खुद को मिटाने चला था /
कूदते-कूदते एक प्रतिबिम्ब दिखा ;
मेरा अपना सा लग रहा था ,
पूछ रहा था -
"मरना क्यूँ चाहते हो ? "
.....................................
.....................................
....................................
अनन्त बालुकाराशि / तपता सूरज /
वही प्यासा मृग / वही मरीचिका ;
छाया , किसी गैर की ,
पूछ रही थी -
" जीना क्यूँ चाहते हो ? "
.....................................
.....................................
.....................................
ना जीने का अर्थ जान पाया,
ना मरने का मर्म समझ में आया /
फलसफों में घुटता रहा,
ना जी पाया , ना मर पाया ।
Monday, June 4, 2007
Confusion
An engineer(IITian) by qualification, educationist by profession and mythologist by passion. He fathoms up to the deeper roots of mythological stories and wisdom enshrined in our Sanatana dharma texts like Vedas, Puranas, Epics and specially Gita. He is a naturally gifted speaker and enthrall the audience with the waves of his rhythmic intonation and way of story-telling.
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2 comments:
ज़िन्दगी की उलझनों में फ़से मन की व्य्था है ये.पर फ़लसफ़ा से आगे भी अनन्त तक जीवन-वायु प्रवाहित है.जीने और मरने के बीच की अनवरत यात्रा पर सारा जीव-जगत है.
--Dr.R Giri
उस तमन्ना को भूल जाइए...जीवन खूबसूरत हो जाएगा और बीच में नही लटकेंगे आप...बहुत खूब लिखते हैं वैसे...
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