हर सुबह और शाम
शुरू होती है प्रक्रिया -
अंगीठी जलाने की ।
सुलगा उसे/
अपने घर के
बाहर निकाल रख देता हूँ,
फिर धुँआ
पड़ोसी की खिड़की पार कर
उसकी सुबह कुछ साँवला बना देता है,
शाम का थोड़ा अंधेरा बढा देता है...।
पर भले हैं वो,
कुछ नही कहते,
शायद /
आदत पड़ गई है उन्हे-
इसी तरह जीने की,
उस धुँए को साँस लेने की.....।
कुछ ज्यादा दग्ध हो जाता हूँ /
जबअंगीठी तपने लगती है पूरी -
फिर जलते कोयले निकाल /
कागज मे रखता हूँ,
औरबाहर फेंक देता हूँ ...।
यकीन मानों !
वो कागज खुद नही जलते,
जलते कोयले / अपने तन पे संजोए/
सबको जलाते रहते हैं ।
बाहर दुनियाँ तपती जाती है,
अन्दर अंगीठी ठंढाती जाती है...।
Monday, June 11, 2007
मेरा मस्तिष्क : मेरे विचार

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1 comment:
hahahahahah bahut khoob shrawan ji ..yeh padhosi aapke students toh nahi..bechare is thandi hoti anghithi se tap jaate honge aur uff tak na ker paate honge...badhiya upma hai
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