मैं अपनी मुर्दा नज्मों को
जलाता नही/
जमीन मे गाड़ता नही/
ताबूतों मे भी कैद नही करता ;
छोड़ देता हूँ/
नंगी जमीन पर
कागज का कफन पहनाकर ।
वक्त /
कभी उसके तन पर /
अपनी सारी गर्द -
सुर्ख या स्याह,
शोहरत या इल्जाम -
जमा कर/ममी बना देता है.....
तो कभी
चील-कौओ के हवाले कर देता है........।
काश!
मैं उन बेजुबान मुर्दों की
ख्वाहिश जान पाता......।
Monday, June 11, 2007
मुर्दों की ख्वाहिश

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