Tuesday, January 28, 2020

हैप्पी मदर्स डे

Hypocrisy कभी भायी नहीं, सो हमने कभी अपनाई नहीं....

Happy happy वाले Mother's Day पे हमने भी अपनी माय (माँ )को सवेरे सवेरे लम्बा फोन मार डाला| खुश हो गई वो भी; बेचारी को तो occasion भी नहीं पता था| सच पूछो तो, ऐसे 'डे' हम जैसे नालायको के लिए एक अपॉर्चुनिटी बनकर आती है, जो पेट पालने के नाम पर अपने घरों से दूर रहते हैं| पर अंदर झांक कर देखो ,सारी सच्चाई सामने आ जाएगी| छुट्टियों के pool में मां-बाप के दिनों के कोटे का ऑप्टिमाइजेशन जो हम सब करते हैं ना, उसी भागीरथी प्रयास के लिए दिल कम, दिमाग से ज्यादा -
"हैप्पी मदर्स डे"

बचपन में कितना सोचते थे कि माँ , तेरे लिए यह करूँगा, माँ तेरे लिए वो करूँगा| उम्र बढ़ती गई, ख्वाहिशें छोटी होती गई| मिलने की तमन्नाओं को पहले तो सस्ते फोन कॉल ने  रौंदा और वीडियो कॉल की सुविधा ने इसे बुरी तरह से कुचल डाला| बच्चों के लिए तो दादी मोबाइल के छोटे स्क्रीन के अंदर समाई हुई है| कैसे बताऊं उन्हें, कि सारा कुछ बेड पर पड़ी इस बूढ़ी काया के कारण है|कैसे बताऊं उन्हें कि तुम्हारी इस illiterate दादी ने तुम्हारे बाप-चाचाओं को परिवार चलाने के काबिल बनाया; इस लायक बनाया कि तुम्हारे सारे अनाप-शनाप डिमांड पूरे होते जाते हैं|

और यह सिर्फ मेरी माँ  की ही कहानी नहीं , दुनिया भर की सारी माँओ   के लिए एप्लीकेबल है| IIM वालो को अपने curriculum मे 'Scarce resource mangement and its optimum utilisation for favorable outcomes to qualitatively change the life' शामिल करना चाहिए और प्रबंधन की मोटी मोटी पुस्तकों की जगह पर मेरे माँ के संघर्ष की कहानी सुनानी चाहिए| नौकरी  और किताबें लिखने से बाबूजी को कभी फुर्सत ही नहीं मिली| हम पांच भाई बहनों की पढ़ाई-लिखाई, सारे लोक व्यवहार और हमारी उम्र से बड़ी भूख- इन सब का जिम्मा माँ ने ही ले रखा था| And she is successfull indeed! - यह मैं नहीं, बाकी सारे दुनिया वाले कहते हैं|

समय बदलता गया और हम सब बड़े हो गए| और इस बीच में किसी ने ध्यान ही नहीं दिया कि, swiftly  एक कुशल प्रशासक एक शानदार डिप्लोमेट में तब्दील हो गया है| बिना किसी कंट्रोवर्सी में फंसे, पाँच अलग-अलग रहने वाले परिवारों को एकजुटता में कैसे बांधा जाता है और अपनी बात मनवाई जाती है- लोगों आओ, मेरी मां से तो सीखो! सबको लगता है कि वह स्वतंत्र है, लेकिन डोरी तो किसी और के हाथ में ही है| और सच बताऊँ, हम सबको यूँ  ही डोरी से बंधे रहना बहुत अच्छा लगता है, माँ |

# Happy Mother's Day

राम तत्व की महिमा

राम तत्व की महिमा

ऐसी बात नहीं है कि अवधपुरी में राजा दशरथ के घर श्रीराम अवतरित हुए तब से ही लोग श्रीराम का भजन करते हैं। नहीं, नहीं, राजा दिलीप, राजा रघु एवं राजा दशरथ के पिता राजा अज भी श्रीराम का ही भजन करते थे क्योंकि श्रीराम केवल दशरथ के पुत्र ही नहीं हैं, बल्कि रोम-रोम में जो चेतना व्याप्त रही है, रोम-रोम में जो रम रहा है उसका ही नाम है 'राम'। राम जी के अवतरण से हजारों-लाखों वर्ष पहले राम नाम की महिमा वेदों में पायी जाती है।
रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।
'जिसमें योगी लोगों का मन रमण करता है उसी को कहते हैं 'राम'।'

एक राम घट-घट में बोले,
दूजो राम दशरथ घर डोले।
तीसर राम का सकल पसारा,
ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

शिष्य ने कहाः "गुरुजी ! आपके कथनानुसार तो चार राम हुए। ऐसा कैसे ?"
गुरूः "थोड़ी साधना कर, जप-ध्यानादि कर, फिर समझ में आ जायेगा।" साधना करके शिष्य की बुद्धि सूक्ष्म हुई, तब गुरु ने कहाः

जीव राम घट-घट में बोले।
ईश राम दशरथ घर डोले।
बिंदु राम का सकल पसारा।
ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

शिष्य बोलाः "गुरुदेव ! जीव, ईश, बिंदु व ब्रह्म इस प्रकार भी तो राम चार ही हुए न ?"
गुरु ने देखा कि साधना आदि करके इसकी मति थोड़ी सूक्ष्म तो हुई है। किंतु अभी तक चार राम दिख रहे हैं। गुरु ने करूणा करके समझाया कि "वत्स ! देख, घड़े में आया हुआ आकाश, मठ में आया हुआ आकाश, मेघ में आया हुआ आकाश और उससे अलग व्यापक आकाश, ये चार दिखते हैं। अगर तीनों उपाधियों – घट, मठ, और मेघ को हटा दो तो चारों में आकाश तो एक-का-एक ही है। इसी प्रकारः

वही राम घट-घट में बोले।
वही राम दशरथ घर डोले।
उसी राम का सकल पसारा।
वही राम है सबसे न्यारा।।

रोम-रोम में रमने वाला चैतन्यतत्त्व वही का वही है और उसी का नाम है चैतन्य राम"
वे ही श्रीराम जिस दिन दशरथ-कौशल्या के घर साकार रूप में अवतरित हुए, उस दिन को भारतवासी श्रीरामनवमी के पावन पर्व के रूप में मनाते हैं।
कैसे हैं वे श्रीराम ? भगवान श्रीराम नित्य कैवल्य ज्ञान में विचरण करते थे। वे आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र एवं आदर्श शत्रु थे। आदर्श शत्रु ! हाँ, आदर्श शत्रु थे, तभी तो शत्रु भी उनकी प्रशंसा किये बिना न रह सके। कथा आती है कि लक्ष्मण जी के द्वारा मारे गये मेघनाद की दाहिनी भुजा सती सुलोचना के समीप जा गिरी। सुलोचना ने कहाः 'अगर यह मेरे पति की भुजा है तो हस्ताक्षर करके इस बात को प्रमाणित कर दे।' कटी भुजा ने हस्ताक्षर करके सच्चाई स्पष्ट कर दी। सुलोचना ने निश्चय किया कि 'मुझे अब सती हो जाना चाहिए।' किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती ! जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दियाः "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बालब्रह्मचारी श्रीहनुमान, परम जितेन्द्रिय श्री लक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।"
जब रावण सुलोचना से ये बातें कह रहा था, उस समय कुछ मंत्री भी उसके पास बैठे थे। उन लोगों ने कहाः "जिनकी पत्नी को आपने बंदिनी बनाकर अशोक वाटिका में रख छोड़ा है, उनके पास आपकी बहू का जाना कहाँ तक उचित है ? यदि यह गयी तो क्या सुरक्षित वापस लौट सकेगी ?"
यह सुनकर रावण बोलाः "मंत्रियो ! लगता है तुम्हारी बुद्धि विनष्ट हो गयी है। अरे ! यह तो रावण का काम है जो दूसरे की स्त्री को अपने घर में बंदिनी बनाकर रख सकता है, राम का नहीं।"

धन्य है श्रीराम का दिव्य चरित्र, जिसका विश्वास शत्रु भी करता है और प्रशंसा करते थकता नहीं ! प्रभु श्रीराम का पावन चरित्र दिव्य होते हुए भी इतना सहज सरल है कि मनुष्य चाहे तो अपने जीवन में भी उसका अनुसरण कर सकता है!

प्रभु राम भक्त
#copied

जिंदगी

" पता है ? मैंने खुद से मुहब्बत करना शुरू कर दिया है |"

नए नवेले आशिक की मानिंद मैने चहकते हुए उसे सुनाया | उसने संजीदा तरीके से बड़े गौर से मेरे चेहरे का भरपूर जायजा लिया और फिर चुपचाप अपनी चाय की चुस्कियों मे वापस रम गया | वो हमेशा से ऐसा ही करता था मेरे साथ | ऊपर से मेरे मजे लेने का कभी कोई मौका भी नहीं छोड़ता था वो |

मेरी खीज़ बढ़ती जा रही थी और वो मेरे नए ख्याल पे कुछ ध्यान ही नहीं दे रहा था | साला, मेरे चेहरे की चमक और दिल की खनक कुछ और बयान कर  रहे थे और उसे कोई मतलब ही नहीं था | मैंने एक कोशिश और मारी |

" पता है ? मैं अब बहुत खुश रहता हूँ | मैने गाने भी गाने शुरू कर  दिया ,वो भी खुशी वाले | रोज karaoke पे रियाज भी करता हूँ  |"

उसके भी मेरी तरह अधपके बाल हैं ; बस उड़े नहीं हैं | वो हमारे  जवानी के दिनों मे खूब गाया करता था | आवाज बड़ी शानदार थी उसकी | मुझे लगा कि अब तो शाबासी मिल के ही  रहेगी | अकेला दोस्त है मेरा , मेरे हर सुख -दुख का साथी | उसकी राय बहुत मायने रखती थी मेरे लिए | चाय की आखिरी घूंट पीकर उसने कप परे सरका दी | 

अब तो अति हो गई | मेरा पारा चढ रहा था | लेकिन साले ने ज़िन्दगी की मेरी हर कहानी झेली है , सो हर नखरे बनते हैं उसके | और किसको सुनाऊँगा ? एक वो ही तो इत्ते करीब से जानता है मुझे | मेरे  नमकीन और मीठा एक साथ खाने की तलब और आदत बस वही तो समझता है | मैंने फिर से हँसता सा चेहरा बनाया |

" पता  है ? मैने खुद पर समय भी देना शुरू कर दिया है | Morning Walk भी चालू कर दिया है , Gym भी जाता हूँ  रोज | "

मैं सूने आकाश से बाते कर रहा था | सामने से कोई प्रतिक्रिया ही नहीं |कोई मतलब ही नहीं रह गया है  इसे मुझसे | साला ,बड़ा आदमी बन  गया है | इस बार मैं जोर से चीखा -

" पता है भो ... वा ..? मैं अपनी खुशी बाँट रहा हूँ और तू  चू .........
किए जा रहा है | कुत्ते , मैं अब ज़िन्दगी जी रहा हूँ ....
पता  है  मा ......? मैं कल बारिश मे नहाया भी था | फिर भुट्टे भी खाने  गया था ......
पता है चू ..... ? मुझे उस मीठे - खारे वाले दुकान मे फिर से बार-बार जाने का मन करता है .....
पता है ? मुझे एक बार फिर से इश्क हो गया है ...... "

इस बार वो मुस्कराया ! पिछले पच्चीस सालों से मैं इस कमीनगी वाली मुस्कान देखता आया हूँ | आगे का वाकया पता था मुझे ; अब वो मेरी अच्छे से लेगा | मैने बिल्कुल ही मासूम सा चेहरा बना लिया और पूर्ण समर्पण की मुद्रा मे उसकी ओर देखा | मेरे इस पैतरे पर भी उसके तेवर  नहीं बदले | कुछ क्षण यूँ ही बीते | अचानक उधर से गूगली आई  -

" पता है ? तू ऐसे बात करता है ,तो जीता-जागता सा लगता है | अबे  चू ...., तू तो बार-बार मरता रहता था और अपनी लाश को चिता पे लिटाकर खुद जलाते रहता था .....

पता है ? तू अब फिर से ज़िन्दा हो गया  है ......."

# ज़िन्दगी

शब्दों की कलाकारी

शब्द सचमुच मे बड़े ही value neutral होते हैं | कुछ 22-25 साल पहले जब ओशो ने अंगुली पकडकर कामू और कैलीगुला के साथ कंचे खेलने उन अंधेरी गलियों के मुहाने पर छोड़ा था, तो अस्तित्व, खालीपन, सम्पूर्णता की प्राप्ति की छटपटाहट, आत्म- तटस्थता जैसे अचूक  अस्त्र मिल गए | यार दोस्तो मे उन लम्बी चलने वाली महफिलों मे  TRP अचानक से बढ़ने लगी |एक बात और सुन लो लौंडो, दाढ़ी अपनी भी बढ़ी थी- पर बुद्धिजीवी कहलाने के लिए , कूल दिखने के लिए नही!

तो भाई लोगो , धड़ल्ले से इनका नाजयाज उपयोग करते रहे , बिना कुछ फील किए हुए | सब डायरी के ज़िल्द मे महफूज रहे , तो दोहरी ज़िन्दगी जीने मे भी कोई विशेष तकलीफ नही थी| Name-dropping मे महारत हासिल थी और फलसफे गढना जीवन का फलसफा लगता था ... - पूर्णता की यात्रा की शुरुआत कुछ इस कदर हुई | life चलती रही , हम भी साथ  घिसटते रहे, शब्द सारे भूल गए... और अपने अस्तित्व को खुद से बाहर ढूँढ़ना ही process रह गया ; बिना मंजिल के सफर का आनन्द भी कुछ अजीब है ना !

अब उम्र के चौथे दशक मे वापस से वही शब्द वापस आ रहे हैं , वो भी बिन बुलाए | इस बार तो पूरी नंगई और ढ़ीढ़ता के साथ | अकेले भी नही आ रहे , जीवन के वाकयों के साथ निर्ममता के साथ डेढ़ इंची मुस्कान देते हुए हाय - हैलो कर रहे हैं | लगता है , वो बलात्कार का दंश ना भूल पाए हैं ; बदला तो पूरा लेंगे  ही | 

# ऊँघते  - अनमने विचार

मैं और वो

मैं भागता फिर रहा हूँ , उससे बचता फिर रहा हूँ | वो मुझे पर्दाफाश  करना चाहता है और मैं उससे छिपता फिर रहा हूँ | उससे नजरें मिलाने की ना तो चाहत बची है और शायद ना हिम्मत | हर लम्हात में बस यही ख्वाहिश रची-बसी है कि वो दुनियाँ के किसी दूसरे कोने मे अपनी ज़िन्दगी जी रहा हो और मुझे अपनी वाली से मशक्कत करने दे | चाहता हूँ कि उसकी नजर तक ना पड़े मुझपे ; अब वो बिल्कुल ही बर्दाश्त नहीं हो पा रहा| उसकी छाया,उसके ख्याल ,उसकी हर क्षण रूबरू होने की ख्वाहिश मुझे डरा रहे हैं |

          मैंने उसे बारम्बार बोल रखा है कि अब बड़ा हो गया हूँ ; अपनी लड़ाई खुद लड़ सकता हूँ | इतना तक बोला कि दुनियावालों से लड़ने के लिए मुझे दुनियावी हथियारो की जरूरत पड़ेगी;  तेरे फलसफे , तेरी रूहानी बातें, तेरे किताबी विचार काम ना आएंगे | उसकी दुनियाँ शायद बहुत अच्छी होगी ,तब तो वो इतना soft है, normal है , unpolluted है और उसका काम चलता जा रहा है | And he is successful indeed! 

       और मैं अपनी दुनियाँ का लुटा-पिटा इंसान, जिसने खुद को खुश रखने के लिए अब सफलता के सारे पैमानों को नकारना शुरू कर दिया है | उस से रूबरू होने पर अब inferiority complex अन्दर आने लगती है मेरे ; शायद उस से अब jealous फील करने लगा हूँ |

        एक जगह का झगड़ा हो ,तब तो बताऊँ | सब जानते हैं कि  public मे अपने emotions, feeling, reactions express करने मे guarded होना चाहिए और मैं इसमे अब trained भी हो गया हूँ |और ठीक उसी जगह वो कानो मे सरगोशियां कर रहा होता है कि live your emotions, express yourself fully, react your self - अब ये भी कोई बात हुई भला | ऑफिस  मे हमें professionaly behave करना चाहिए ; Its matter of carrer and growth और सबसे  important तो ये है कि दाल-रोटी का भी जुगाड़ वहीं से होता है | और वो ज्ञान पेलता है कि तुम भी इंसान , वहाँ काम करने वाले भी इंसान , फिर simply इंसान रहो ना ; कुछ और क्यों बन जाते हो | अब इन्हे कौन समझाये दुनियावी तिलस्म के जंगल मे भूखे शेर का तो एक बार विश्वास कर लो, पर ऑफिस मे ऐसी गलती ना करना, जहाँ zero-sum-game सारे rule define करते हैं - एक का नुक़सान ही दूसरे का फायदा है !

          लिस्ट बड़ी लम्बी है , फुरसत मे ही पूरी हो पाएगी | अजीब सा संघर्ष है ,ऊहापोह बड़ी अजीब है | मैं case-specific deal करना चाहता हूँ , शायद compelled हूँ इसके लिए | और वो generalised treatment की बात करता है ; साले ने ज्यादा Marx पढ़ रखा है ,लगता है ! ऊपर से साला मेरे ही जैसे कपड़े पहनता है ,मेरी ही कद -काठी का है, दिखता भी मुझ सा ही है | हर रोज ऑफिस के लिए तैयार होते वक़्त उसे कमरे मे बंद कर आता हूँ , पर कौन सा जादू जानता है वो ,कि हर जगह पहुँच जाता है , जहाँ  कहीं भी मैं रहता हूँ | यार , परेशान हो गया हूँ तुझसे और तेरे इस कृष्ण बनने की कैफियत से | मुझे तो तू अर्जुन ही रहने दे , और वो भी गीता -ज्ञान से पहले वाला |

# ऊंघते-अनमने विचार

राखी की‌ टीस

त्योहारों का आना आजकल एक टीस सा देता फिरता है ; एक लकीर  सी खींचती चली जाती है | पर व्यक्त करना भी बस एक cliche का कोरस गान है ! 

सबकी वही कहानी है , चालीसवें के पूर्वार्ध से गुजर रहे सबकी कहानी का कमोवेश प्लाट भी समान है | दिल के गुबार तो सुनने पड़ेंगे ही; social media पर जीने के अपने terms & conditions हैं | 

हाँ तो भक्तजनों , पहले हजार कमी थी , पर त्योहार का इंतजार ज़रूर रहता था | स्कूल की छुट्टी का लोचा नही था ; उसके लिए तो बिहार बोर्ड के सरकारी स्कुलों के छात्र इच्छाधारी नाग थे | नये कपड़े भी नही मिलते थे, पकवानों की भी बहार नही रहती थी | बाबूजी के दिन भर घर पे रहने के अपने fallout थे | ना बहनों को इत्ते पैसे या Gift मिल पाते थे , ना भाईयों को अपने फुली जेब का कोई गुमान हुआ करता था | माँ शतरंज के इस खेल के दोनो ओर के मोहरे चलने मे माहिर हुआ करती  थी| वही पैसे देने को देती थी और वही उन्ही पैसो को अपने पास जमा भी करवा लेती थी | पर भाई लोगों कुछ तो होगा कि , उस पूरी-आलू की रसदार सब्जी-खीर वाले recipe का सच मे इंतजार रहता था !

आज भी बहनों के लिए दिल मे वही प्रेम का ज्वार है , बस ज्वालामुखी के मुहाने पे समय का भारी ढक्कन रखा है | दोनो बेटियों का अपने भाईयों को  राखी बांधने का उत्साह देख कर दोनो दीदी याद आ गई | फोन पे बात की, video call भी हो गया | कुछ तो अब भी missing है, जो वैसा मजा नही आ पाया | 

हमलोगों के बचपन के उन दिनों मे शायद बाबूजी भी वैसा ही सोचते होंगे, जैसा कि आज हम महसूस कर रहे हैं |उनसे पुछने की हिम्मत तो  नही जुटा पाऊँगा, सो मेरी theory को सच मान लेना|

क्या पता , शायद यही सच हो !
पीढ़ी  दर पीढ़ी यही हो रहा हो!

विद्वान या विद्यावान

*।।विद्वान या विद्यावान ।।*

विद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ।।

एक होता है विद्वान और एक विद्यावान । दोनों में आपस में बहुत अन्तर है ।इसे हम ऐसे समझ सकते हैं ।रावण विद्वान है और हनुमानजी हैं विद्यावान।

        रावण के दस सिर हैं और चार वेद तथा छः शास्त्र दोनों मिलाकर दस हैं ।

जिसके सिर में ये दसों भरे हों, वही दस शीस है ।

रावण वास्तव में विद्वान है, लेकिन विडम्बना क्या है? 

सीता जी का हरण करके ले आया ।कई  बार विद्वान लोग अपनी विद्वता के कारण दूसरों को शान्ति से नहीं रहने देते ।

उनका अभिमान दूसरों की सीता रूपी शान्ति का हरण कर लेता है ।

    हनुमानजी उन्हीं खोई हुई सीता रूपी शान्ति को वापस भगवान से मिला देते हैं ।

यही विद्वान और विद्यावान में अन्तर है ।

      हनुमानजी गये, रावण को समझाने। यही *विद्वान* और *विद्यावान* का मिलन है ।

हनुमानजी ने कहा --

विनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।

 हनुमानजी ने हाथ जोड़कर कहा कि मैं विनती करता हूँ । तो क्या हनुमानजी में बल नहीं है?
  ऐसा नहीं है ।

    विनती दोनों करते हैं, जो भय से भरा हो या भाव से भरा हो। रावण ने कहा कि तुम क्या, यहाँ देखो कितने लोग हाथ जोड़कर खड़े हैं ।

कर जोरे सुर दिसिप विनीता।
भृकुटि विलोकत सकल सभीता।।

    देवता और दिग्पाल भय से हाथ जोड़े खड़े हैं और भृकुटि की ओर देख रहे हैं । परंतु हनुमानजी भय से हाथ जोड़कर नहीं खड़े हैं ।

रावण ने कहा भी --

कीधौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही।।

   तुमने मेरे बारे में सुना नहीं है? बहुत निडर दिखता है । 

हनुमानजी बोले --यह जरूरी है कि तुम्हारे सामने जो आये, वह डरता हुआ आये? 

रावण बोला - देख लो, यहाँ जितने देवता और अन्य खड़े हैं, वे सब डर कर खड़े हैं ।

  हनुमानजी बोले --उनके डर का कारण है, वे तुम्हारी भृकुटि की ओर देख रहे हैं ।

भृकुटी विलोकत सकल सभीता।

  परंतु मैं भगवान राम की भृकुटि की ओर देखता हूँ । उनकी भृकुटि कैसी है? बोले ---

भृकुटि विलास सृष्टि लय होई।
सपनेहु संकट परै कि सोई।।

     जिनकी भृकुटि टेढ़ी हो जाय तो प्रलय हो जाय और उनकी और देखने बाले पर स्वप्न में भी संकट नहीं आता।

 मैं उन राम जी की भृकुटि की ओर देखता हूँ ।

रावण बोला - यह विचित्र बात है ।जब राम जी की भृकुटि की और देखते हो तो हाथ हमारे क्यों जोड़ रहे हो? 

विनती करउँ जोरि कर रावन।

 हनुमानजी बोले -यह तुम्हारा भ्रम है । हाथ तो मैं उन्हीं को जोड़ रहा हूँ ।

रावण बोला --वे यहाँ कहाँ हैं।

 हनुमानजी ने कहा कि यही समझाने आया हूँ । 

राम जी ने कहा था --

सो अनन्य जाकें असि
     मति न टरइ हनुमन्त।
मैं सेवक सचराचर 
      रूप स्वामि भगवन्त।।

   भगवान ने कहा कि सब में मुझ को देखना । इसीलिए मैं तुम्हें नहीं, तुममे भी भगवान को ही देख रहा हूँ । इसलिए हनुमानजी कहते हैं ।

 खायउँ फल प्रभु लागी भूखा।
                और, 
सबके देह परम प्रिय स्वामी।

   हनुमानजी रावण को प्रभु और स्वामी कहते हैं और रावण --

मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही।।

    रावण खल और अधम कहकर हनुमानजी को सम्बोधित करता है ।

    यही *विद्यावान* का लक्षण है। अपने को गाली देने वाले में भी जिसे भगवान दिखाई दें । वही विद्यावान है । 

विद्यावान का एक लक्षण कहा है-

विद्या ददाति विनयं
विनयाति याति पात्रताम ।

पढ़ लिखकर जो विनम्र हो जाय, वह *विद्यावान* और जो पढ़ लिख कर अकड़ जाय, वह *विद्वान।*

तुलसीदास जी कहते हैं -

बरसहिं जलद भूमि नियराये।
जथा नवहिं वुध विद्या पाये।।

   बादल जल से भरने पर नीचे आ जाते हैं, जैसे विचारवान व्यक्ति विद्या पाकर विनम्र हो जाते हैं ।

तो हनुमानजी हैं विनम्र और रावण है विद्वान ।

    *विद्वान कौन?*

कहा कि जिसकी दिमागी क्षमता तो बढ़ गयी परंतु दिल खराब हो, हृदय में अभिमान हो, 

और *विद्यावान कौन?*

कहा कि जिसके हृदय में भगवान हो, और जो दूसरों के हृदय में भी भगवान को बिठाने की बात करे।

हनुमानजी ने कहा --रावण ! और तो ठीक है, पर तुम्हारा दिल ठीक नहीं है । 

कैसे ठीक होगा? कहा कि --

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राज तुम करहू।।

    अपने हृदय में राम जी को बिठा लो और फिर मजे से लंका में राज करो। तो हनुमानजी रावण के हृदय में भगवान को बिठाने की बात करते हैं, इसलिए वे *विद्यावान* हैं ।
-संकलित

 सार :- *विद्यावान* बनने का प्रयत्न करें ।

     ।।जय हनुमान ।। जय श्रीराम ।।

नरभसा गए बाबू जी

बाबूजी अब और नरभसइया गए है। शरीर से तो कमजोर हो ही गए थे मन से भी कमजोर हो गए हैं। उनके इस जन्म के कर्म थे, भाग्य था, पढ़ाने की अपनी जिद थी कि बेटा तो डॉक्टर बन गया। लेकिन सचमुच में यह दैवीय प्रताप और उनके पूर्व जन्मों के संचित पुण्य कर्म ही थे, जो बहू धीरे-धीरे उनकी माँ में तब्दील होती चली गई!

हिंदुस्तानी पत्नियों की अटूट परंपरा को कायम रखते हुए माँ की शिकायतों का पुलिंदा अभी भी जारी है। इस उम्र में भी विश्वास है कि बोल-बोल कर पति को सुधार ही लेगी। मैंने फोन पर समझाया भी कि बेटा भी अब इस प्रक्रिया से immune हो चुका है, अब तो बाप को बख्श दो। लेकिन शायद यह पत्नी -धर्म का अभिन्न अंग है, इसीलिए जीते जी तो वह इसे नहीं छोड़ने वाली।

पिछले 3 महीने से मैं बाबू जी से झूठ पर झूठ बोले जा रहा हूँ  कि अगले महीने पूरे परिवार को लेकर पटना आऊंगा। इस महीने फिर से उसी झूठ को दोहराना है, क्योंकि अगले महीने से यह सच हो जाएगा। (दिसंबर में सही में जाना है!) कभी-कभी सोचता हूँ  कि अगर बाबूजी को भूलने की बीमारी नहीं होती तो....  तो कभी यह लगता है कि कहीं वह भूल जाने का नाटक तो नहीं करते, जिससे बेटे के झूठ का भरम भी बना रहे। 90+ की उम्र में भी उन्हें मेरी बेटियों के current क्लासेस याद है और परीक्षा के रिजल्ट भी पूछते रहते हैं!

करीब-करीब बेड पर ही पूरा दिन रात  गुजारना, लेकिन सारे परिवार वालों को याद रखना - यह एक अलग ही तरह की जिजीविषा और जीवंतता है। जन्मभूमि की याद उन्हें बरबस आने लगी  है और हर दसवें दिन पर ' महना' ( गाँव ) जाने की जिद पकड़ लेते हैं। भला हो बारिश का, कि एक permanent झूठ 3 महीनों से चलता आ रहा है कि रास्ते में बाढ़ आ गई। वह विश्वास कर भी लेते हैं और हर आने जाने वाले से इस बाढ़ की सत्यता के बारे में पूछते भी रहते हैं।

बाबूजी शुरू से ऐसे ही थे

सब कहने लगे हैं कि नब्बे के करीब पहुँचते पहुँचते बाबूजी अब पगला से गए हैं ; कुछ भी बोलते रहते हैं | भाभी बता रही थी कि अब  तो नींद की दवा लिए बिना सो भी नहीं पाते ; रात  रात  भर जगे रहते हैं और दिन मे भी नहीं सोते | दिन भर कुछ से कुछ बेसिर पैर का बोलते रहते हैं | कुछ अंजाने लोगो को , जो वहाँ है भी नहीं , उन्हे भगाते रहते हैं | खाने- पीने  की भी अब  सुधबुध नहीं रही है | 

पर बचपन से तो बाबूजी ऐसे ही थे मेरे | मेरे स्कूल के दोस्त उन्हे पागल ही बुलाते  थे , क्योंकि घर मे  दस- बीस मिनट गुजरने  के बाद वो उनको जाने का सिग्नल दे देते थे (पढ़ना नहीं है तुम सबको )| इसके बाद अगर पाँच मिनट और भी वो बैठ गए , फिर तो एक दौर शुरू होता था...... और इसकी परिणति माँ के डायलॉग से होती थी- "अब चुप भी हो जाइए, कुछ भी बोलते रहते हैं |" हाँ बाबूजी , मुझे भी यही लगता रहता था कि माँ बिल्कुल ठीक कह रही है | दोस्त बेचारे खिसक लेते थे मेरी तरफ तरस भरी निगाहें फेरते हुए |

और मैने तो उन्हें सोते हुए भी कम ही देखा है बचपन मे| मैं तो अपने समय पे सो जाता था और बाबूजी किताब लिखते रहते थे | सबेरे जब मैं जगता था , तब भी वो किताब लिखते ही दिखते थे ( नब्बे के दशक मे बिहार मे अधिकांश बी एड वाले बाबूजी की किताब पढ़कर ही मास्टर बनते थे)| और दिन मे तो SCERT थी ही उन्हे जगाये रखने के लिए | अब चालीसवें की शुरुआत मे मुझे इस गुड़ाकेशी का मर्म महसूस होने लगा है - घर चलाना उस जमाने मे भी मुश्किल ही होता होगा !

क्या बताऊँ , रविवार का दिन हमारे लिए बड़ा ही भयंकर होता था| सब भाई बहन अपनी अपनी किताबों से चिपके रहते थे |एक अजीब सी खामोशी फिजाओं मे बिखरी रहती थी| (बताना भूल गया था कि मेरे ISM मे admission लेने के बाद घर मे TV आया था और वो भी इसीलिए , क्योंकि मेरे बाद और कोई छोटा नहीं था|) सो कोशिश ये रहती थी कि हम बाबूजी जी को बोलने का कोई मौका ना दें| लेकिन पूरे पाँच थे , दिन भर मे गलती तो हो ही जाती थी... और फिर क्या था , पढ़ाई की जरूरत पर एक आख्यान तो बनता ही था| वो भी high level वाला, आखिर MA( Triple), PhD holder का भी अपना level तो होगा ही|

हमें पता हो या नहीं , घर मे आने वाले मेहमानों को हमारे Exam-Schedule का जरूर पता रहता था | जिनको ना हो और उन दिनो अगर वो घर मे धमक जायें , तो बाबूजी उनको अच्छे से feel करा देते थे | बेचारों की जबान हलक से चिपकी रहती थी , कि कोई बच्चा पढ़ने मे disturb ना हो जाए | कुछेक को तो घर से भगाने तक की भी नौबत तक आ गई थी | मेरे नानीघर वालो ने थोडी छूट लेने की कोशिश की थी, पर बाबूजी ने कोई लिहाज ना रखा ; बाकियों की तो कभी हिम्मत ही नहीं हुई | और इसमें माँ की मौन स्वीकृति का अब मतलब समझ मे आता है , जब दो  बेटियों का मैं पिता हूँ |

हमने खाने -पीने को लेकर जाने कितने नखरे किए हों , लेकिन बाबूजी ने आज तक किसी भी menu को लेकर कभी कोई शिकायत नहीं की| हम कहते भी थे कि बाबूजी का कोई खाने का शौक ही नहीं है , जो दे दो , खा लेते हैं | सुनके वो बस मुस्करा देते थे | वो तो बड़ी बुआ एक बार पटना आई थी , तो उन्होने बाबूजी के बचपन के किस्से सुनाए | तब पता चला कि उम्र बढ़ने से शौक खत्म होते जाते हैं !

मेरे बाबूजी शुरू से ऐसे ही थे ....

रद्दी का रावण

प्रतीक चिन्हों(symbols) का अपना एक अलग ही महत्व रहता है। वे असली सत्य के पास ले जाकर आपको छोड़ देते हैं और फिर यह आपके बुद्धि-विवेक पर निर्भर करता है कि आप सत्य की अतल गहराइयों में कितनी गहराई तक जा सकते हैं। जैसे बिना बिंब के प्रतिबिंब की परिकल्पना नहीं की जा सकती , ठीक उसी तरह से mythology में वर्णित कहानियाँ, उनके पात्र और प्रतीक भी आधारभूत जीवन मूल्यों और उसे निभाने के आधार को ही दर्शाते हैं। 

रावण जलते नहीं, उन्हें जलाना पड़ता है! हाँ, uncosciously वे खुद-ब-खुद निर्मित जरूर हो जाते हैं। वह हमारे अंदर बैठा अहंकार है, हमारे वजूद के दुनियावी रूप का आभासी परछाई मात्र। लोग हमारे अंतस को नहीं पहचानते, हमारे projected स्वरूप को जानते हैं। वही स्वरूप, जिसे हमने बड़ी ही शिद्दत से गढ़ा है। उस मायावी तिलस्म को तोड़ने के लिए कोई बाहर से शक्ति नहीं आएगी, हमारे अंतस के राम को ही उसे जलाना पड़ेगा। 

रावण तो परछाई मात्र है, सो उसके महिमामंडन में ना तो ज्यादा वक्त जाया करना चाहिए और ना ही उसे बनाने के लिए ढेर सारी मुद्रा। और इसी व्यवहारिक सत्य का ध्यान रखते हुए इस साल दशहरे के पावन अवसर पर निर्मित हुआ- "रद्दी का रावण"। जैसे अपने-अपने रावण को बनाने के लिए हम अपने अंदर के सारे दुर्गुण को एक साथ जमा कर लेते हैं, उसी तरह से इस बार के रावण को बनाने के लिए घर की जितनी बाकी रद्दी थी, वह काम आ गई। छोटा सा रावण बनाना बड़ा ही स्वाभाविक और self projection के लिए अनुकूल था, क्योंकि बड़े रावण बनाने का मतलब था कि अपने अंदर दुर्गुणों का भंडार दिखाना। और अंदर का राम इसके लिए allow नहीं करता!