विडम्बना - मेरे जीवन की!
त्रासदी -एक विकृत मन की!
शायद !
खुद को बन्द कमरे में
लोगो की भीड़ में /
पहचान कीख्वाहिश रखता हूं... ,
जहाँ-भर की दुकानों को कोसकर
बाजारू नजरों में /खुद
ही नुमाइश बनता हूँ... ,
विडम्बना नहीं !त्रासदी नहीं !
यह तो सच्चाई है -
अन्तर्द्वन्द में फँसे /
विरोधाभासों से घिरे/
लोग अक्सर ऐसा ही सोंचते हैं ।
एक अंधेरी सुरंग के बीचोंबीच खड़ा मैं -
इधर भी रोशनी है,
उधर भी रोशनी है,
इस पार आने को भी दिल मचलता है
उधर का जहाँ देखने का भी मन करता है ...,
विडम्बना ही है,
त्रासदी ही है ,
और ये सच्चाई भी है -
दो खण्डो में बँटे /आधे-अधूरे /
लोग अक्सर ऐसी ही /
दोहरी जिन्दगी जिया करते हैं ।
Monday, June 11, 2007
विडम्बना ,त्रासदी और सच्चाई

Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment