उस दिन बंद कमरे में जिला स्कूल के प्रिंसिपल साहब और महना गाँव के मिडिल स्कूल के मास्टर के मध्य करीब आधे घंटे तक क्या गुफ़्तगू हुई, वह बाहर किसी को पता नहीं चला। बालक सच्चिदानंद ऑफिस से थोड़ी दूर गलियारे में खड़े होकर इस बात का इंतजार कर रहे थे कि कब दोनों एक साथ आएंगे और उनकी पुरकस्स दनादन पिटाई शुरू हो जाएगी। पिता के लातों के करारे प्रहारों का स्मरण वहां से भी भाग जाने को प्रवृत कर रहा था। लेकिन सरकारी स्कूल का चपरासी पूरा घुटा हुआ था। बिना पैसे के होनेवाले मनोरंजन की आशा में उन पर भरपूर नजर जमाए हुए था।
लेकिन दो दिनों के इस नाटकीय घटनाक्रम की परिणति सुखांत में ही हुई। दोनों शिक्षाविद हंसते हुए निकले और पिता ने इशारे से बालक को पास बुलाया। प्रिंसिपल साहब के चरण स्पर्श करने की कवायद देकर बोला कि आज से यही तुम्हारे पिता हैं और आगे की पढ़ाई तुम्हारी इसी स्कूल में होगी। और ऐसे रोमांचक तरीके से हाई स्कूल, बीहट से जिला स्कूल, बेगूसराय का सफर तय हुआ।
बी पी हाई स्कूल में बिताए गए दो सालों ने बहुत कुछ सिखाया। "सरस्वती भी सरस्वती का पोषण कर सकती है" - यह ज्ञान आगे आने वाले सालों के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ। शायद ट्यूशन पढ़ा कर अपनी पढ़ाई करने वाले हर इंसान के जीवन में कुछ ऐसा ही गुजरता होगा! प्रिंसिपल साहब का बेटा भी कक्षा में अच्छा करने लगा और छात्र सच्चिदानंद सिंह दसवीं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। इसी तरह गाड़ी आगे बढ़ने लगी, जिसकी परिणति M.A.( triple) , PhD के रूप में हुई।
अपने संघर्ष के दिनों के बारे में बाबूजी बहुत कुछ नहीं बोलते। हाँ, कमजोर क्षणों में थोड़ा दरिया बह निकलता है। मुंगेर में किसी वकील साहब के यहां रहकर जब अपनी पढ़ाई करते थे, तब का एक किस्सा है। अपनी सबसे प्यारी हमउम्र सगी बहन के बीमारी से गुजर जाने की खबर मौत के बीस-पच्चीस दिन बाद जिस दिन मिली, उनका मन बड़ा ही उद्विग्न था। वकील साहब के बेटे को पढ़ाने से मना कर दिया कि आज तबीयत खराब है। कुछ समय के बाद बच्चे की मां उनके कमरे के दरवाजे पर थी - "तबीयत खराब है, तो खाना भी तो आज नहीं खाइएगा।" अगले ही सबेरे उन्होंने वहां से अपना सामान बाँध लिया था।
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