Friday, January 11, 2008

कुछ त्रिवेणियाँ

(१) चेहरा देखने की है अब फुर्सत कहाँ ,
पता याद रखने की भी जरूरत नही ।

सुना है अपने शहर का नाम भी बदल रहा है।


(२) अभी थम जाओ,साँसे लेना फिर ढ़ेर सारी,
हर नदी पर अब तो बाँध बन ही गए हैं ।

एक को छोड़ सब कह रहे थे, future secure कर लो ।


(३) तन्हा लगता है अकेले चलने पर
साथ होगी तो बोझ हो जाएगा ।

कहीं तुम याद तो नही ?


(४) अखबार उठाया, पापा ने डाँटा, कॉपी फाड़ी, मम्मी दौड़ी आई
कागज मिल नहीं पाए, ना पानी के जहाज बने, न उपर वाले ।

अब भी सफर मे कागज ही चूका करते हैं !


(५) सपने डाले,छौंक manners का,उसे भी डाल दिया,
आग नीचे जल रही थी, वो बेचारा पिघल रहा था ।

ऐसे ही तो घास-फूस का पेट्रोल बना होगा ।


(६) यूँ बच्चो सा क्यूँ करते हो? अब बड़े हो गये हो तुम!,
खेलने चलो , मैने असली गोली-बन्दूक निकाल ली ।

ज्यादा खेलने से बच्चे थक के सो जाया करते हैं!


(७) सूने रस्ते पथरीली आँखों मे उतर आए थे,
तिरंगा ओढ़े वो आया, पत्थर बह निकले ।

मेरे गाँव मे भी सूखे के बाद बाढ़ आई थी।

3 comments:

डाॅ रामजी गिरि said...

"सूने रस्ते पथरीली आँखों मे उतर आए थे,
तिरंगा ओढ़े वो आया, पत्थर बह निकले ।

मेरे गाँव मे भी सूखे के बाद बाढ़ आई थी।"



बहुत ही उम्दा और गूढ़ बात की है आपने ,श्रवण जी.

रश्मि प्रभा... said...

सहज वर्णन ....... आँखों के आगे घूम जाता है.

Anonymous said...

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