शब्द सचमुच मे बड़े ही value neutral होते हैं | कुछ 22-25 साल पहले जब ओशो ने अंगुली पकडकर कामू और कैलीगुला के साथ कंचे खेलने उन अंधेरी गलियों के मुहाने पर छोड़ा था, तो अस्तित्व, खालीपन, सम्पूर्णता की प्राप्ति की छटपटाहट, आत्म- तटस्थता जैसे अचूक अस्त्र मिल गए | यार दोस्तो मे उन लम्बी चलने वाली महफिलों मे TRP अचानक से बढ़ने लगी |एक बात और सुन लो लौंडो, दाढ़ी अपनी भी बढ़ी थी- पर बुद्धिजीवी कहलाने के लिए , कूल दिखने के लिए नही!
तो भाई लोगो , धड़ल्ले से इनका नाजयाज उपयोग करते रहे , बिना कुछ फील किए हुए | सब डायरी के ज़िल्द मे महफूज रहे , तो दोहरी ज़िन्दगी जीने मे भी कोई विशेष तकलीफ नही थी| Name-dropping मे महारत हासिल थी और फलसफे गढना जीवन का फलसफा लगता था ... - पूर्णता की यात्रा की शुरुआत कुछ इस कदर हुई | life चलती रही , हम भी साथ घिसटते रहे, शब्द सारे भूल गए... और अपने अस्तित्व को खुद से बाहर ढूँढ़ना ही process रह गया ; बिना मंजिल के सफर का आनन्द भी कुछ अजीब है ना !
अब उम्र के चौथे दशक मे वापस से वही शब्द वापस आ रहे हैं , वो भी बिन बुलाए | इस बार तो पूरी नंगई और ढ़ीढ़ता के साथ | अकेले भी नही आ रहे , जीवन के वाकयों के साथ निर्ममता के साथ डेढ़ इंची मुस्कान देते हुए हाय - हैलो कर रहे हैं | लगता है , वो बलात्कार का दंश ना भूल पाए हैं ; बदला तो पूरा लेंगे ही |
# ऊँघते - अनमने विचार
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