लाचारी
मुठ्ठी में आस्माँ समेटने की सोंची थी ,
कुछ भी हो -
’फ़लक कल्पना से बड़ा हो ,
या बस शून्य का मायाजाल ’
होना तो वही था -
सिवा सिफर के कुछ नहीं था मेरे पास /
हाथ खाली के खाली ही रहे ...।
अब,
अनन्त को बाँध सकता नहीं/
शून्य को समेट पाता नहीं ,
तरस आता है /
अपनी लाचारी पे -
"कूबत नहीं है जब ,
तो क्यूँ सोंचता है -
किसी को अपना बनाने को....,
खालीपन में जा भरने को किसी के/
या विस्तार में जा विलीन हो जाने को..।"
Sunday, June 10, 2007
लाचारी
An engineer(IITian) by qualification, educationist by profession and mythologist by passion. He fathoms up to the deeper roots of mythological stories and wisdom enshrined in our Sanatana dharma texts like Vedas, Puranas, Epics and specially Gita. He is a naturally gifted speaker and enthrall the audience with the waves of his rhythmic intonation and way of story-telling.
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