दिन मे सूरज उखड़ा-उखड़ा रहा,
रात मे चाँद भी रूठा सा रहा,
मैने जो माँग की,
अपने हिस्से के आसमां की ।
उड़ने की ख्वाहिश थी-
सो उड़ता रहा, भटकता रहा/
एक दिन /पैर टिकाने को
/जो थोड़ी सी जमीन माँगी /
वो भी अपने हिस्से की,
फिर सारे अपने नाता तोड़ गए,
संग जमीं के
वो भी मुझसे दूर हो गए..।
आज पैर हैं मेरे/
जमीन के कुछ उपर/
सर है आसमां के बहुत नीचे/
बीच मे लटका हुआमाँग रहा हूँ मैं-
अपने हिस्से की जमीं
अपने हिस्से का आस्मां.....।
Monday, June 11, 2007
अपना हिस्सा

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1 comment:
zindagi ke yatharth ko bahut hi sunder dhang se prastut kiya hai aapne ..mubaarak
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