(१)
मैं एक ठेलेवाला,
जन्म लेते ही पता चला/कि
ठेला खींचना ही है/
मेरी नियति -
सो घर से निकाला ठेला/
सवारी नही थी कोई ;
खाली ठेला दौड़ाता जा रहा था ।
कुछ पल बाद आभास हुआ/
संग मेरे कोई / दौड़ते चल रहा है;
मैने हवा मे सवाल दागा,
जबाब आया-
मै हूँ तुम्हारी जिन्दगी...।
(२)
मै एक ठेलेवाला,
ठेला खींचना मेरा काम;
पर यूँ ही / कब तक /
खाली ठेला लेकर दौड़ता रहता ?
एक जगह रूका,
सवारी की तलाश मे/ नजरें दौड़ाई-
पर दूर तक कोई /
ठेले के इन्तजार मे/
कोई नही था !
लगा -
इस बस्ती मे /शायद / सबके पास /
अपने-अपने ठेले हैं ।
पर /
मेरा आत्म-दंभ !
एक मिथ्या अहं !
बाध्य कर रहा था / मुझे /
कोई बोझ लेने को,
खुद को साबित करने को -
सो/
खुद को बैठा /ठेले पर /
खींचना शुरू किया ।
कि/
जिन्दगी ने अपना पाला बदला,
मूक दर्शक अब मुखर हो गया
और मजबूर करने लगा/ मुझे
संग अपने दौड़ने को ।
मैने इन्कार किया,
अपनी ही चाल चलना चाहा,
कि-
अचानक बदन पे एक कोड़ा आ पड़ा,
दर्द की तड़प मे / मैने देखा -
जिन्दगी का हाथ /
हवा मे लहराकर /
वापस आ रहा था ।
(३)
मै एक ठेलेवाला,
खींचे जा रहा हूँ ठेला/
खुद को उसपे बिठाकर ।
कोशिश कर रहा हूँ/
साथ चलने की -
जिन्दगी के साथ /
जो बाजू मे दौड़ती जा रही है,
और रह-रह कर /
मेरी सुस्त चाल देख /
कोड़े बरसाती जा रही है ।
काश!
वो समझ पाती /
कि-
ये सुस्ती नही ,अशक्तता है ,
नाटक नही , विवशता है......।
काश!
मै भी ये समझ पाता
कि/वो
ये नही समझ सकती ........।
(४)
मै एक ठेलेवाला,
खींचे जा रहा था ठेला /
खुद को उसपे बिठाकर ।
पुरानी नीली धारियों पे/ स्याह-सुर्ख
लाल रंग आते जा रहे थे ,
मेरे तन पे/
कोड़ो के /नए-नए
निशान पड़ते जा रहे थे ।
बेचारगी थी ! मजबूरी थी !
सो/
जिन्दगी का साथ /
छोड़ नही सकता था,
पर यूँ जिन्दगी भर /
कोड़े भी तो /
खा नही सकता था ।
एक पल रूका....
जिन्दगी का कोड़े वाला हाथ/
जब तक /
हवा मे लहराता/
तब तक/
मै चढ ठेले पे,
एक ही लात मे/
गिरा दिया खुद को/
अपने ठेले से ।
फिर जिन्दगी मुस्करा दी....
ठेला दौड़ पड़ा.........।
उपसंहार
सोच रहा था -
गर मै ना होंऊँ ,
ये जिन्दगी भी ना हो,
और
हम दोनो को जोड़ती/ साँसो की
डोर भी गायब हो जाए -
तो/ इस
ठेले का क्या होगा ?
पर पुरखे कहा करते हैं -
ठेला तो यूँ ही रहेगा,
दौड़ता हुआ ........
अजल के पहले भी
अबद के बाद भी
Thursday, June 21, 2007
चार सोपान : जीवन के

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2 comments:
shrawan ji
badhaai de rahi hun dil se ..bahut dino baad itni badhiya rachna padhne ko mili hai
श्रवण जी
पहली बार आपके ब्लाग पर आई हूँ । और हर्ष मिश्रित आश्चर्य में पड़ गई हूँ ।
आप बहुत ही अच्छा लिखते हैं । आपकी कविता ने मझे बहुत प्रभावित किया है ।
आपकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है । ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी प्रतिभा
को वो सम्मान मिले जिसके आप अधिकारी हैं । शुभकामनाओं सहित
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