Tuesday, January 28, 2020

मेरे मन के राम

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में प्रभु श्रीराम के लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में चार विभिन्न आसनों की साप्रसंगिक परिकल्पना की। मर्यादा पुरुषोत्तम तो लीला धरने ही आए थे, सो उनकी लीलाओं के अनुरूप कविराज ने अलग-अलग आसन की व्यवस्था की। सर्वप्रथम महाराजा जनक ने अपनी सभा में उन्हें वरासन (दूल्हे के लिए सजाया हुआ आसन ) पर बिठाया; फिर पत्नी जानकी ने चित्रकूट में कुश का आसन बनाया। लंका में भाई लक्ष्मण ने मृगछाला बिछाई और अंत में अयोध्या का सिंहासन तो चौदह वर्षों से प्रभु की प्रतीक्षा कर ही रहा था।

जनकपुर के आसन ने राम को एक प्रखर धनुर्धर छात्र की भूमिका से ऊपर उठा सामाजिक दायित्व के ऊंचे पायदान पर पहुंचाया। पति की भूमिका निभाना और गृहस्थ जीवन का सही पालन करना अपने आप में एक बड़ा ही कठिन दायित्व है। विवाह ही वह बिंदु है, जो पुरुष के जीवन में अपने माता-पिता के अलावा एक और माता-पिता का प्रवेश करवाता है। और सनातन धर्म हर राम से अपेक्षा करती है कि वह दशरथ और जनक दोनों का उचित सम्मान करें और उनके दिशा निर्देशन में आगे गृहस्थ जीवन का सही निर्वाह करे।

संकट के क्षणों में धर्म और आध्यात्म का ज्ञान एक व्यक्ति को टूटने से बचाता है और इन परिस्थितियों में पुरुष का अवलंबन होती है उसकी पत्नी। बनवास का दंश झेल रहे राम के लिए ऋषि मुनियों द्वारा  अध्यात्मिक विमर्श की आवश्यकता थी, ताकि उनकी बुद्धि कुशाग्र के समान और मन धरती के समान शांत रहे। चित्रकूट में उनकी सहचरी सीता ने इसी प्रयोजन से कुश के आसन की व्यवस्था की।

अगर युद्ध में विजय प्राप्त करनी है, तो युद्ध का प्रयोजन हर वक्त आंखों के सामने दिखती रहनी चाहिए; वह आग सीने में धधकती रहनी चाहिए। और इन कठिन परिस्थितियों में आपका सर्वश्रेष्ठ सहायक होता है-आपका भाई, आपका अपना परिवार। लंका में रणनीति बनाते समय लक्ष्मण ने सजाया- मृग-छाल का आसन, जो राम को उस स्वर्ण मृग की याद दिलाते रहे, जिसके कारण सीता का वियोग उन्हें झेलना पड़ा।

एक सफल गृहस्थ, ज्ञान-विज्ञान से सुशोभित और युद्ध में विजयी ही सुयोग्य व्यक्ति है अयोध्या का सिंहासन के लिए। उसकी नैतिकता और प्रबल आत्मविश्वास ही अपनी प्रजा जनों के लिए ऐसी निर्भयता की उद्घोषणा कर पाती है - 
"सनहु सकल पुरजन मम बानी। 
कहउँ न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। 
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। 
मम अनुसासन मानै जोई।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
 तौं मोहि बरजहु भय बिसराई।।"

रामचरितमानस में इन चारों वर्णित आसनों से बढ़कर है "संतुष्टि का आसन"। जब आप अपने जीवन युद्ध में प्रबल विजयी रहे हों, अपने सारे दायित्वों का भली-भांति पालन कर लिया हो, पाने के लिए आपके अंदर कोई आकांक्षा ना बची हो, आपकी प्रबल मेहनत और कर्मों का फल दुनिया देख रही हो, तब अधिकारी होते हैं आप ऐसे आसन के लिए। उस पर बैठकर आप इस कौतूहल से भरे जगत को द्रष्टा बनकर देखते हैं और निस्पृह भाव से अपने अध्यात्म और जीवन ज्ञान को बिखेरते रहते हैं। आप सत्य को जी रहे होते हैं, आपका चित्त जागृत होता है और आनंद क्षण क्षण में विद्यमान रहता है - आप "सच्चिदानंद" होते हैं।


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