कब्र की मिट्टी
अंधेरी रातों मे / दफन होता मेरा सूरज/
चीखता है, चिल्लाता है,
आवाज जा उफक तक/ लौट आती है ।
कोई सुन पाता नहीं !
कोई जान पाता नहीं !
सुनेगा भी तो कौन -
मेरी धरती / ख्वाबों में /
अपने आसमान को,
उसी उफक पर/बस /
छू भर रही होती है ।
जानेगी भी तो क्या होगा -
फ़कत रस्मोंअदायगी को/
स्वप्निल बन्द आँखें लिए/
अपना सर ढँके/
डाल आएगी / उसकी कब्र पर /
ताजी भुरभुरी मिट्टी ।
उसे क्या पता है -
जागेगी नींद से जब वो/
आँखे खोलने ना पायेगी ।
पलकों पर जो रखी है/
वही/ उसकी अपनी/
ताजी भुरभुरी मिट्टी ।
Sunday, June 10, 2007
कब्र की मिट्टी
An engineer(IITian) by qualification, educationist by profession and mythologist by passion. He fathoms up to the deeper roots of mythological stories and wisdom enshrined in our Sanatana dharma texts like Vedas, Puranas, Epics and specially Gita. He is a naturally gifted speaker and enthrall the audience with the waves of his rhythmic intonation and way of story-telling.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
श्रवण सिह जी,
बहुत बढीया।
Post a Comment