Monday, December 24, 2007

खुदा की नेमते

एक दुआ कबूल हुई....
किया था जिसे/किसी और ने/
किसी और के लिए।

खुदा जगा / तैयार हुआ/ हाथ
नेमतों के बोरे मे डाले
और / दोनो मुठ्ठियाँ भर/
निकल पड़ा-
’हैव्स’ की बस्ती मे/ किसी घर के/
छप्पर की छाती चीर/
अपने हाथ खाली करने को।

खुदा था;जमीं के उपर का था/
और क्या कहूँ?
जमीं के उपर चलता भी था।
मंजिल देखने को/नीचे निगाह दौड़ाई,
दिखा जो/
हिकारत से नजरे वापस फिर आई-
एक पिलपिलाती, गंधाती
अपने ही बच्चों से बिलबिलाती/
टूटे झोपड़े,मरियल लोथड़े,
गरीबी थी,बेचारगी थी,
एक अन्चाही सी अवारगी थी-
एक’हैव्स-नॉट’की बस्ती
कातर निगाहों से उपर देख रही थी,
और अपने आप ही/खुद के लिए/
दुआएँ भी माँग रही थी।

कोफ्त हुई देखनेवाले को/
इस जिल्लत को देखकर,
पात्रता की कसौटी कसी/उसने मुठ्ठी भींच ली/
और कसकर।
पर नेमते तो सूखी रेत होती हैं,
जितना जकड़ो/ कसमसा उठती है,
कैद से फिर निकल पड़ती हैं-

सो खुदा की/
अँगुलियों के पोर के
चन्द झरोखे खुले / और
नेमते कुछ/
इधर-उधर छिटक गई।

खुदा को कुछ आभास हुआ,
मुठ्ठी हल्की होने का भास हुआ,
पर जो सब कुछ ना कर सके,
वो खुदा ही क्या हुआ-
जमीन पर पहुँचने के पहले/
सारी छिटकी नेमते/
सिफ़र हो चुकी थी।

मै भी खुदा के हाथ से छिटकी एक नेमत हूँ............।

1 comment:

रश्मि प्रभा... said...

आपने अपने विषय मे जो लिखा है,दिल इसी तरह सोचता है.......तभी तो कलम हाथ में होती है.
खुदा की नेमत बहुत अच्छी लगी