Monday, June 4, 2007

Confusion

खुद को मिटाने चला था /
कूदते-कूदते एक प्रतिबिम्ब दिखा ;
मेरा अपना सा लग रहा था ,
पूछ रहा था -
"मरना क्यूँ चाहते हो ? "
.....................................
.....................................
....................................
अनन्त बालुकाराशि / तपता सूरज /
वही प्यासा मृग / वही मरीचिका ;
छाया , किसी गैर की ,
पूछ रही थी -
" जीना क्यूँ चाहते हो ? "
.....................................
.....................................
.....................................
ना जीने का अर्थ जान पाया,
ना मरने का मर्म समझ में आया /
फलसफों में घुटता रहा,
ना जी पाया , ना मर पाया ।

2 comments:

डाॅ रामजी गिरि said...

ज़िन्दगी की उलझनों में फ़से मन की व्य्था है ये.पर फ़लसफ़ा से आगे भी अनन्त तक जीवन-वायु प्रवाहित है.जीने और मरने के बीच की अनवरत यात्रा पर सारा जीव-जगत है.
--Dr.R Giri

गौरव सोलंकी said...

उस तमन्ना को भूल जाइए...जीवन खूबसूरत हो जाएगा और बीच में नही लटकेंगे आप...बहुत खूब लिखते हैं वैसे...