Sunday, June 10, 2007

विवशता

विवशता
समाज की नंगी तस्वीर जो देखी ,
मुठ्ठियाँ कसी , नथुने फूले ,
रगों में लावा सा दौड़ने लगा ।
रक्ताभ आँखों ने सच्चाई देखी ,
भीड़ के सामने मैं अकेला खड़ा था...।
मैं निहत्था ,वे जत्थेदार हथियारबन्द ,
चारो ओर से बढता कोलाहल-
डर लगने लगा और
यथार्थ ने ला धरती पे पटका .....।

माथे पर सिलवटें पड़ी ,
मुठ्ठियाँ खुल गई ,
हथेलियाँ जुड़ गई
और सर उन पर टिक गया...।
क्या करता -
विवशता दस्तक दे चुकी थी...।

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