Wednesday, June 13, 2007

आँगन

अपने आँगन में बैठा/
अमरूद की छाह तले /
सूरज की किरणो से/ आँखमिचौली
खेलता था मै,
चटाइ के गलीचे पे लेटा/
चाँदनी की बारिश मे / भींगता -भींगता
नहाता था मै ।

पता नही कब/
वक्त की कारीगरी ने/
डाल दिया एक छत
मेरे आँगन के उपर/
और
मुझसे मेरा आँगन छिन लिया....।
काश वो जान पाता / कि
छत आसमान नही होता है,
उसमे चँदा और सूरज नही उगते हैं...।

अब / आसमान को देखने के लिए /
धूप और चाँदनी से मिलने के लिए/
मुझे घर के बाहर
आना पड़ता है-
असुरक्षा का लबादा पहने/
जमाने से नजरें चुराए।

कल लेटा-लेटा /
छत के पार के आसमान को /
देखने की कोशिश कर रहा था ,
कि
एक पंछी आया/
कानो मे बोल गया -
मेरा खुला आस्मां लौटा दो....,
कि
एक बच्चे ने मुझे
झकझोड़ कर जगाया -
मेरा वाला आँगन लौटा दो....।

तभी /घरवाले बोल उठे -
"ये क्या आँगन मे पड़े रहते हो/
कोइ पंछी हो या बच्चे हो "
एक आवाज मेरे अंदर गूँजी-
"नहीं !
मैं छत वाले आँगन
का बाशिंदा हूँ/ और हाल ही में/
एक पंछी और एक बच्चा /
कहीं दूर दफना आया हूँ ।"

3 comments:

उन्मुक्त said...

अच्छी कवितायें हैं।

Archana Gangwar said...

shravan ji......
lajawab prastuti hai.....

chet aasman nahi hoti...
unme chand aur taare nahi uga kerte.......
hamare ander ka bahut bara sach hai......jisko hum her shaam sula dete hai......lakin vo baar baar jaag jata hai......
aapki rachna ko parne ke baad meri nazer apni chet per lagaye artificial taaro per chali gai ....jo raat mein chamkte hai.......yaani hum taroo se door rahena nahi chahte.......

Anita kumar said...

shrawan ji

bahut khoob...mubaarakbaad sweeekar karein