बचपन में /याद है/ यूँ ही/
सादे कागज पे,
कुछ चेहरे बनाता था मै.....।
वो चेहरे -
कुछ लगते थे मुस्कराते/
कुछ गम के गीत गाते..।
ओठ उपर को खींच देता/
जब लगने होते थे हँसते ,
उलट नीचे को खींच लेता/
जब चेहरे थे रोते होते ।
थी इक बात /
पर उनमें ,
या तो वो खुश रहते /
या होते थे गम मे रोते ..।
आज याद आया /फिर से /
बचपन का वो शगल ,
कागज लिया /कलम उठाई /
मेरा मन उठा मचल ,
बनाने बैठ गया मैं चेहरे -
गोला इक खींचा/आँखे जड़ दी /
नथुनों के फैलाव बनाए।
जब ओठो की बारी आई,
बस/
सीधी रेखा सी खींच आई।
सीधी स्मित रेखा -
जो ना जा उपर /
मुस्कराहट का गुमान देती ,
ना नीचे मुड़ /
बेइंतहा गम का पैगाम देती।
कैसे बनाऊँ अब चेहरे/जो
बयाँ कर ना पाते हों /
खुद को ,
कोई अक्स बनने ना पाता है/
सामने आइने के करो गर/
उनको।
गलती नहीं है उनकी यारों /
चित्रकार ही ठहर गया है ,
दर्पण मे मैं नही दिखता /
वो बच्चा शायद मर गया है ।
Wednesday, June 13, 2007
बचपन

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4 comments:
बहुत सुंदर कविता है।
ji...bachpan chootetey chootetey hum sab ek mukhota jo pehan lete hein aur apni bhavnaaon ko chupaane ki aisi aadat padh jaati hai ki fir bhaavnaayein hi mer jaati hain.mukhoton ke peeche unka dum ghut jaata hai ..aap bahut hi sashakt kavi hain..plz likhte rahiye
just beautiful.....
श्रवण जी
आप बहुत अच्छा लिखते हैं फिर हिन्द युग्म पर आपकी कविता पढ़ने को क्यों नहीं मिलती ? कहीं वो
भी तो उस चित्र की तरह गायब नहीं हो गई है ? इतना अच्छा लिखते हैं इसीलिए मैं चाहती हूँ कि हिन्द युग्म
पर नियमित कविताएँ भी भेजें ।
शुभकामनाओं सहित
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