Tuesday, January 28, 2020

हैप्पी मदर्स डे

Hypocrisy कभी भायी नहीं, सो हमने कभी अपनाई नहीं....

Happy happy वाले Mother's Day पे हमने भी अपनी माय (माँ )को सवेरे सवेरे लम्बा फोन मार डाला| खुश हो गई वो भी; बेचारी को तो occasion भी नहीं पता था| सच पूछो तो, ऐसे 'डे' हम जैसे नालायको के लिए एक अपॉर्चुनिटी बनकर आती है, जो पेट पालने के नाम पर अपने घरों से दूर रहते हैं| पर अंदर झांक कर देखो ,सारी सच्चाई सामने आ जाएगी| छुट्टियों के pool में मां-बाप के दिनों के कोटे का ऑप्टिमाइजेशन जो हम सब करते हैं ना, उसी भागीरथी प्रयास के लिए दिल कम, दिमाग से ज्यादा -
"हैप्पी मदर्स डे"

बचपन में कितना सोचते थे कि माँ , तेरे लिए यह करूँगा, माँ तेरे लिए वो करूँगा| उम्र बढ़ती गई, ख्वाहिशें छोटी होती गई| मिलने की तमन्नाओं को पहले तो सस्ते फोन कॉल ने  रौंदा और वीडियो कॉल की सुविधा ने इसे बुरी तरह से कुचल डाला| बच्चों के लिए तो दादी मोबाइल के छोटे स्क्रीन के अंदर समाई हुई है| कैसे बताऊं उन्हें, कि सारा कुछ बेड पर पड़ी इस बूढ़ी काया के कारण है|कैसे बताऊं उन्हें कि तुम्हारी इस illiterate दादी ने तुम्हारे बाप-चाचाओं को परिवार चलाने के काबिल बनाया; इस लायक बनाया कि तुम्हारे सारे अनाप-शनाप डिमांड पूरे होते जाते हैं|

और यह सिर्फ मेरी माँ  की ही कहानी नहीं , दुनिया भर की सारी माँओ   के लिए एप्लीकेबल है| IIM वालो को अपने curriculum मे 'Scarce resource mangement and its optimum utilisation for favorable outcomes to qualitatively change the life' शामिल करना चाहिए और प्रबंधन की मोटी मोटी पुस्तकों की जगह पर मेरे माँ के संघर्ष की कहानी सुनानी चाहिए| नौकरी  और किताबें लिखने से बाबूजी को कभी फुर्सत ही नहीं मिली| हम पांच भाई बहनों की पढ़ाई-लिखाई, सारे लोक व्यवहार और हमारी उम्र से बड़ी भूख- इन सब का जिम्मा माँ ने ही ले रखा था| And she is successfull indeed! - यह मैं नहीं, बाकी सारे दुनिया वाले कहते हैं|

समय बदलता गया और हम सब बड़े हो गए| और इस बीच में किसी ने ध्यान ही नहीं दिया कि, swiftly  एक कुशल प्रशासक एक शानदार डिप्लोमेट में तब्दील हो गया है| बिना किसी कंट्रोवर्सी में फंसे, पाँच अलग-अलग रहने वाले परिवारों को एकजुटता में कैसे बांधा जाता है और अपनी बात मनवाई जाती है- लोगों आओ, मेरी मां से तो सीखो! सबको लगता है कि वह स्वतंत्र है, लेकिन डोरी तो किसी और के हाथ में ही है| और सच बताऊँ, हम सबको यूँ  ही डोरी से बंधे रहना बहुत अच्छा लगता है, माँ |

# Happy Mother's Day

राम तत्व की महिमा

राम तत्व की महिमा

ऐसी बात नहीं है कि अवधपुरी में राजा दशरथ के घर श्रीराम अवतरित हुए तब से ही लोग श्रीराम का भजन करते हैं। नहीं, नहीं, राजा दिलीप, राजा रघु एवं राजा दशरथ के पिता राजा अज भी श्रीराम का ही भजन करते थे क्योंकि श्रीराम केवल दशरथ के पुत्र ही नहीं हैं, बल्कि रोम-रोम में जो चेतना व्याप्त रही है, रोम-रोम में जो रम रहा है उसका ही नाम है 'राम'। राम जी के अवतरण से हजारों-लाखों वर्ष पहले राम नाम की महिमा वेदों में पायी जाती है।
रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।
'जिसमें योगी लोगों का मन रमण करता है उसी को कहते हैं 'राम'।'

एक राम घट-घट में बोले,
दूजो राम दशरथ घर डोले।
तीसर राम का सकल पसारा,
ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

शिष्य ने कहाः "गुरुजी ! आपके कथनानुसार तो चार राम हुए। ऐसा कैसे ?"
गुरूः "थोड़ी साधना कर, जप-ध्यानादि कर, फिर समझ में आ जायेगा।" साधना करके शिष्य की बुद्धि सूक्ष्म हुई, तब गुरु ने कहाः

जीव राम घट-घट में बोले।
ईश राम दशरथ घर डोले।
बिंदु राम का सकल पसारा।
ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

शिष्य बोलाः "गुरुदेव ! जीव, ईश, बिंदु व ब्रह्म इस प्रकार भी तो राम चार ही हुए न ?"
गुरु ने देखा कि साधना आदि करके इसकी मति थोड़ी सूक्ष्म तो हुई है। किंतु अभी तक चार राम दिख रहे हैं। गुरु ने करूणा करके समझाया कि "वत्स ! देख, घड़े में आया हुआ आकाश, मठ में आया हुआ आकाश, मेघ में आया हुआ आकाश और उससे अलग व्यापक आकाश, ये चार दिखते हैं। अगर तीनों उपाधियों – घट, मठ, और मेघ को हटा दो तो चारों में आकाश तो एक-का-एक ही है। इसी प्रकारः

वही राम घट-घट में बोले।
वही राम दशरथ घर डोले।
उसी राम का सकल पसारा।
वही राम है सबसे न्यारा।।

रोम-रोम में रमने वाला चैतन्यतत्त्व वही का वही है और उसी का नाम है चैतन्य राम"
वे ही श्रीराम जिस दिन दशरथ-कौशल्या के घर साकार रूप में अवतरित हुए, उस दिन को भारतवासी श्रीरामनवमी के पावन पर्व के रूप में मनाते हैं।
कैसे हैं वे श्रीराम ? भगवान श्रीराम नित्य कैवल्य ज्ञान में विचरण करते थे। वे आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र एवं आदर्श शत्रु थे। आदर्श शत्रु ! हाँ, आदर्श शत्रु थे, तभी तो शत्रु भी उनकी प्रशंसा किये बिना न रह सके। कथा आती है कि लक्ष्मण जी के द्वारा मारे गये मेघनाद की दाहिनी भुजा सती सुलोचना के समीप जा गिरी। सुलोचना ने कहाः 'अगर यह मेरे पति की भुजा है तो हस्ताक्षर करके इस बात को प्रमाणित कर दे।' कटी भुजा ने हस्ताक्षर करके सच्चाई स्पष्ट कर दी। सुलोचना ने निश्चय किया कि 'मुझे अब सती हो जाना चाहिए।' किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती ! जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दियाः "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बालब्रह्मचारी श्रीहनुमान, परम जितेन्द्रिय श्री लक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।"
जब रावण सुलोचना से ये बातें कह रहा था, उस समय कुछ मंत्री भी उसके पास बैठे थे। उन लोगों ने कहाः "जिनकी पत्नी को आपने बंदिनी बनाकर अशोक वाटिका में रख छोड़ा है, उनके पास आपकी बहू का जाना कहाँ तक उचित है ? यदि यह गयी तो क्या सुरक्षित वापस लौट सकेगी ?"
यह सुनकर रावण बोलाः "मंत्रियो ! लगता है तुम्हारी बुद्धि विनष्ट हो गयी है। अरे ! यह तो रावण का काम है जो दूसरे की स्त्री को अपने घर में बंदिनी बनाकर रख सकता है, राम का नहीं।"

धन्य है श्रीराम का दिव्य चरित्र, जिसका विश्वास शत्रु भी करता है और प्रशंसा करते थकता नहीं ! प्रभु श्रीराम का पावन चरित्र दिव्य होते हुए भी इतना सहज सरल है कि मनुष्य चाहे तो अपने जीवन में भी उसका अनुसरण कर सकता है!

प्रभु राम भक्त
#copied

जिंदगी

" पता है ? मैंने खुद से मुहब्बत करना शुरू कर दिया है |"

नए नवेले आशिक की मानिंद मैने चहकते हुए उसे सुनाया | उसने संजीदा तरीके से बड़े गौर से मेरे चेहरे का भरपूर जायजा लिया और फिर चुपचाप अपनी चाय की चुस्कियों मे वापस रम गया | वो हमेशा से ऐसा ही करता था मेरे साथ | ऊपर से मेरे मजे लेने का कभी कोई मौका भी नहीं छोड़ता था वो |

मेरी खीज़ बढ़ती जा रही थी और वो मेरे नए ख्याल पे कुछ ध्यान ही नहीं दे रहा था | साला, मेरे चेहरे की चमक और दिल की खनक कुछ और बयान कर  रहे थे और उसे कोई मतलब ही नहीं था | मैंने एक कोशिश और मारी |

" पता है ? मैं अब बहुत खुश रहता हूँ | मैने गाने भी गाने शुरू कर  दिया ,वो भी खुशी वाले | रोज karaoke पे रियाज भी करता हूँ  |"

उसके भी मेरी तरह अधपके बाल हैं ; बस उड़े नहीं हैं | वो हमारे  जवानी के दिनों मे खूब गाया करता था | आवाज बड़ी शानदार थी उसकी | मुझे लगा कि अब तो शाबासी मिल के ही  रहेगी | अकेला दोस्त है मेरा , मेरे हर सुख -दुख का साथी | उसकी राय बहुत मायने रखती थी मेरे लिए | चाय की आखिरी घूंट पीकर उसने कप परे सरका दी | 

अब तो अति हो गई | मेरा पारा चढ रहा था | लेकिन साले ने ज़िन्दगी की मेरी हर कहानी झेली है , सो हर नखरे बनते हैं उसके | और किसको सुनाऊँगा ? एक वो ही तो इत्ते करीब से जानता है मुझे | मेरे  नमकीन और मीठा एक साथ खाने की तलब और आदत बस वही तो समझता है | मैंने फिर से हँसता सा चेहरा बनाया |

" पता  है ? मैने खुद पर समय भी देना शुरू कर दिया है | Morning Walk भी चालू कर दिया है , Gym भी जाता हूँ  रोज | "

मैं सूने आकाश से बाते कर रहा था | सामने से कोई प्रतिक्रिया ही नहीं |कोई मतलब ही नहीं रह गया है  इसे मुझसे | साला ,बड़ा आदमी बन  गया है | इस बार मैं जोर से चीखा -

" पता है भो ... वा ..? मैं अपनी खुशी बाँट रहा हूँ और तू  चू .........
किए जा रहा है | कुत्ते , मैं अब ज़िन्दगी जी रहा हूँ ....
पता  है  मा ......? मैं कल बारिश मे नहाया भी था | फिर भुट्टे भी खाने  गया था ......
पता है चू ..... ? मुझे उस मीठे - खारे वाले दुकान मे फिर से बार-बार जाने का मन करता है .....
पता है ? मुझे एक बार फिर से इश्क हो गया है ...... "

इस बार वो मुस्कराया ! पिछले पच्चीस सालों से मैं इस कमीनगी वाली मुस्कान देखता आया हूँ | आगे का वाकया पता था मुझे ; अब वो मेरी अच्छे से लेगा | मैने बिल्कुल ही मासूम सा चेहरा बना लिया और पूर्ण समर्पण की मुद्रा मे उसकी ओर देखा | मेरे इस पैतरे पर भी उसके तेवर  नहीं बदले | कुछ क्षण यूँ ही बीते | अचानक उधर से गूगली आई  -

" पता है ? तू ऐसे बात करता है ,तो जीता-जागता सा लगता है | अबे  चू ...., तू तो बार-बार मरता रहता था और अपनी लाश को चिता पे लिटाकर खुद जलाते रहता था .....

पता है ? तू अब फिर से ज़िन्दा हो गया  है ......."

# ज़िन्दगी

शब्दों की कलाकारी

शब्द सचमुच मे बड़े ही value neutral होते हैं | कुछ 22-25 साल पहले जब ओशो ने अंगुली पकडकर कामू और कैलीगुला के साथ कंचे खेलने उन अंधेरी गलियों के मुहाने पर छोड़ा था, तो अस्तित्व, खालीपन, सम्पूर्णता की प्राप्ति की छटपटाहट, आत्म- तटस्थता जैसे अचूक  अस्त्र मिल गए | यार दोस्तो मे उन लम्बी चलने वाली महफिलों मे  TRP अचानक से बढ़ने लगी |एक बात और सुन लो लौंडो, दाढ़ी अपनी भी बढ़ी थी- पर बुद्धिजीवी कहलाने के लिए , कूल दिखने के लिए नही!

तो भाई लोगो , धड़ल्ले से इनका नाजयाज उपयोग करते रहे , बिना कुछ फील किए हुए | सब डायरी के ज़िल्द मे महफूज रहे , तो दोहरी ज़िन्दगी जीने मे भी कोई विशेष तकलीफ नही थी| Name-dropping मे महारत हासिल थी और फलसफे गढना जीवन का फलसफा लगता था ... - पूर्णता की यात्रा की शुरुआत कुछ इस कदर हुई | life चलती रही , हम भी साथ  घिसटते रहे, शब्द सारे भूल गए... और अपने अस्तित्व को खुद से बाहर ढूँढ़ना ही process रह गया ; बिना मंजिल के सफर का आनन्द भी कुछ अजीब है ना !

अब उम्र के चौथे दशक मे वापस से वही शब्द वापस आ रहे हैं , वो भी बिन बुलाए | इस बार तो पूरी नंगई और ढ़ीढ़ता के साथ | अकेले भी नही आ रहे , जीवन के वाकयों के साथ निर्ममता के साथ डेढ़ इंची मुस्कान देते हुए हाय - हैलो कर रहे हैं | लगता है , वो बलात्कार का दंश ना भूल पाए हैं ; बदला तो पूरा लेंगे  ही | 

# ऊँघते  - अनमने विचार

मैं और वो

मैं भागता फिर रहा हूँ , उससे बचता फिर रहा हूँ | वो मुझे पर्दाफाश  करना चाहता है और मैं उससे छिपता फिर रहा हूँ | उससे नजरें मिलाने की ना तो चाहत बची है और शायद ना हिम्मत | हर लम्हात में बस यही ख्वाहिश रची-बसी है कि वो दुनियाँ के किसी दूसरे कोने मे अपनी ज़िन्दगी जी रहा हो और मुझे अपनी वाली से मशक्कत करने दे | चाहता हूँ कि उसकी नजर तक ना पड़े मुझपे ; अब वो बिल्कुल ही बर्दाश्त नहीं हो पा रहा| उसकी छाया,उसके ख्याल ,उसकी हर क्षण रूबरू होने की ख्वाहिश मुझे डरा रहे हैं |

          मैंने उसे बारम्बार बोल रखा है कि अब बड़ा हो गया हूँ ; अपनी लड़ाई खुद लड़ सकता हूँ | इतना तक बोला कि दुनियावालों से लड़ने के लिए मुझे दुनियावी हथियारो की जरूरत पड़ेगी;  तेरे फलसफे , तेरी रूहानी बातें, तेरे किताबी विचार काम ना आएंगे | उसकी दुनियाँ शायद बहुत अच्छी होगी ,तब तो वो इतना soft है, normal है , unpolluted है और उसका काम चलता जा रहा है | And he is successful indeed! 

       और मैं अपनी दुनियाँ का लुटा-पिटा इंसान, जिसने खुद को खुश रखने के लिए अब सफलता के सारे पैमानों को नकारना शुरू कर दिया है | उस से रूबरू होने पर अब inferiority complex अन्दर आने लगती है मेरे ; शायद उस से अब jealous फील करने लगा हूँ |

        एक जगह का झगड़ा हो ,तब तो बताऊँ | सब जानते हैं कि  public मे अपने emotions, feeling, reactions express करने मे guarded होना चाहिए और मैं इसमे अब trained भी हो गया हूँ |और ठीक उसी जगह वो कानो मे सरगोशियां कर रहा होता है कि live your emotions, express yourself fully, react your self - अब ये भी कोई बात हुई भला | ऑफिस  मे हमें professionaly behave करना चाहिए ; Its matter of carrer and growth और सबसे  important तो ये है कि दाल-रोटी का भी जुगाड़ वहीं से होता है | और वो ज्ञान पेलता है कि तुम भी इंसान , वहाँ काम करने वाले भी इंसान , फिर simply इंसान रहो ना ; कुछ और क्यों बन जाते हो | अब इन्हे कौन समझाये दुनियावी तिलस्म के जंगल मे भूखे शेर का तो एक बार विश्वास कर लो, पर ऑफिस मे ऐसी गलती ना करना, जहाँ zero-sum-game सारे rule define करते हैं - एक का नुक़सान ही दूसरे का फायदा है !

          लिस्ट बड़ी लम्बी है , फुरसत मे ही पूरी हो पाएगी | अजीब सा संघर्ष है ,ऊहापोह बड़ी अजीब है | मैं case-specific deal करना चाहता हूँ , शायद compelled हूँ इसके लिए | और वो generalised treatment की बात करता है ; साले ने ज्यादा Marx पढ़ रखा है ,लगता है ! ऊपर से साला मेरे ही जैसे कपड़े पहनता है ,मेरी ही कद -काठी का है, दिखता भी मुझ सा ही है | हर रोज ऑफिस के लिए तैयार होते वक़्त उसे कमरे मे बंद कर आता हूँ , पर कौन सा जादू जानता है वो ,कि हर जगह पहुँच जाता है , जहाँ  कहीं भी मैं रहता हूँ | यार , परेशान हो गया हूँ तुझसे और तेरे इस कृष्ण बनने की कैफियत से | मुझे तो तू अर्जुन ही रहने दे , और वो भी गीता -ज्ञान से पहले वाला |

# ऊंघते-अनमने विचार

राखी की‌ टीस

त्योहारों का आना आजकल एक टीस सा देता फिरता है ; एक लकीर  सी खींचती चली जाती है | पर व्यक्त करना भी बस एक cliche का कोरस गान है ! 

सबकी वही कहानी है , चालीसवें के पूर्वार्ध से गुजर रहे सबकी कहानी का कमोवेश प्लाट भी समान है | दिल के गुबार तो सुनने पड़ेंगे ही; social media पर जीने के अपने terms & conditions हैं | 

हाँ तो भक्तजनों , पहले हजार कमी थी , पर त्योहार का इंतजार ज़रूर रहता था | स्कूल की छुट्टी का लोचा नही था ; उसके लिए तो बिहार बोर्ड के सरकारी स्कुलों के छात्र इच्छाधारी नाग थे | नये कपड़े भी नही मिलते थे, पकवानों की भी बहार नही रहती थी | बाबूजी के दिन भर घर पे रहने के अपने fallout थे | ना बहनों को इत्ते पैसे या Gift मिल पाते थे , ना भाईयों को अपने फुली जेब का कोई गुमान हुआ करता था | माँ शतरंज के इस खेल के दोनो ओर के मोहरे चलने मे माहिर हुआ करती  थी| वही पैसे देने को देती थी और वही उन्ही पैसो को अपने पास जमा भी करवा लेती थी | पर भाई लोगों कुछ तो होगा कि , उस पूरी-आलू की रसदार सब्जी-खीर वाले recipe का सच मे इंतजार रहता था !

आज भी बहनों के लिए दिल मे वही प्रेम का ज्वार है , बस ज्वालामुखी के मुहाने पे समय का भारी ढक्कन रखा है | दोनो बेटियों का अपने भाईयों को  राखी बांधने का उत्साह देख कर दोनो दीदी याद आ गई | फोन पे बात की, video call भी हो गया | कुछ तो अब भी missing है, जो वैसा मजा नही आ पाया | 

हमलोगों के बचपन के उन दिनों मे शायद बाबूजी भी वैसा ही सोचते होंगे, जैसा कि आज हम महसूस कर रहे हैं |उनसे पुछने की हिम्मत तो  नही जुटा पाऊँगा, सो मेरी theory को सच मान लेना|

क्या पता , शायद यही सच हो !
पीढ़ी  दर पीढ़ी यही हो रहा हो!

विद्वान या विद्यावान

*।।विद्वान या विद्यावान ।।*

विद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ।।

एक होता है विद्वान और एक विद्यावान । दोनों में आपस में बहुत अन्तर है ।इसे हम ऐसे समझ सकते हैं ।रावण विद्वान है और हनुमानजी हैं विद्यावान।

        रावण के दस सिर हैं और चार वेद तथा छः शास्त्र दोनों मिलाकर दस हैं ।

जिसके सिर में ये दसों भरे हों, वही दस शीस है ।

रावण वास्तव में विद्वान है, लेकिन विडम्बना क्या है? 

सीता जी का हरण करके ले आया ।कई  बार विद्वान लोग अपनी विद्वता के कारण दूसरों को शान्ति से नहीं रहने देते ।

उनका अभिमान दूसरों की सीता रूपी शान्ति का हरण कर लेता है ।

    हनुमानजी उन्हीं खोई हुई सीता रूपी शान्ति को वापस भगवान से मिला देते हैं ।

यही विद्वान और विद्यावान में अन्तर है ।

      हनुमानजी गये, रावण को समझाने। यही *विद्वान* और *विद्यावान* का मिलन है ।

हनुमानजी ने कहा --

विनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।

 हनुमानजी ने हाथ जोड़कर कहा कि मैं विनती करता हूँ । तो क्या हनुमानजी में बल नहीं है?
  ऐसा नहीं है ।

    विनती दोनों करते हैं, जो भय से भरा हो या भाव से भरा हो। रावण ने कहा कि तुम क्या, यहाँ देखो कितने लोग हाथ जोड़कर खड़े हैं ।

कर जोरे सुर दिसिप विनीता।
भृकुटि विलोकत सकल सभीता।।

    देवता और दिग्पाल भय से हाथ जोड़े खड़े हैं और भृकुटि की ओर देख रहे हैं । परंतु हनुमानजी भय से हाथ जोड़कर नहीं खड़े हैं ।

रावण ने कहा भी --

कीधौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही।।

   तुमने मेरे बारे में सुना नहीं है? बहुत निडर दिखता है । 

हनुमानजी बोले --यह जरूरी है कि तुम्हारे सामने जो आये, वह डरता हुआ आये? 

रावण बोला - देख लो, यहाँ जितने देवता और अन्य खड़े हैं, वे सब डर कर खड़े हैं ।

  हनुमानजी बोले --उनके डर का कारण है, वे तुम्हारी भृकुटि की ओर देख रहे हैं ।

भृकुटी विलोकत सकल सभीता।

  परंतु मैं भगवान राम की भृकुटि की ओर देखता हूँ । उनकी भृकुटि कैसी है? बोले ---

भृकुटि विलास सृष्टि लय होई।
सपनेहु संकट परै कि सोई।।

     जिनकी भृकुटि टेढ़ी हो जाय तो प्रलय हो जाय और उनकी और देखने बाले पर स्वप्न में भी संकट नहीं आता।

 मैं उन राम जी की भृकुटि की ओर देखता हूँ ।

रावण बोला - यह विचित्र बात है ।जब राम जी की भृकुटि की और देखते हो तो हाथ हमारे क्यों जोड़ रहे हो? 

विनती करउँ जोरि कर रावन।

 हनुमानजी बोले -यह तुम्हारा भ्रम है । हाथ तो मैं उन्हीं को जोड़ रहा हूँ ।

रावण बोला --वे यहाँ कहाँ हैं।

 हनुमानजी ने कहा कि यही समझाने आया हूँ । 

राम जी ने कहा था --

सो अनन्य जाकें असि
     मति न टरइ हनुमन्त।
मैं सेवक सचराचर 
      रूप स्वामि भगवन्त।।

   भगवान ने कहा कि सब में मुझ को देखना । इसीलिए मैं तुम्हें नहीं, तुममे भी भगवान को ही देख रहा हूँ । इसलिए हनुमानजी कहते हैं ।

 खायउँ फल प्रभु लागी भूखा।
                और, 
सबके देह परम प्रिय स्वामी।

   हनुमानजी रावण को प्रभु और स्वामी कहते हैं और रावण --

मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही।।

    रावण खल और अधम कहकर हनुमानजी को सम्बोधित करता है ।

    यही *विद्यावान* का लक्षण है। अपने को गाली देने वाले में भी जिसे भगवान दिखाई दें । वही विद्यावान है । 

विद्यावान का एक लक्षण कहा है-

विद्या ददाति विनयं
विनयाति याति पात्रताम ।

पढ़ लिखकर जो विनम्र हो जाय, वह *विद्यावान* और जो पढ़ लिख कर अकड़ जाय, वह *विद्वान।*

तुलसीदास जी कहते हैं -

बरसहिं जलद भूमि नियराये।
जथा नवहिं वुध विद्या पाये।।

   बादल जल से भरने पर नीचे आ जाते हैं, जैसे विचारवान व्यक्ति विद्या पाकर विनम्र हो जाते हैं ।

तो हनुमानजी हैं विनम्र और रावण है विद्वान ।

    *विद्वान कौन?*

कहा कि जिसकी दिमागी क्षमता तो बढ़ गयी परंतु दिल खराब हो, हृदय में अभिमान हो, 

और *विद्यावान कौन?*

कहा कि जिसके हृदय में भगवान हो, और जो दूसरों के हृदय में भी भगवान को बिठाने की बात करे।

हनुमानजी ने कहा --रावण ! और तो ठीक है, पर तुम्हारा दिल ठीक नहीं है । 

कैसे ठीक होगा? कहा कि --

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राज तुम करहू।।

    अपने हृदय में राम जी को बिठा लो और फिर मजे से लंका में राज करो। तो हनुमानजी रावण के हृदय में भगवान को बिठाने की बात करते हैं, इसलिए वे *विद्यावान* हैं ।
-संकलित

 सार :- *विद्यावान* बनने का प्रयत्न करें ।

     ।।जय हनुमान ।। जय श्रीराम ।।

नरभसा गए बाबू जी

बाबूजी अब और नरभसइया गए है। शरीर से तो कमजोर हो ही गए थे मन से भी कमजोर हो गए हैं। उनके इस जन्म के कर्म थे, भाग्य था, पढ़ाने की अपनी जिद थी कि बेटा तो डॉक्टर बन गया। लेकिन सचमुच में यह दैवीय प्रताप और उनके पूर्व जन्मों के संचित पुण्य कर्म ही थे, जो बहू धीरे-धीरे उनकी माँ में तब्दील होती चली गई!

हिंदुस्तानी पत्नियों की अटूट परंपरा को कायम रखते हुए माँ की शिकायतों का पुलिंदा अभी भी जारी है। इस उम्र में भी विश्वास है कि बोल-बोल कर पति को सुधार ही लेगी। मैंने फोन पर समझाया भी कि बेटा भी अब इस प्रक्रिया से immune हो चुका है, अब तो बाप को बख्श दो। लेकिन शायद यह पत्नी -धर्म का अभिन्न अंग है, इसीलिए जीते जी तो वह इसे नहीं छोड़ने वाली।

पिछले 3 महीने से मैं बाबू जी से झूठ पर झूठ बोले जा रहा हूँ  कि अगले महीने पूरे परिवार को लेकर पटना आऊंगा। इस महीने फिर से उसी झूठ को दोहराना है, क्योंकि अगले महीने से यह सच हो जाएगा। (दिसंबर में सही में जाना है!) कभी-कभी सोचता हूँ  कि अगर बाबूजी को भूलने की बीमारी नहीं होती तो....  तो कभी यह लगता है कि कहीं वह भूल जाने का नाटक तो नहीं करते, जिससे बेटे के झूठ का भरम भी बना रहे। 90+ की उम्र में भी उन्हें मेरी बेटियों के current क्लासेस याद है और परीक्षा के रिजल्ट भी पूछते रहते हैं!

करीब-करीब बेड पर ही पूरा दिन रात  गुजारना, लेकिन सारे परिवार वालों को याद रखना - यह एक अलग ही तरह की जिजीविषा और जीवंतता है। जन्मभूमि की याद उन्हें बरबस आने लगी  है और हर दसवें दिन पर ' महना' ( गाँव ) जाने की जिद पकड़ लेते हैं। भला हो बारिश का, कि एक permanent झूठ 3 महीनों से चलता आ रहा है कि रास्ते में बाढ़ आ गई। वह विश्वास कर भी लेते हैं और हर आने जाने वाले से इस बाढ़ की सत्यता के बारे में पूछते भी रहते हैं।

बाबूजी शुरू से ऐसे ही थे

सब कहने लगे हैं कि नब्बे के करीब पहुँचते पहुँचते बाबूजी अब पगला से गए हैं ; कुछ भी बोलते रहते हैं | भाभी बता रही थी कि अब  तो नींद की दवा लिए बिना सो भी नहीं पाते ; रात  रात  भर जगे रहते हैं और दिन मे भी नहीं सोते | दिन भर कुछ से कुछ बेसिर पैर का बोलते रहते हैं | कुछ अंजाने लोगो को , जो वहाँ है भी नहीं , उन्हे भगाते रहते हैं | खाने- पीने  की भी अब  सुधबुध नहीं रही है | 

पर बचपन से तो बाबूजी ऐसे ही थे मेरे | मेरे स्कूल के दोस्त उन्हे पागल ही बुलाते  थे , क्योंकि घर मे  दस- बीस मिनट गुजरने  के बाद वो उनको जाने का सिग्नल दे देते थे (पढ़ना नहीं है तुम सबको )| इसके बाद अगर पाँच मिनट और भी वो बैठ गए , फिर तो एक दौर शुरू होता था...... और इसकी परिणति माँ के डायलॉग से होती थी- "अब चुप भी हो जाइए, कुछ भी बोलते रहते हैं |" हाँ बाबूजी , मुझे भी यही लगता रहता था कि माँ बिल्कुल ठीक कह रही है | दोस्त बेचारे खिसक लेते थे मेरी तरफ तरस भरी निगाहें फेरते हुए |

और मैने तो उन्हें सोते हुए भी कम ही देखा है बचपन मे| मैं तो अपने समय पे सो जाता था और बाबूजी किताब लिखते रहते थे | सबेरे जब मैं जगता था , तब भी वो किताब लिखते ही दिखते थे ( नब्बे के दशक मे बिहार मे अधिकांश बी एड वाले बाबूजी की किताब पढ़कर ही मास्टर बनते थे)| और दिन मे तो SCERT थी ही उन्हे जगाये रखने के लिए | अब चालीसवें की शुरुआत मे मुझे इस गुड़ाकेशी का मर्म महसूस होने लगा है - घर चलाना उस जमाने मे भी मुश्किल ही होता होगा !

क्या बताऊँ , रविवार का दिन हमारे लिए बड़ा ही भयंकर होता था| सब भाई बहन अपनी अपनी किताबों से चिपके रहते थे |एक अजीब सी खामोशी फिजाओं मे बिखरी रहती थी| (बताना भूल गया था कि मेरे ISM मे admission लेने के बाद घर मे TV आया था और वो भी इसीलिए , क्योंकि मेरे बाद और कोई छोटा नहीं था|) सो कोशिश ये रहती थी कि हम बाबूजी जी को बोलने का कोई मौका ना दें| लेकिन पूरे पाँच थे , दिन भर मे गलती तो हो ही जाती थी... और फिर क्या था , पढ़ाई की जरूरत पर एक आख्यान तो बनता ही था| वो भी high level वाला, आखिर MA( Triple), PhD holder का भी अपना level तो होगा ही|

हमें पता हो या नहीं , घर मे आने वाले मेहमानों को हमारे Exam-Schedule का जरूर पता रहता था | जिनको ना हो और उन दिनो अगर वो घर मे धमक जायें , तो बाबूजी उनको अच्छे से feel करा देते थे | बेचारों की जबान हलक से चिपकी रहती थी , कि कोई बच्चा पढ़ने मे disturb ना हो जाए | कुछेक को तो घर से भगाने तक की भी नौबत तक आ गई थी | मेरे नानीघर वालो ने थोडी छूट लेने की कोशिश की थी, पर बाबूजी ने कोई लिहाज ना रखा ; बाकियों की तो कभी हिम्मत ही नहीं हुई | और इसमें माँ की मौन स्वीकृति का अब मतलब समझ मे आता है , जब दो  बेटियों का मैं पिता हूँ |

हमने खाने -पीने को लेकर जाने कितने नखरे किए हों , लेकिन बाबूजी ने आज तक किसी भी menu को लेकर कभी कोई शिकायत नहीं की| हम कहते भी थे कि बाबूजी का कोई खाने का शौक ही नहीं है , जो दे दो , खा लेते हैं | सुनके वो बस मुस्करा देते थे | वो तो बड़ी बुआ एक बार पटना आई थी , तो उन्होने बाबूजी के बचपन के किस्से सुनाए | तब पता चला कि उम्र बढ़ने से शौक खत्म होते जाते हैं !

मेरे बाबूजी शुरू से ऐसे ही थे ....

रद्दी का रावण

प्रतीक चिन्हों(symbols) का अपना एक अलग ही महत्व रहता है। वे असली सत्य के पास ले जाकर आपको छोड़ देते हैं और फिर यह आपके बुद्धि-विवेक पर निर्भर करता है कि आप सत्य की अतल गहराइयों में कितनी गहराई तक जा सकते हैं। जैसे बिना बिंब के प्रतिबिंब की परिकल्पना नहीं की जा सकती , ठीक उसी तरह से mythology में वर्णित कहानियाँ, उनके पात्र और प्रतीक भी आधारभूत जीवन मूल्यों और उसे निभाने के आधार को ही दर्शाते हैं। 

रावण जलते नहीं, उन्हें जलाना पड़ता है! हाँ, uncosciously वे खुद-ब-खुद निर्मित जरूर हो जाते हैं। वह हमारे अंदर बैठा अहंकार है, हमारे वजूद के दुनियावी रूप का आभासी परछाई मात्र। लोग हमारे अंतस को नहीं पहचानते, हमारे projected स्वरूप को जानते हैं। वही स्वरूप, जिसे हमने बड़ी ही शिद्दत से गढ़ा है। उस मायावी तिलस्म को तोड़ने के लिए कोई बाहर से शक्ति नहीं आएगी, हमारे अंतस के राम को ही उसे जलाना पड़ेगा। 

रावण तो परछाई मात्र है, सो उसके महिमामंडन में ना तो ज्यादा वक्त जाया करना चाहिए और ना ही उसे बनाने के लिए ढेर सारी मुद्रा। और इसी व्यवहारिक सत्य का ध्यान रखते हुए इस साल दशहरे के पावन अवसर पर निर्मित हुआ- "रद्दी का रावण"। जैसे अपने-अपने रावण को बनाने के लिए हम अपने अंदर के सारे दुर्गुण को एक साथ जमा कर लेते हैं, उसी तरह से इस बार के रावण को बनाने के लिए घर की जितनी बाकी रद्दी थी, वह काम आ गई। छोटा सा रावण बनाना बड़ा ही स्वाभाविक और self projection के लिए अनुकूल था, क्योंकि बड़े रावण बनाने का मतलब था कि अपने अंदर दुर्गुणों का भंडार दिखाना। और अंदर का राम इसके लिए allow नहीं करता!

जय श्री राम

अपनी याददाश्त में मैंने कभी बाबूजी को मंदिर जाते नहीं देखा। Collective/social mode of worship का तो छोड़ दें, घर पर भी कभी पूजा पाठ करते नहीं देखा। बताने की आवश्यकता नहीं कि व्रत- अनुष्ठान आदि से भी उनका कोई विशेष मोह नहीं था। कभी सनातन संस्कार के नाम पर भी उन्होंने हम पांच भाई-बहनों में किसी में भी यह आदत डालने की जरूरत नहीं समझी और इसीलिए शायद कभी कोशिश भी नहीं की। माँ ने तो उनके लिए एक विशेषण भी इजाद कर लिया था - "अधरमी"। और उनको सही में नहीं पता था कि बाबूजी के नाम वाले कॉलम में सबसे पहले जो "डॉक्टर" लिखा जाता है, उसकी तहें "भारतीय दर्शन के कर्मकांड और संत-परंपरा के संगम" के शोध पत्र पर जाकर खुलती है। 

मां रोज पूजा करती थी, अभी भी करती है। घुटनों से लाचार हो रही है, लेकिन अभी भी रोज पूजा घर जाने की हिम्मत जुटा लेती है। पति और बच्चों के लिए precribed सारे व्रत उपवास उन्होंने किए। छठ का भी निर्वाहन अपने शारीरिक सामर्थ्य के हिसाब से कुछेक साल पहले तक करती रही। बाबूजी के "अधर्म" को काटने के लिए उन्होंने पूरे जी-जान से सारे कर्मकांड का धर्म निभाया।

फिर आया अपने-अपने जीवन को जी रहे 90 की आयु पार इन दोनों के सामने 9 नवंबर 2019 का दिन। सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया कि अयोध्या में जन्म स्थान पर राम जी का मंदिर बने। बाबूजी तो अब अखबार पढ़ते नहीं, समाचार देखते नहीं, बहुत होश भी नहीं रहता, सो भैया ने जा कर यह खबर सुनाया। सुनते ही आह्लादित हो गए और एक अजीब सी उर्जा का संचार हो गया। अपने अंदर विश्वरूप का भान लिए भैया को ठसक से बोले - "हम जिंदा छियौ, इहेले ऐसन decision अइलौ। अब राम-मंदिर बन जयतौ। फिर हमरा अयोध्या जी ले चलिहे।"
 मां ने तुरंत पत्नी धर्म निभाया- "आय तक कहियो मंदिर गैलहो, जे अब जैभो?" 

सदा की तरह बाबूजी चुप हो गए, लेकिन संपूर्ण जीवंतता और जिजीविषा से परिपूर्ण आंखें बोल रही थी - 
"मोदी जी, तुम मंदिर बनाओ। हम जरूर दर्शन करने जाएंगे।"


मेरे मन के राम

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में प्रभु श्रीराम के लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में चार विभिन्न आसनों की साप्रसंगिक परिकल्पना की। मर्यादा पुरुषोत्तम तो लीला धरने ही आए थे, सो उनकी लीलाओं के अनुरूप कविराज ने अलग-अलग आसन की व्यवस्था की। सर्वप्रथम महाराजा जनक ने अपनी सभा में उन्हें वरासन (दूल्हे के लिए सजाया हुआ आसन ) पर बिठाया; फिर पत्नी जानकी ने चित्रकूट में कुश का आसन बनाया। लंका में भाई लक्ष्मण ने मृगछाला बिछाई और अंत में अयोध्या का सिंहासन तो चौदह वर्षों से प्रभु की प्रतीक्षा कर ही रहा था।

जनकपुर के आसन ने राम को एक प्रखर धनुर्धर छात्र की भूमिका से ऊपर उठा सामाजिक दायित्व के ऊंचे पायदान पर पहुंचाया। पति की भूमिका निभाना और गृहस्थ जीवन का सही पालन करना अपने आप में एक बड़ा ही कठिन दायित्व है। विवाह ही वह बिंदु है, जो पुरुष के जीवन में अपने माता-पिता के अलावा एक और माता-पिता का प्रवेश करवाता है। और सनातन धर्म हर राम से अपेक्षा करती है कि वह दशरथ और जनक दोनों का उचित सम्मान करें और उनके दिशा निर्देशन में आगे गृहस्थ जीवन का सही निर्वाह करे।

संकट के क्षणों में धर्म और आध्यात्म का ज्ञान एक व्यक्ति को टूटने से बचाता है और इन परिस्थितियों में पुरुष का अवलंबन होती है उसकी पत्नी। बनवास का दंश झेल रहे राम के लिए ऋषि मुनियों द्वारा  अध्यात्मिक विमर्श की आवश्यकता थी, ताकि उनकी बुद्धि कुशाग्र के समान और मन धरती के समान शांत रहे। चित्रकूट में उनकी सहचरी सीता ने इसी प्रयोजन से कुश के आसन की व्यवस्था की।

अगर युद्ध में विजय प्राप्त करनी है, तो युद्ध का प्रयोजन हर वक्त आंखों के सामने दिखती रहनी चाहिए; वह आग सीने में धधकती रहनी चाहिए। और इन कठिन परिस्थितियों में आपका सर्वश्रेष्ठ सहायक होता है-आपका भाई, आपका अपना परिवार। लंका में रणनीति बनाते समय लक्ष्मण ने सजाया- मृग-छाल का आसन, जो राम को उस स्वर्ण मृग की याद दिलाते रहे, जिसके कारण सीता का वियोग उन्हें झेलना पड़ा।

एक सफल गृहस्थ, ज्ञान-विज्ञान से सुशोभित और युद्ध में विजयी ही सुयोग्य व्यक्ति है अयोध्या का सिंहासन के लिए। उसकी नैतिकता और प्रबल आत्मविश्वास ही अपनी प्रजा जनों के लिए ऐसी निर्भयता की उद्घोषणा कर पाती है - 
"सनहु सकल पुरजन मम बानी। 
कहउँ न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। 
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। 
मम अनुसासन मानै जोई।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
 तौं मोहि बरजहु भय बिसराई।।"

रामचरितमानस में इन चारों वर्णित आसनों से बढ़कर है "संतुष्टि का आसन"। जब आप अपने जीवन युद्ध में प्रबल विजयी रहे हों, अपने सारे दायित्वों का भली-भांति पालन कर लिया हो, पाने के लिए आपके अंदर कोई आकांक्षा ना बची हो, आपकी प्रबल मेहनत और कर्मों का फल दुनिया देख रही हो, तब अधिकारी होते हैं आप ऐसे आसन के लिए। उस पर बैठकर आप इस कौतूहल से भरे जगत को द्रष्टा बनकर देखते हैं और निस्पृह भाव से अपने अध्यात्म और जीवन ज्ञान को बिखेरते रहते हैं। आप सत्य को जी रहे होते हैं, आपका चित्त जागृत होता है और आनंद क्षण क्षण में विद्यमान रहता है - आप "सच्चिदानंद" होते हैं।


Sunday, January 26, 2020

टिक टिक घड़ी- 6

भैया मॉर्निंग वॉक करके वापस भी आ गए और इधर बाबूजी की किस्सागोई पूरे उफ़ान पर थी। ढ़ेर सारे अनसुने गाँव, अंजाने शहर और अपरिचित लोगों के नाम और उन सब से जुड़े नए-नए वाकये जब कानों में इकट्ठे हो गए, तो उनके अंदर का डॉक्टर जाग गया। अखबार लेकर बाबूजी के कमरे में घुसे और उनकी कमजोर नस दबा दी - " लगय छय, अब अयोध्या में राम मंदिर बन जैतय।"
राम जी का बाण बिल्कुल निशाने पर लगा! अपने आसपास बैठे सारे मुसाफिरों को अपनी- अपनी यात्रा पर उन्होंने रवाना किया और भैया के हाथ से सारे अखबार ले लिया। पन्द्रह मिनट के अंदर उन्होंने हिंदी के तीन अखबारों और अंग्रेजी के दो अखबारों का पन्ना-पन्ना अलग कर दिया।( भैया उनके पास पिछले दिनों के भी अखबार साथ में लेते चले जाते हैं।) देश-दुनिया- समाज के इस विहंगम अवलोकन के बाद बाबूजी ने अपना conclusice remark दे डाला - "नय बनयलकै अब तक, लगय छय।" भैया ने भी सुर लगा दिया - "बनतय त, सब्भे कोय चलबै साथे।"
बाबूजी खुश हो गए। भाभी तब तक दूध-रोटी ले आई थी। खाते-खाते वाल्मीकि रामायण से रामचरितमानस तक इधर-उधर कर डाला। कम्बन तक बात पहुंचती, उससे पहले खाना खत्म हो गया था। भैया ने बिस्तर पर उन्हें लिटा कर सर के नीचे तकिया लगा दिया। उनींदी आँखें पत्थर सी बोझल हो रही थी; शरीर थका थका सा लग रहा था। नींद का नशा हवाओं में घुलता जा रहा था। कमरे में किसी और ही लोक की दिनचर्या चल रही थी; कोई और "घड़ी" अपना काम बराबर कर रही थी।
कुछ देर बाद भैया विजयी भाव से कमरे से निकले- नींद की दवाई दिए बिना बाबूजी सो गए थे!

टिक टिक घड़ी - 5

उस दिन बंद कमरे में जिला स्कूल के प्रिंसिपल साहब और महना गाँव के मिडिल स्कूल के मास्टर के मध्य करीब आधे घंटे तक क्या गुफ़्तगू हुई, वह बाहर किसी को पता नहीं चला। बालक सच्चिदानंद ऑफिस से थोड़ी दूर गलियारे में खड़े होकर इस बात का इंतजार कर रहे थे कि कब दोनों एक साथ आएंगे और उनकी पुरकस्स दनादन पिटाई शुरू हो जाएगी। पिता के लातों के करारे प्रहारों का स्मरण वहां से भी भाग जाने को प्रवृत कर रहा था। लेकिन सरकारी स्कूल का चपरासी पूरा घुटा हुआ था। बिना पैसे के होनेवाले मनोरंजन की आशा में उन पर भरपूर नजर जमाए हुए था।
लेकिन दो दिनों के इस नाटकीय घटनाक्रम की परिणति सुखांत में ही हुई। दोनों शिक्षाविद हंसते हुए निकले और पिता ने इशारे से बालक को पास बुलाया। प्रिंसिपल साहब के चरण स्पर्श करने की कवायद देकर बोला कि आज से यही तुम्हारे पिता हैं और आगे की पढ़ाई तुम्हारी इसी स्कूल में होगी। और ऐसे रोमांचक तरीके से हाई स्कूल, बीहट से जिला स्कूल, बेगूसराय का सफर तय हुआ।
बी पी हाई स्कूल में बिताए गए दो सालों ने बहुत कुछ सिखाया। "सरस्वती भी सरस्वती का पोषण कर सकती है" - यह ज्ञान आगे आने वाले सालों के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ। शायद ट्यूशन पढ़ा कर अपनी पढ़ाई करने वाले हर इंसान के जीवन में कुछ ऐसा ही गुजरता होगा! प्रिंसिपल साहब का बेटा भी कक्षा में अच्छा करने लगा और छात्र सच्चिदानंद सिंह दसवीं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। इसी तरह गाड़ी आगे बढ़ने लगी, जिसकी परिणति M.A.( triple) , PhD के रूप में हुई।
अपने संघर्ष के दिनों के बारे में बाबूजी बहुत कुछ नहीं बोलते। हाँ, कमजोर क्षणों में थोड़ा दरिया बह निकलता है। मुंगेर में किसी वकील साहब के यहां रहकर जब अपनी पढ़ाई करते थे, तब का एक किस्सा है। अपनी सबसे प्यारी हमउम्र सगी बहन के बीमारी से गुजर जाने की खबर मौत के बीस-पच्चीस दिन बाद जिस दिन मिली, उनका मन बड़ा ही उद्विग्न था। वकील साहब के बेटे को पढ़ाने से मना कर दिया कि आज तबीयत खराब है। कुछ समय के बाद बच्चे की मां उनके कमरे के दरवाजे पर थी - "तबीयत खराब है, तो खाना भी तो आज नहीं खाइएगा।" अगले ही सबेरे उन्होंने वहां से अपना सामान बाँध लिया था।

टिक टिक घड़ी - 4

आग की तरह पूरे गाँव में यह बात फैल गई कि मास्साब का बेटा 'सस्ता' ( बिहार के अद्वितीय एवं खालिस उज्जड़पन में 'सच्चिदानंद' का पुकारू संस्करण) घर छोड़कर भाग गया है। शाम होते-होते घर के आगे भीड़ लग गई। सन् 1946-47 का समय था, सो लोगों की creativity परवान पर थी। किसी ने गांधी जी का चेला बनवा दिया, तो किसी ने आजाद हिंद फौज join करवा दी। एकाध मजमा लूटने वालों ने माहौल बनाने के लिए प्रत्यक्षदर्शी बन उन्हें सिमरिया घाट ( गंगा नदी) की ओर जाते हुए बता दिया! घर के अंदर औरतें रोने पर बदस्तूर लगी हुई थी।
माहौल पूरा गमगीन और सनसनीखेज बन चुका था, लेकिन इन सब से निस्पृह थे - ' कुल दो इंसान '। दादा जी को अपने बेटे के बारे में भलीभांति मालूम था; उनकी फितरत से वह वाकिफ थे। "पढ़ाई में अच्छा है, और पढ़ाई करना चाहता है " - बेटे के मन की इस इच्छा को तो वो जानते ही थे। साथ ही कितना डरपोक है, यह भी उन्हें बखूबी मालूम था। तो लड़ने-झगड़ने या सेना join करने वाले options को उन्होंने बहुत पहले ही मन मे rule-out कर दिया। अपने दिए हुए संस्कारों और अपने होनहार बेटे पर पूरा भरोसा था, इसीलिए गंगा में डूब मरने की theory भी अस्वीकार कर दी।
दूसरा इन सब से अनजान गांव से 15-16 किलोमीटर दूर बेगूसराय के बीपी हाई स्कूल की बिल्डिंग के अंदर था। शाम में छुट्टियों के बाद सभी चले गए, लेकिन एक लड़का अभी भी उसी प्रांगण में था। लड़के का सौभाग्य मानिए या विधि का विधान, सारा काम निपटा कर अपने आवास की ओर जाते हुए प्रिंसिपल साहब की नजर इस लड़के पर पड़ गई। थकान, भूख और डर - तीनों के कारण लड़के का चेहरा कुम्हलाया हुआ था। दो-चार सवाल पूछे तो, प्रिंसिपल साहब को सारा माजरा समझते देर न लगी। पहले तो भरपेट भोजन करवाया, फिर आधे घंटे का शैक्षणिक इंटरव्यू लिया। एक कुशल प्रशासक की तरह मामला हैंडल करते हुए लड़के को तत्काल तो अपने पांचवें में पढ़ रहे बेटे को पढ़ाने पर लगा दिया और रात में खाना खाने के बाद सरसों तेल से अपने शरीर की मालिश करने का फरमान जारी कर दिया। सुबह पौ फटते ही चपरासी प्रिंसिपल साहब के आदेशानुसार महना गाँव के मास्टर फौजदार सिंह के घर की ओर रवाना हो गया।
" मुसाफिर लोग, ठंढ बढ़ रहा है। एक कप चाय और पीजिएगा ? "
उनके जवाब की बिना प्रतीक्षा किए हुए कमरे के दरवाजे की ओर मुँह कर बाबूजी जोर से बोले- "एक बार और चाय ले आओ।"

ब्रह्म मुहूर्त शुरू हो चुका है। घड़ी की छोटी वाली सुई चार के अंक को पार कर चुकी है, लेकिन बाबूजी की मजलिस परवान पर है। कौन कहेगा कि इतना कम बोलने वाले के पास किस्सों का इतना भंडार है!

टिक टिक घड़ी - 3

"ऐ मुसाफिर, कहां जा रहे हैं? थक गए होंगे, दस मिनट आराम कर लीजिए। चाय-पानी पीते जाइए।"
रात के करीब दो-ढाई बज रहे हैं और बाबू जी अपने तफरीह के पलों के लिए दोस्त जुगाड़ रहे हैं। अधिकतर तो चाय-पानी के प्रलोभन में ही ठहर जाते हैं, पर कुछ ढीठ टाइप के मुसाफिरों को अलग तरीके से घेरना पड़ता है।
"लंच का टाइम हो गया है, सब अपना-अपना कलेवा खोलकर साथ में खा लीजिए।" - फिर संस्कृत का एक श्लोक, जिसका मतलब कुछ ऐसा है कि साथ-साथ खाने मैं ही जीवन की सार्थकता है और सनातन धर्म का मूल भी इसी में टिका है!
ब्लोअर को बिल्कुल बेड के पास खिसकाते हुए सर्दी की रातों का अमोघ अस्त्र भी चला देते हैं - " बिल्कुल कंपकपाती ठंढ है। यहां तो अलाव भी जल रहा है। तनिक बैठ तो जाइए, देह गरम हो जाएगा।"

लगता है, कुनबे में पांच-सात जने जुड़ गए हैं, क्योंकि हुलसते स्वर में दरवाजे की तरफ मुंह कर ऊंची आवाज में सात-आठ चाय लाने का फरमान भेज दिया। फिर दुनिया-जहान की बातें शुरू होती है। कभी गाँव के बचपन के किस्से, तो कभी कितनी तकलीफों से अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी की, उसके किस्से। बकौल बाबूजी उनके जीवन की दो ही उपलब्धियाँ रही हैं - उनकी पढ़ाई और उनके बच्चे।
उनके पिताजी (मेरे दादाजी) खुद तो शिक्षक थे, शिक्षा का मोल भी समझते थे। पर बड़े परिवार को चलाने के खर्चे और ब्रिटिश इंडिया में मिल रहे मासिक तनख्वाह की रकम ने इन मूल्यों को थोड़ा व्यवहारिक बना दिया था। सो आठवीं क्लास के बाद उन्होंने अपने हाथ खींच लिए थे और स्वतंत्र कर दिया था कि आगे पढ़ाई करना है तो खुद व्यवस्था कर लो। और मजे की बात तो सुनो- जिम्मेदारी का बोझ महसूस करवाने के लिए आठवीं क्लास में शादी भी करवा दी थी!
बाबा (दादाजी) की अपनी रणनीति थी। इंडस्ट्रियल एरिया में बसे मेरे गाँव के लड़कों को उस समय नौकरी पाने में कोई विशेष तकलीफ नहीं थी। जिनकी भी जमीन का अधिग्रहण होता था, उस घर के सभी लड़कों को "नौकरी" मिल जाती थी। सो पिता जहाँ चतुर्थ वर्ग के एक नौकरी का जुगाड़ कर रहा था, बेटे के मन में आगे पढ़ने की धुन सवार थी। पिता-पुत्र के वैचारिक द्वन्द की एक ही परिणति होनी थी - बेटा घर छोड़कर बेगूसराय भाग गया!

टिक टिक घड़ी - 2

सो बाबूजी की शरीर की घड़ी बड़ी ही धीमी हो गई है। उनके दिन-रात थोड़े लंबे हो गए हैं। जितने समय में उनके मानसिक जगत का सूरज और चांद एक-एक बार उगता और डूबता है, उतनी देर में दीवार पर टंगी घड़ी की सुईयां कभी चार तो कभी छः चक्कर लगा लेती है। बाबूजी अपनी घड़ी से चलते हैं और दुनिया वाली घड़ी से चलना हमारी आदत और मजबूरी दोनों है।
पेंडुलम वाली घड़ी के धीमी होने के पीछे विज्ञान एक बड़ा ही interesting explaination देता है - या तो पेंडुलम की लंबाई बढ़ गई हो या उस पर लगने वाला पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल कम हो गया हो। मजे की बात यह भी है कि वही बल उस पेंडुलम को लगातार oscillate भी करवाता रहता है। जन्म और मृत्यु की extreme नियति के बीच में डोलते इंसान की भी यही कैफियत है। 'अहंता' पेंडुलम की लंबाई निर्धारित करती है और 'ममता' उसे गतिशील रहने के लिए बल प्रदान करती है।
बाबूजी जैसे ऊंची शख्सियत वाले व्यक्तित्व की 'लंबाई' नहीं मापी जाती, उनका 'कद' मापा जाता है। वो ऊँचा कद, जो उन्होने अपने अथक प्रयासों से जीवन भर में establish किया। वह ऊँचा कद, जिसकी छाया से अभी तक हम निकल पाने में सक्षम नहीं हुए हैं और भविष्य में शायद कभी हो भी नहीं पाएंगे। 1980 तथा 1990 के दशक में बिहार में B.Ed करने वाले सभी छात्र-छात्राओं के लिए डॉ सच्चिदानंद सिंह का नाम अनसुना नहीं होगा। करीब 2 दशकों तक उनकी लिखी किताबें Teacher's Training के स्टूडेंट्स के लिए प्रेरणा स्रोत का काम करती आईं। जहाँ शैक्षणिक उपाधियों से उनकी किताबों में लेखक- परिचय का पूरा पृष्ठ भर जाता था, उस कद को उनका यह केवल स्नातक-उर्तीण ( B.Tech. only)बेटा केवल गर्व और सम्मान से ही तो देख सकता है।
पूरी तरह involve होकर अपने दम पर अपनी सारी जिम्मेदारी बखूबी निभा ली। सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा और संस्कार दिए। बेटियों की शादी कर दी, बेटों को अपने पैरों पर खड़ा करवा दिया। हमारे ऊपर खुद का जीवन गुजारने के अलावा कोई बोझ नहीं छोड़ा। और फिर सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार उन्होंने बिल्कुल ठीक समय पर खुद को बहुत सारे जाल-जंजालों से मुक्त कर लिया। अपने अनुसार यथाशक्ति सबको अपना अपना जीवन जीने की स्वतंत्रता दे दी। 'ममता' की आसक्ति के बल को एक स्थितप्रज्ञ योगी की भांति deliberately धीरे-धीरे क्षीण करते चले गए। जैसे-जैसे स्मरण शक्ति घटती जा रही है, वैसे वैसे यह प्रक्रिया और accelerated होती जा रही है। लोगों को पहचानना भी धीरे-धीरे अनिश्चित होता जा रहा है। अपनी ही बनाई धरती से मोह कम होता जा रहा है।
भौतिकी की वही दिलचस्प शै याद आ रही है। इतने अच्छे से तो व्याख्या की थी- " कि घड़ी कैसे धीमी होती चली जाती है।" फार्मूला है, लगता ही रहेगा- अपने सारे limitations के बावजूद भी। हम denial की कितनी भी कोशिश कर लें, प्रकृति तो अपना काम करेगी ही। कल को हम सब की घड़ी mis-match होगी।

टिक टिक घड़ी -1

सदियों से कहते सुनते आए हैं कि मनुष्य नैसर्गिक रूप से एक सामाजिक प्राणी है। लेकिन गौर से अगर आप देखो तो इस विशेषण को पाने के लिए मनुष्य को अच्छी-खासी training और rythmic cycle से गुजरने की आवश्यकता होती है। सामाजिक व्यवस्था में resonate करने के लिए आपके body का time-schedule और समाज की conventional और established time-frame match करनी चाहिए। शुद्ध सरल भाषा में बोलो तो आपका biological clock दीवाल पर टंगी घड़ी की टिक-टिक से मैच करना चाहिए। मतलब जितने समय में पृथ्वी अपने अक्ष पर एक बार पूरी घूम जाती है,बस उतने ही समय में आप अपने जीवन की एक rythmic cycle complete कर लो। तब जाकर आप सामाजिक व्यवस्था से sychronise कर पाओगे।
नवजात शिशु अपने जीवन पहले दो-तीन महीनों में करीब 18-19 घंटे सोता है। उसे इस समाज की घड़ी से कोई मतलब नहीं होता। अपने हिसाब से सोते रहता है, भूख लगने पर रोकर indication दे देता है। धीरे-धीरे हम सब मिलकर उसे train करते हैं कि कब सोना है, कब जगना है, कब खेलना है, कब स्कूल जाना है, कब खाना है... फलाना फलाना।
मुद्दे की बात उसे तभी सोना चाहिए, जब बाकी सभी के सोने का वक्त है! कहानियां और मान्यताएं भी बना ली हमने। रात में ना सोने वाले को पढ़े-लिखे लोग निशाचर कहते हैं और हम जैसे मुंहफट लोग राक्षस या असुर की संज्ञा देते हैं। कभी सोचते ही नहीं कि हो सकता है उसका biological clock अलग हो। उसकी मजबूरी तक समझने की कोशिश नहीं करते कि हो सकता है उसने अपने body को इस तरह से condition किया हो। ( International Call centre मैं काम करने वाले को अधिकांश जन असामाजिक ही मानते हैं।)
दशकों की ऐसी तमाम training के बावजूद ढलती उम्र एक ऐसे पड़ाव पर ले आती है, जब शरीर पर आपका नियंत्रण नहीं रह जाता। शरीर अपने हिसाब से respond करने लगता है। आप कब जागेंगे और कब सोएंगे- दीवार की टिक-टिक घड़ी से वास्ता नहीं रह जाता। शरीर की activity- schedule और समाज के established time norms पूरी तरह से mis-match होने लगते हैं। बाकी सब जगे रहते हैं, तो आप सोते हैं। बाकी सब के सोने के टाइम में आप जगे रहते हैं।
भैया बता रहे थे कि बाबूजी का बायोलॉजिकल क्लॉक पिछले तीन चार महीनों से 48 घंटे का हो गया है- मतलब 24 घंटे सोना ,24 घंटे जगना। सो जाहिर सी बात है कि प्रचलित सामाजिक व्यवस्था में उनकी उपस्थिति नगण्य हो गई है। सो इसका शानदार सा तोड़ बाबूजी ने निकाल लिया है। उन्होंने अपना एक अलग ही समाज निर्मित कर लिया है- उनसे ही वह बतियाते हैं, वही उनके मित्र हैं,दोस्त हैं ,उन्हीं से लड़ते झगड़ते रहते हैं।

बदलती हवाएं

पिछले एक-दो सालों से देश की हवाएं कुछ बदल सी गई है। कभी लगता है कि भांग पड़ गई है, तो कभी लगता है कि जहर सी घुल गई है। हवाएं घनी होती जा रही है, धुंध सी बढ़ती जा रही है, कोहरे में दूर तक देख पाना बड़ा ही मुश्किल होता जा रहा है। इस पर कुछ लोगों का नया तुर्रा और उनके अजीबोगरीब फरमान- के भैया, खालिस ऑक्सीजन ही रखेंगे हवा में, बाकी सारी गैस गायब कर देंगे। यह बात अलग है कि फेफड़ों को इसकी खबर नहीं है!
बाबूजी इस उम्र में ना तो अखबार पढ़ते हैं, ना किसी से गप करते हैं, टीवी देखे हुए भी जमाना हो गया। सो हमें लगा कि बदलती वैचारिक क्रांति के सुर और देश के शुद्धिकरण के ताल से वो तो बिल्कुल अनभिज्ञ होंगे। वैसे भी बड़े आम आदमी का जीवन गुजारा उन्होंने। पहले भी कभी उन्हें राजनीतिक बहसों में नहीं पड़ते नहीं देखा और धर्म को लेकर तो पूरी तरह से "असली वाले निरपेक्ष" थे। पर इधर उनके भी चाल-ढाल, बात-व्यवहार और रिएक्ट करने का तरीका बदल सा गया है। लग रहा है कि समाज की सामूहिक अवचेतना अपना अधिकतम समय बेड पर गुजारने वाले अपने दसवें दशक को जी रहे एक कर्मयोगी की विचार-श्रंखला में आरोपित हो गई है। और किसको कहूं, यह तो पक्का बदली हवाओं का ही दोष है।
विश्वास मानो, हवा जरूर बदली है। जिन्होंने हमें धैर्य का संस्कार दिया, वही अब अधीर हो गए हैं। Semester-break की छुट्टियों में घर पर आए अपने पोते को सुबह-शाम convince करने पर लगे हैं कि वह कॉलेज जाने से पहले शादी कर ले। उसने पढ़ाई का हवाला दिया तो अपने जीवन के उदाहरण से चुप करा दिया। पूरी गाथा सुनाई की कैसे सातवीं क्लास में ही उनकी शादी हो गई थी और उसके बाद उन्होंने पढ़ाई continue रखते हुए MA(triple) और पीएचडी किया। और पुराणों की गाथाओं से लैस ऐसी शिद्दत से वह इस प्रयास में जुटे थे, मानो बाल विवाह संस्कृति का अभिन्न अंग और एक अनुकरणीय संस्कार है। भैया ने मलमास का हवाला देते हुए मामले को एक महीने तक खींचा; तब जाकर वह शांत और निश्चिंत हुए। सचमुच वंदनीय है सनातन व्यवस्था की परिपाटी, जो हर तरह के आचरण को अनुकरणीय और आदर्श बना देती है!
हर चीज की जल्दबाजी, हर बात में व्याकुलता। किसी भी चीज की demand मुंह से निकले नहीं कि वो सामने हाजिर होना चाहिए। मांग भी एक खत्म, कि दूसरी चालू। लगता है अपनी सरकार से उन्होंने रेस लगा ली है। जिस रफ्तार से सरकार हमें नए-नए मुद्दे पकड़ाए जा रही है, वैसी ही speed इधर भी चालू है। लगता है समय की कमी का एहसास दोनों को हो रहा है! execution में भी बड़ी समानता है। सब कुछ जल्दी खत्म करने की व्यग्रता दोनों के व्यवहार में अक्सर उग्रता का रूप लेते जा रहें हैं।
facebook, twitter, insta वगैरा बाबूजी को बिल्कुल पता नहीं, लेकिन उनकी स्मरण शक्ति और भूल जाने की शक्ति दोनों ही बड़ी ही तीव्र हो गई है - बिल्कुल social media generation की तरह। किसे पहचानेंगे और किसे नहीं पहचान पाएंगे - इस बात को लेकर बड़ी ही भ्रम और संशय की स्थिति रहती है। या जिसे सुबह में पहचाना, उसे शाम में भी पहचान लेंगे - इस बात की भी कोई निश्चितता नहीं है। पहचान लेने पर भी कैसा reaction show करना है, वो पूरी तरह से उनके मूड पर ही dependent है। यह बात भी दीगर है, कि कोई पहचाना व्यक्ति भी दो मिनट से अधिक उनके पास बैठ जाए, तो फिर उन्हें कोफ्त होने लगती है। फिर अपने logout होने का indication पूरे perfection से दे देते हैं; बिल्कुल blank screen हो जाते हैं। दूसरा बेचारा उठ खड़ा होता है। प्रणाम में आशीर्वाद एक ही मिलता है - " फेर अइहो।"
बदलती हवाएं सचमुच से बाबूजी के दिमाग में घुस गई है। आसपास दिख रहे लोगों का चेहरा भूलने लगे हैं, लेकिन अपने बचपन की लोग उन्हें याद आने लगे हैं। मिलने जाने वाले को ऊंची आवाज में बार-बार बताना पड़ता है कि वह कौन है। कभी पहचान लेते हैं और कभी नहीं पहचान पाते। पर पिछले कुछ महीनों से हर एक-दो दिन पर एक अजीब सा वाकया repeat होने लगा है।
बाबूजी के कमरे में उनके गेस्ट आते हैं। उन अतिथियों के भी बैठने की जगह नियत नहीं है। कुछ कुर्सी पर बैठते हैं, कुछ पंखे के पास, कुछ जमीन पर कोने में, तो कुछ हवा में ही रहते हैं। गर्मी में AC के पास, तो जाड़े में Blower के पास वो टिके रहते हैं। उनके नाम भी बाबूजी को नहीं पता, लेकिन वह उनके "अपने गेस्ट" हैं। उन अपनो के लिए चाय नाश्ते की फरमाइश करते रहते हैं। उनसे बात करते रहते हैं उन्हें अपने गांव वाले घर में settle करवाने का आश्वासन भी देते रहते हैं। बीच-बीच में ऐसे ही कुछ imaginative figures को डांटते भी रहते हैं- "जा भाग, यहां तेरे लिए कोई जगह नहीं है।" लगता है NRC Bill पूरी तरह से अक्षरशः बाबूजी के दिमाग में ही छप गया है !
हर बात में उतावलापन है, लेकिन एक चीज को लेकर निश्चिंतता है। पटना जाने पर इस बार भी बाबूजी ने वही बात दोहराई - "अयोध्या में राम मंदिर बनतौ, त ले चलिहे।" मैंने भी उनको पक्का आश्वासन दिया। लेकिन मेरे बाबूजी मेरे अनुमान से कहीं ज्यादा ही practical, pragmatic और realistic निकले। एक सवेरे उन्होंने सपाट स्वर में उद्घोषणा कर दी- " यमराज अइले छलै। ओकरा कह देलिऐ कि अब तीन साल बाद अइहो।"
यमराज भी सच्चे कर्म योगी की बात नहीं टालेंगे। सो मोदी जी, तीन साल का वक्त है, मंदिर तो बना ही डालो।