Sunday, June 10, 2007

मैं नहीं रोया

मैं नहीं रोया
आँखे खोली /
काली रात , स्याह पन्ने /
अरमान दफन हो गये / अन्धेरे का कफन ओढे /
उसी अन्धेरे में / धुल गई परछाईयाँ भी/
सपनों की मेरे .......।
फ़लक मेरा स्याह था,
सारा चरागाँ जो बुझ गया था..।

मेरे आँगन का चाँद /
दस्तक दे रहा था , किसी गैर दरवाजे पे/
परित्यक्त निशा को छोड़ गया
मेरे घर पे .........।

अंधेरे में कुछ बूँद आ टपके-
सोये से जागा मैं , फिर /
दिल को तसल्ली दे ली -
"रात ही रोई होगी बेचारी/
अपने चाँद के लिए .....,
साँसों के तार बन्धे हैं जिसके संग /
सजाता है आँखों में जो ख्वाबों के रंग /
उसी जान के लिए,
अपने चाँद के लिए.......।"

"रात ही रोई थी सचमुच !
मैं कैसे रो सकता हूँ /
इन्सान हूँ जो....,
बचपन से ही सिखाया गया है-
जो दूसरे की है , वो अपनी नहीं हो सकती /
हाँ , गर अपनी गैर की हो जाए ,तो
रोना नहीं , आँसू दिखाना नहीं /
इन्सान तो दूसरों के वास्ते ही जीता है ,
वरना हैवान ना कहलाता वो .......।"

"वो क्या जाने बड़ी-बड़ी बातें -
वो तो हँस जाती है खुशी में ,
गीली हो उठती है गम में /
कितनी भोली है, शायद सुखी भी,
अपनी खुशी खुद जी पाती है,
अपना रोना खुद रो पाती है ।"

सच में अब लगने लगा है -
रात ही रोई थी शायद ।

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