Sunday, January 26, 2020

टिक टिक घड़ी -1

सदियों से कहते सुनते आए हैं कि मनुष्य नैसर्गिक रूप से एक सामाजिक प्राणी है। लेकिन गौर से अगर आप देखो तो इस विशेषण को पाने के लिए मनुष्य को अच्छी-खासी training और rythmic cycle से गुजरने की आवश्यकता होती है। सामाजिक व्यवस्था में resonate करने के लिए आपके body का time-schedule और समाज की conventional और established time-frame match करनी चाहिए। शुद्ध सरल भाषा में बोलो तो आपका biological clock दीवाल पर टंगी घड़ी की टिक-टिक से मैच करना चाहिए। मतलब जितने समय में पृथ्वी अपने अक्ष पर एक बार पूरी घूम जाती है,बस उतने ही समय में आप अपने जीवन की एक rythmic cycle complete कर लो। तब जाकर आप सामाजिक व्यवस्था से sychronise कर पाओगे।
नवजात शिशु अपने जीवन पहले दो-तीन महीनों में करीब 18-19 घंटे सोता है। उसे इस समाज की घड़ी से कोई मतलब नहीं होता। अपने हिसाब से सोते रहता है, भूख लगने पर रोकर indication दे देता है। धीरे-धीरे हम सब मिलकर उसे train करते हैं कि कब सोना है, कब जगना है, कब खेलना है, कब स्कूल जाना है, कब खाना है... फलाना फलाना।
मुद्दे की बात उसे तभी सोना चाहिए, जब बाकी सभी के सोने का वक्त है! कहानियां और मान्यताएं भी बना ली हमने। रात में ना सोने वाले को पढ़े-लिखे लोग निशाचर कहते हैं और हम जैसे मुंहफट लोग राक्षस या असुर की संज्ञा देते हैं। कभी सोचते ही नहीं कि हो सकता है उसका biological clock अलग हो। उसकी मजबूरी तक समझने की कोशिश नहीं करते कि हो सकता है उसने अपने body को इस तरह से condition किया हो। ( International Call centre मैं काम करने वाले को अधिकांश जन असामाजिक ही मानते हैं।)
दशकों की ऐसी तमाम training के बावजूद ढलती उम्र एक ऐसे पड़ाव पर ले आती है, जब शरीर पर आपका नियंत्रण नहीं रह जाता। शरीर अपने हिसाब से respond करने लगता है। आप कब जागेंगे और कब सोएंगे- दीवार की टिक-टिक घड़ी से वास्ता नहीं रह जाता। शरीर की activity- schedule और समाज के established time norms पूरी तरह से mis-match होने लगते हैं। बाकी सब जगे रहते हैं, तो आप सोते हैं। बाकी सब के सोने के टाइम में आप जगे रहते हैं।
भैया बता रहे थे कि बाबूजी का बायोलॉजिकल क्लॉक पिछले तीन चार महीनों से 48 घंटे का हो गया है- मतलब 24 घंटे सोना ,24 घंटे जगना। सो जाहिर सी बात है कि प्रचलित सामाजिक व्यवस्था में उनकी उपस्थिति नगण्य हो गई है। सो इसका शानदार सा तोड़ बाबूजी ने निकाल लिया है। उन्होंने अपना एक अलग ही समाज निर्मित कर लिया है- उनसे ही वह बतियाते हैं, वही उनके मित्र हैं,दोस्त हैं ,उन्हीं से लड़ते झगड़ते रहते हैं।

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