दिन मे सूरज उखड़ा-उखड़ा रहा,
रात मे चाँद भी रूठा सा रहा,
मैने जो माँग की,
अपने हिस्से के आसमां की ।
उड़ने की ख्वाहिश थी-
सो उड़ता रहा, भटकता रहा/
एक दिन /पैर टिकाने को
/जो थोड़ी सी जमीन माँगी /
वो भी अपने हिस्से की,
फिर सारे अपने नाता तोड़ गए,
संग जमीं के
वो भी मुझसे दूर हो गए..।
आज पैर हैं मेरे/
जमीन के कुछ उपर/
सर है आसमां के बहुत नीचे/
बीच मे लटका हुआमाँग रहा हूँ मैं-
अपने हिस्से की जमीं
अपने हिस्से का आस्मां.....।
Monday, June 11, 2007
अपना हिस्सा
An engineer(IITian) by qualification, educationist by profession and mythologist by passion. He fathoms up to the deeper roots of mythological stories and wisdom enshrined in our Sanatana dharma texts like Vedas, Puranas, Epics and specially Gita. He is a naturally gifted speaker and enthrall the audience with the waves of his rhythmic intonation and way of story-telling.
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1 comment:
zindagi ke yatharth ko bahut hi sunder dhang se prastut kiya hai aapne ..mubaarak
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