Sunday, June 10, 2007

कब्र की मिट्टी

कब्र की मिट्टी
अंधेरी रातों मे / दफन होता मेरा सूरज/
चीखता है, चिल्लाता है,
आवाज जा उफक तक/ लौट आती है ।
कोई सुन पाता नहीं !
कोई जान पाता नहीं !

सुनेगा भी तो कौन -
मेरी धरती / ख्वाबों में /
अपने आसमान को,
उसी उफक पर/बस /
छू भर रही होती है ।

जानेगी भी तो क्या होगा -
फ़कत रस्मोंअदायगी को/
स्वप्निल बन्द आँखें लिए/
अपना सर ढँके/
डाल आएगी / उसकी कब्र पर /
ताजी भुरभुरी मिट्टी ।

उसे क्या पता है -
जागेगी नींद से जब वो/
आँखे खोलने ना पायेगी ।
पलकों पर जो रखी है/
वही/ उसकी अपनी/
ताजी भुरभुरी मिट्टी ।

1 comment:

प्रवीण परिहार said...

श्रवण सिह जी,
बहुत बढीया।