क्या पता है -
जागेगी नींद से जब वो/
आँखे खोलने ना पायेगी ।
पलकों पर जो रखी है/
वही/ उसकी अपनी/
ताजी भुरभुरी मिट्टी ।

विवशता

विवशता
समाज की नंगी तस्वीर जो देखी ,
मुठ्ठियाँ कसी , नथुने फूले ,
रगों में लावा सा दौड़ने लगा ।
रक्ताभ आँखों ने सच्चाई देखी ,
भीड़ के सामने मैं अकेला खड़ा था...।
मैं निहत्था ,वे जत्थेदार हथियारबन्द ,
चारो ओर से बढता कोलाहल-
डर लगने लगा और
यथार्थ ने ला धरती पे पटका .....।

माथे पर सिलवटें पड़ी ,
मुठ्ठियाँ खुल गई ,
हथेलियाँ जुड़ गई
और सर उन पर टिक गया...।
क्या करता -
विवशता दस्तक दे चुकी थी...।

लाचारी

लाचारी
मुठ्ठी में आस्माँ समेटने की सोंची थी ,
कुछ भी हो -
’फ़लक कल्पना से बड़ा हो ,
या बस शून्य का मायाजाल ’
होना तो वही था -
सिवा सिफर के कुछ नहीं था मेरे पास /
हाथ खाली के खाली ही रहे ...।

अब,
अनन्त को बाँध सकता नहीं/
शून्य को समेट पाता नहीं ,
तरस आता है /
अपनी लाचारी पे -

"कूबत नहीं है जब ,
तो क्यूँ सोंचता है -
किसी को अपना बनाने को....,
खालीपन में जा भरने को किसी के/
या विस्तार में जा विलीन हो जाने को..।"

अस्तित्व-बोध

अस्तित्व - बोध
टुकड़ो में बँटती जिन्दगी / अस्तित्वहीन होता अन्तस /
एक सूनापन ; एक खालीपन /
फिर भी जिये जा रहा हूँ ........,
नियति से बँधी /
एक परिणति की आस में /
साँस लिये जा रहा हूँ .......... ।

खोज जारी है,तलाश जारी है,
अपने पहचान की , एक इन्सान की .... ।

दिल में टीस सी उठती है /
रोता हूँ , कराह पाता नहीं /
बेदखल हूँ / अपने ही घर से /कोने मे दुबके बूढे की तरह/
उखड़ी साँसों को थामता हूँ -
आवाज ना कोइ आने पाए ,
कहीं कोई नींद ना खुल जाए .....।

खोज जारी है,तलाश जारी है,
अपने पहचान की , एक इन्सान की .... ।

कदम ठिठकते हैं / चेतना की गाँठ खुलती है /
टुकड़े पड़े हैं सामने /
तलाश रहा हूँ एक आस लिए -
शायद मेरे नाम का टुकड़ा कहीं दिख जाए,
पल-भर को ही सही ,
मुझे मेरा अस्तित्व-बोध करा तो जाए......।


खोज जारी है,तलाश जारी है,
अपने पहचान की , एक इन्सान की .... ।

वजूद

परछाईयों का शहर /
तन्हाई का सफर /हमसफर ढूँढा /
धूल सने हाथों में सिफर उभर आया ।
समझ गया -
साये कभी औरों के नहीं होते ।
देते हैं गवाही मेरे होने की,
जो घटती-बढती छाया में अपना कद नापता हूँ ,
सपनों की पगडंडियों पर चलता ,
किसी लौ में अपना वजूद ढूँढता हूँ ।

Monday, June 4, 2007

Confusion

खुद को मिटाने चला था /
कूदते-कूदते एक प्रतिबिम्ब दिखा ;
मेरा अपना सा लग रहा था ,
पूछ रहा था -
"मरना क्यूँ चाहते हो ? "
.....................................
.....................................
....................................
अनन्त बालुकाराशि / तपता सूरज /
वही प्यासा मृग / वही मरीचिका ;
छाया , किसी गैर की ,
पूछ रही थी -
" जीना क्यूँ चाहते हो ? "
.....................................
.....................................
.....................................
ना जीने का अर्थ जान पाया,
ना मरने का मर्म समझ में आया /
फलसफों में घुटता रहा,
ना जी पाया , ना मर पाया ।

Monday, May 28, 2007

अकेलापन

अकेलेपन से बढकर खुशी / और अकेलेपन से बढकर व्यथा /
कुछ भी नही है....................... ।

फ़र्क बस इतना है /
कि -
खुशी सबको दिख जाती है
और
गम लोग छुपा ले जाते है...........।