Thursday, June 21, 2007

चार सोपान : जीवन के

(१)

मैं एक ठेलेवाला,
जन्म लेते ही पता चला/कि
ठेला खींचना ही है/
मेरी नियति -
सो घर से निकाला ठेला/
सवारी नही थी कोई ;
खाली ठेला दौड़ाता जा रहा था ।

कुछ पल बाद आभास हुआ/
संग मेरे कोई / दौड़ते चल रहा है;
मैने हवा मे सवाल दागा,
जबाब आया-
मै हूँ तुम्हारी जिन्दगी...।

(२)

मै एक ठेलेवाला,
ठेला खींचना मेरा काम;
पर यूँ ही / कब तक /
खाली ठेला लेकर दौड़ता रहता ?

एक जगह रूका,
सवारी की तलाश मे/ नजरें दौड़ाई-
पर दूर तक कोई /
ठेले के इन्तजार मे/
कोई नही था !
लगा -
इस बस्ती मे /शायद / सबके पास /
अपने-अपने ठेले हैं ।

पर /
मेरा आत्म-दंभ !
एक मिथ्या अहं !
बाध्य कर रहा था / मुझे /
कोई बोझ लेने को,
खुद को साबित करने को -
सो/
खुद को बैठा /ठेले पर /
खींचना शुरू किया ।

कि/
जिन्दगी ने अपना पाला बदला,
मूक दर्शक अब मुखर हो गया
और मजबूर करने लगा/ मुझे
संग अपने दौड़ने को ।
मैने इन्कार किया,
अपनी ही चाल चलना चाहा,
कि-
अचानक बदन पे एक कोड़ा आ पड़ा,
दर्द की तड़प मे / मैने देखा -
जिन्दगी का हाथ /
हवा मे लहराकर /
वापस आ रहा था ।

(३)

मै एक ठेलेवाला,
खींचे जा रहा हूँ ठेला/
खुद को उसपे बिठाकर ।
कोशिश कर रहा हूँ/
साथ चलने की -
जिन्दगी के साथ /
जो बाजू मे दौड़ती जा रही है,
और रह-रह कर /
मेरी सुस्त चाल देख /
कोड़े बरसाती जा रही है ।

काश!
वो समझ पाती /
कि-
ये सुस्ती नही ,अशक्तता है ,
नाटक नही , विवशता है......।
काश!
मै भी ये समझ पाता
कि/वो
ये नही समझ सकती ........।

(४)


मै एक ठेलेवाला,
खींचे जा रहा था ठेला /
खुद को उसपे बिठाकर ।
पुरानी नीली धारियों पे/ स्याह-सुर्ख
लाल रंग आते जा रहे थे ,
मेरे तन पे/
कोड़ो के /नए-नए
निशान पड़ते जा रहे थे ।

बेचारगी थी ! मजबूरी थी !
सो/
जिन्दगी का साथ /
छोड़ नही सकता था,
पर यूँ जिन्दगी भर /
कोड़े भी तो /
खा नही सकता था ।

एक पल रूका....
जिन्दगी का कोड़े वाला हाथ/
जब तक /
हवा मे लहराता/
तब तक/
मै चढ ठेले पे,
एक ही लात मे/
गिरा दिया खुद को/
अपने ठेले से ।

फिर जिन्दगी मुस्करा दी....
ठेला दौड़ पड़ा.........।

उपसंहार

सोच रहा था -
गर मै ना होंऊँ ,
ये जिन्दगी भी ना हो,
और
हम दोनो को जोड़ती/ साँसो की
डोर भी गायब हो जाए -
तो/ इस
ठेले का क्या होगा ?

पर पुरखे कहा करते हैं -
ठेला तो यूँ ही रहेगा,
दौड़ता हुआ ........
अजल के पहले भी
अबद के बाद भी

2 comments:

Anita kumar said...

shrawan ji
badhaai de rahi hun dil se ..bahut dino baad itni badhiya rachna padhne ko mili hai

शोभा said...

श्रवण जी
पहली बार आपके ब्लाग पर आई हूँ । और हर्ष मिश्रित आश्चर्य में पड़ गई हूँ ।
आप बहुत ही अच्छा लिखते हैं । आपकी कविता ने मझे बहुत प्रभावित किया है ।
आपकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है । ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी प्रतिभा
को वो सम्मान मिले जिसके आप अधिकारी हैं । शुभकामनाओं सहित