Monday, December 24, 2007

बुतरखौकी

लम्बे-लम्बे कदमों से मानो दौड़ते हुए उसने गलियारा पार किया और वहीं सीढियों पर कोने मे बैठ गई।मुठ्ठी की गरमाहट अब तक पूरे बदन पे छा चुकी थी; मन मे हँसी भी वो- क्या कहेगा कोई? देह पूरा तप रहा है।कहीं बुखार तो नहीं हो आया । थर्मामीटर लगेगा,माथे पर पट्टी डालेगी मुन्नी की मैया ,मुन्नी तो चुपचाप कोना मे जा कर रोएगी। रामधनवा तो घबरा ही जाएगा, जल्दी से जा कर उ दवाई दुकान वाले डाक्टर को रिक्शा पर बैठा कर ले आयेगा।उ क्वैक (इस शब्द पर उसने अपनी पीठ ठोकी।अब वो भी तो ये सब जान गई है!) ......... साला क्वैकवा हजार नौटंकी करेगा, नब्ज देखेगा,बीपी नापेगा, स्टेथो लगाएगा। मुन्नी की मैया तब तक रूआँसी होकर बोलेगी-
"पारा १०२ को भी पार कर गया।"
"अब तो दवा भी काम नही करेगी।अब तो इन्जेक्शन लगाना होगा।"
क्वैक की आवाज उसके कानों मे हथौड़े सी बजी और देह मे झुरझुरी सी दौड़ गई;बचपन से ही सूई लगवाने से डरती थी वो।सारे विचार इसी थपेड़े मे बिखर गए और वापस वो अपने आप मे आ गई। मुस्कुरा कर मन ही मन में उठी ,होठो के कोर भी रोकते-रोकते थोड़े फैल ही गये। बेमतलब मे कितना सोच लेती है वो । अपने आपको संयत करते हुये उसने राहत की साँस ली।मुठ्ठी अभी भी नोटों की गरमाहट को कैद किए थी।

आने-जाने वाले की ओर पीठ करके एकदम से कोने में वो बैठ गयी और मुठ्ठी खोलकर पाँचो नोटो को दो बार गिना। बीस बीस के पुराने नोट थे ;गाजरी रंग थोड़ा फीका और स्याह सा हो उठा था।पर यही तो है गांधी बाबा की महिमा - नया पुराना सब एक सा होता है, कड़-कड़ा हो, तुड़ा -मुड़ा हो,सब एक जैसा काम करता है। पर कटे-फटे नहीं,नहीं तो गांधी बाबा गुस्सा जाएँगे! रोकते रोकते इस सोच पर हँसी भी आ गयी उसे। पर इसका भी इलाज है;रामधनवा बता रहा था कि चौक पर कटे-फटे नोट बदले जाते है,लेकिन दस रुपये सैंकड़ा काटता है।उसने हिसाब लगाया और घबरा गई-
’बाप रे हर बीस टकिया पे दू-दू रुपया ।मतलब पाँच नोटो पर दस रुपये;खाली नब्बे ही बचेंगे।’
सिहर सी उठी वो,पर अगले ही क्षण संभल गई। पांचो नोटो को एक एक कर खोल कर आगे पीछे देख लिया,फिर गिना- बीस..चालीस...साठ..अस्सी..सौ..पुरे-एक सौ रुपये!रामजी,किशन जी,दुर्गा माँ, काली माँ, हनुमान बाबा सबको मन ही मन गोर लगा।
’ ऐसे ही बरकत दिहो देवा।’
उसने पाँचो नोटो को जतन से मोड़ा और फिर आँचल की छोर में रखकर गांठ लगाने लगी।अचानक कुछ याद आया और दाँतो से जीभ को काट लिया-
’बाप रे! इतनी बड़ी भूल!- शंकर जी छूटिये गए।उ गुस्साहा भी हैं।सब कमाईया खत्म करवा देंगे।’
उसी मनोवेग में पास रखे कैक्ट्स वाले गमले पर सिर टिका दिया मानो शिवलिंग हो।फिर मन को दिलासा दिया-
’ अच्छा भोले बाबा तो भोला है।अगले सोमवार को तीन तीन पत्ता वाला बेलपत्तर चढा आएगी रोड के बीच वाले मन्दिर में,फिर तो उ खुश हो ही जाएँगे।सोमवार को भीड़ो रहता है हुआँ पर।रोड तो दू घन्टा पुरा जाम हो जाता है।’
भोले के भक्तों के दमकते चेहरे,ट्रैफिक जाम में फँसे लोगो के खीझते ,बड़बड़ाते चहरे और उ टोपी वाला उजला ड्रेस वाले सिपाहिए का बेचारगी से भरा चेहरा- सब एक साथ आँखों के सामने घूम गया.....इन विचारो को झटक कर आँचल की गाँठ को कमर में खोंसा और उठ खड़ी हुई।
’ क्यूँ सोचती है वो इतना?आज इतनी उपरी कमाई हुई है और वो बेमतलब में परेशान हो रही हैं।’
नोट देते हुए कम्पाउन्डर बाबू ने भी तो मुँछो से मुस्कराते हुए मिठाई माँगी थी।
’ मरे मुंहझौसा।ऐसा काम करूँ मैं ,पाप लगे मुझको और दुश्मनवा के मुँह मे मिठाई कोंचूँ।’-
पाप काटने के लिए उसे फिर से भोला बाबा याद आ गए,जो केवल बेलपत्तर मे खुश हो जाते हैं।

घर का रास्ता तो उसे इस तरह याद हो चला था कि आँखे मूँद कर भी वो नर्सिंग होम से घर पहुँच सकती थी।सीधे चलो,पीपल के पेड़ से आगे जाकर बाँए मुड़ना है,बाजार पार करते ही बोर्ड दिखने लगता है-इंदिरा आवास वाला।उसी के इक्कीस नंबर वाले एक कमरे को वह,रामधन,मुन्नी और मुन्नी की माँ घर कहते थे।और क्या,घर थोड़े ही ईंट-पत्थर, सीमेंट-बालू का बनता है।वो तो साथ मे रहने वाले के आपसी प्यार की निशानी है।
’सब कितना प्यार करते हैं एक दूसरे से; कितना खुशहाल घर है उसका।’
उसने फिर से जीभ काट ली।
’कहीं अपनी ही नजर ना लग जाए!अच्छा,घर जाकर दरवाजा के उपर काजल का टीका कर देगी और हनुमान बाबा के फोटो पर अगरबत्ती।’
अचानक अगरबत्ती की सुगंध उसे कहीं से आई।शनिवार का दिन था और शाम को पीपल पर कोई श्रद्धालु जल चढाकर अगरबत्ती खोंस गया था।

पेड़ से सटे-सटे एक कच्ची पगडण्डी निकली थी,जो निगाह ओझल होने तक झाड़-झँखार से छिपी हुई मालूम पड़ती थी।बड़े-बड़े पेड़ भी थे,जो रेलवे लाइन तक फैले हुए थे।रेलवे वालो की जमीन थी,सो कुछ बन नही रहा था और उस छोटे से शहर मे सब इसे जंगल पुकारा करते थे। बच्चे डरते थे;बड़े डराते थे-इसी जंगल के नाम पर,इसमे रहने वाले शेर-बाघ-चीता के नाम पर। औरते डरती थी;औरते डराती थी-भूत-प्रेत के नाम पर,जो दिन-भर तो जंगल मे अल-मस्त घूमते थे और रात मे पीपल के पेड़ पर रैन-बसेरा करते थे।सुखिया को हँसी आ गई-
’झूठ बोलते हैं सब। अभी तक इतने सारे दिनो से उसी कच्चे रास्ते से जंगल में गई है वो, ना कोई जानवर दिखा है ना कोई भूत प्रेत।आज भी तो गई थी वो बड़े से पोलिथीन के थैले को कुँए मे डालने उसी रास्ते से, कहाँ कुछ हुआ था।’
वो कुआँ उस जंगल का सबसे डरावना पहलू था,जिसके बारे में कई बाते प्रचलित थी।उनमे सबसे ज्यादा मान्य दो थी- एक तो कि आजादी के बाद सुभाष चन्द्र बोस उस जंगल मे छुप कर रह्ते थे और कुँए मे आजाद हिन्द फौज का खजाना छुपा रखा था। और दुसरे कि भूत-प्रेत के बच्चे और स्त्रियाँ वहाँ नहाया करती हैं।भय का वजूद लालच को ग्रसे हुए था और लोग प्रायः उस कुँए से डरते ही थे।कुछ साह्सी निठल्लों ने कोशिश भी की थी पर अपनी नाकामी छुपाने के लिए एक तीसरी - मध्यममार्गी - मान्यता जनप्रिय कर दी कि नेताजी की आत्मा खजाने की रक्षा कर रही है।कुछ बड़बोलो ने तो आत्मा को कांग्रेसी टोपी भी पहना दी।शहर ले नेताजी के सफाचट और दाढीजार चेहरे को लेकर भयानक मतभेद पैदा हुए।
’खैर उसे इन सबसे क्या।’-
गले मे पड़े हनुमान बाबा के ळॉकेट पर हाथ लगाया और श्रद्धावश आँखे मूँद ली।मन मे दुहराते हनुमान जी की जय की आवाज बस की पों-पों के आगे फीकी पड़ गई और उसने पाया कि चौराहे तक वो पहुँच चुकी थी।

बाँए मुड़ते के साथ निर्णय ले लिया उसने कि अब कुछ फालतू नही सोचना है।इत्ती बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ चलती है रोड पर।कुछ हो गया,फिर सबका क्या होगा?रामधनवा बेचारा कितना रिक्शा खींचेगा? मुनिया की मैया कहाँ तक साहब लोगो के यहाँ जाकर बरतन-बासन करेगी? उ भी तो जवान-जहान है और साहब लोगो की नजर - हाय दैया! कितने निर्ल्लज और पापी होते हैं सारे। सब गरीबन मरद उनका गोर चाटे और उन सबकी जोरू उनका बिस्तर गरम करें - यही सोचते हैं ना इ साहब लोग। मुँहझौंसा,कैफट्टा,दुश्मनवा,जोनजरनवा....
.......गालियों की लम्बी कतार को एक गाड़ी के हार्न ने तितर-बितर कर दिया।वो सड़क के और किनारे हो आई और विचारो की एक नई श्रँखला आकर जुड़ गई-
’नही देवा।कुछ ना करिया हमरा के।परिवार के नास हो जैतै।’
मुन्नी की पढ़ाई छूट जाएगी।पढ़ेगी नही,तो मेम कैसे बनेगी;फिर साहब से उसका बियाह कैसे होगा?साहब लोग तो शादी मे दहेज कितना माँगता है।उसी को तो वो जोड़ रही है;सारा पाप इसी के लिए तो वो कर रही है।कल ही पोस्ट-ऑफिस जाकर इ पैसा जमा कर आएगी।मेम बनी मुन्नी और उसका साहब दुल्हा- दोनो की जोड़ी को उसने अपने पैरो पर झुकते पाया और मन ही मन आशीर्वाद भी दे डाला।

"दू ठो चाकलेट दे देना।"उसने रामेसर साव की दुकान पर खुद को बोलते हुए सुना।
’हमेशा एक लेने वाली को ये क्या हो गया है आज।लगता है बुढ़िया भी एक खाएगी।’-
साव जी ने मुस्कराते हुए एक रुपए की माँग पेश कर दी।आग लगे इस महँगाई को - सोचते-सोचते वो घर पहुँच गई। मुन्नी दरवाजे पर ही खड़ी थी,आकर गले मे लटक गई।गोदी मे ले चूमते हुए दोनो चाकलेट उसे दे दिए। पानी लेकर लक्ष्मी जैसे ही आई कि अपनी माँ को देखते ही मुन्नी गोद से उतर कर भाग गई।उसे डर था कि एक चाकलेट वो कहेगी बचाकर रखने को - बेला-बखत के लिए।लक्ष्मी बचा-बचाकर घर चलाती है;बस्ती मे सब लोग इसकी तारीफ करते हैं और सुखिया भी इसीलिए निश्चिंत रहती है।नही तो आजकल की बहुएँ तो,बस चले तो फैशन-पट्टी मे घर फूँक दे!

पैर-हाथ धोकर खटिया पर बैठी ही थी कि रामधन के रिक्शे की चों-चों,चाँय-क्राँय सुनाई दी। घर के आगे सड़क पर रिक्शा लगा रहा था। पड़ोस वाले मना भी करते हैं,तब भी वो वहीं लगाता है। पहले-पहल बस्ती के पार्क मे लगाता था,रोज कोई न कोई उपद्रव। कभी टायर पंक्चर,तो कभी सीट फाड़ दे कोई। उधर गाय-भैंस बँधी रहती है,उनके सींग मारकर गाड़ी पलटने का डर। चाय पीते-पीते सुखिया को उसने बताया कि चार बजे के करीब उसके नर्सिंग होम मे एक जचगी का पेशेंट लेकर गया था वो।
"तों कहाँ गेल हलहि? हम खोजबो करलिअय।"
सुखिया कुछ बोलने ही वाली थी कि मुन्नी को सामने देख एकदम से चुप लगा गई।लक्ष्मी ने ही अपने मरद को टोका-
"इ का पुलिसिया जैसा पूछ रहे हैं। एतना बड़ा हॉस्पिटल है,गई होंगी कहीं काम से।"
हाँ, काम से ही तो गई थी वो!पर क्या बताए? कौन सा काम!....उसने हनुमान जी के फोटो की तरफ मुँह घुमा लिया।

फोटो मे छाती चीरे वानरदेव जय श्रीराम की उदघोषणा कर रहे थे।बाप रे,आम आदमी का सीना चीरो,तो बलबल खून फेंकने लगेगा।बेहोश करो,टार्टर डालो,टाँका मारो,एंटीबायोटिक खिलाओ,पानी चढाओ,खून दो,विटामिन दो..... कितना नौटंकी है! यहाँ देखो,मजे मे फाड़ डाला छतिया को और राम-लखन दिखाय दिया। मजे हैं हनुमान बाबा के,बगल वाला फोटो मे कँधा पर दोनो भाई को बिठाए थे और छाती पर टाँका का कोई निशान नही।’सब प्रभु की माया है’- उसने श्रद्धावश अपने हाथ जोड़ लिए।बजरंगबली की आवाज कानो मे गूँजती सुनाई दी-
"तू मत घबरा।मै जानता हूँ, अपने परिवार के लिए ये सब कर रही है।मैं तेरे पापो को हर लूँगा।"
भक्त-प्रभु सम्वाद अभी चल ही रहा था कि मुनिया आकर देह पर लद गई-
"दादी,कहानी सुनाओ ना।"
"जा पहले खाना खा ले।अरी लक्ष्मी,हमर रनिया के खाना दे दहो।"
रानीजी ने मुँह फुला लिया।सुखिया ने उसे पेट पर बिठा लिया और पुचकारने लगी-
"रात मे सुनैबै कहानी।खूब्बे सारा।बढ़िया वाला।"
फिर कान मे धीरे से पूछा-"अलिया-झलिया करभि अभी?"
उत्तर की बिना प्रतीक्षा किए अपने घुटनो को मोड़कर मुन्नी को दोनो तलवो पर बिठा लिया और झुला झुलाने लगी।दादी के घुटनो पर सिर टिकाए मुन्नी का चेहरा खिल उठा।चारपाई की चूँ-चूँ के पार्श्व-संगीत के साथ घर मे गीत उतर आया-
"अलिया गे,नुनु झलिया गे,
गोरा बरद खेत खइलखुन गे,
कहाँ गे? डीह पर गे।
डीह के रखबर के गे?
बाबा गे। बाबा गे।"
गीत के साथ झूलती हुई मुनिया ने भी दादी के साथ सुर मे सुर मिला लिया-
"बाबा गेलखुन पूरनिया गे,
लाल-लाल........
कोल्हू पर.........
..............
सास के गोर लगलखुन गे।"
मुन्नी की आवाज तेज होती जा रही थी-
"बड़की के तेल-सिन्दूर,छोटकी के झोंप्पा,
उठ रे बुलाकवाली, देख ले तमाशा...."
झूलने का अब सबसे रोमांचक और आखिरी दौर होने वाला था।मुन्नी ने खिलखिलाना शुरू कर दिया।
"नया घर उठो,पुराना घर गिरो..
नया घर..............
नया................ "
हर घर उठने-गिरने के साथ साथ मुन्नी भी उठती-गिरती जा रही थी और उसकी हँसी की आवाज बढ़ती जा रही थी। सुखिया भी हँस पड़ी।

पूरा घर दोनो की हँसी से भर गया था। तब तक लक्ष्मी घी लगी रोटी और आलू की तरकारी एक थाली मे मुन्नी के लिए दे गई। एक-एक छोटे कौर मे मन-मन भर के वादे भरकर सुखिया खिलाने लगी। मुन्नी गोद मे जितना ही मचलती,वो उतना ही मनुहार करते जाती। रोटी खत्म होने तक दूध की कटोरी रख गई थी लक्ष्मी। दूध पीना मुन्नी को सबसे खराब काम लगता था और उसे पिलाना दादी को सबसे बड़ा काम। कुछ ज्यादा ही वसूलना चाहा उसने आज उसी ख्वाहिश को पूरी करने के लिए बुक्का फाड़कर रोना शुरू कर दिया।
"लगाव एकरा दू थप्पर"रामधन गरजा उधर से।
"दादी के दुलार मे बहस गेले हय"लक्ष्मी बड़बड़ाई।
इससे पहले के मुन्नी की लड़की जात होने, उससे जुड़े जीवन के संदर्भों जैसे ’सबसे अहम दुर्घटना - ससुराल गमन’ और ’सबसे बड़ी बात - घर चलाने की जुगत’ आदि प्रासंगिक मसलो पर बात जाती,सुखिया ने मोर्चा संभाल लिया।
"बच्चा के डाँटल जाय हय ऐसे"-वो बरस पड़ी।
मुन्नी को कलेजे से लगाकर उसने फुसलाया और परी वाली कहानी सुनाने का वादा किया,जिसमे परी के पंख कोई चुरा ले जाता है और एक सजीला राजकुमार उसे ढूँढकर वापस लाता है...(बताने की जरूरत नही कि दोनो की शादी भी हो जाती है!)ये कहानी मुन्नी को बहुत पसन्द थी;काफी जुड़ाव महसूस किया करती थी वो इस कहानी से।उसने रोना बन्द कर दिया और दादी को देख मुस्कराई।
"बदमाश कही की!एक दम से अपने बाप पे गई है।"सुखिया के होठो पर भी मुस्कान खेल गई।

एतना ही बदमाश था रामधनवा भी बच्चा मे।लसराता भी ऐसे ही था वो।इकलौता जीता बेटा था; खानदान चलाने वाला और सुखिया का तो वो पालनहार ही था।पहले पहल तीनो बेटी हुई,जीती रही,बढ़ती रही।बाद मे दो बेटे हुए तो,पर साल पूरा करने के पहले ही टॉयफॉयड की भेंट चढ़ गए। फिर एकदम से अकाल हो गया.... गाँववाली सब उससे कतराने लगी।कहीं से उड़ती-फिरती खबर भी मिली कि पीठ पीछे सब उसे ’बेटाखौकी’कहते हैं।कितना रोई थी घर मे आकर,जब करजानवाली ने उसके घर मे घुसते ही खटिया पर पड़े अपने बेटे को उठाकर अँचरा मे छुपा लिया था।ननदे तो इसी कारण से नैहर आना छोड़ चुकी थी।इन सब यंत्रणाओं और कलेजा चीरती संज्ञाओं से तीन साल बाद मुक्ति दिलाई रामधन ने।बहुत मेहनत भी की थी सुखिया ने;नही तो भगवान ऐसे थोड़े ही पसीजता है!उमानाथ पे खस्सी,चण्डिकास्थान पर सवा रूपए का बताशा,हनुमान जी को सवा किलो लड्डू;अवधूत बाबा का भस्म तो छठे महीने से हर रोज सूरज निकलने से पहले जचगी तक चाटा था,एक भी दिन बिना नागा किए हुए।पीर साहब का गंडा-ताबीज तो पेट से होने की संभावना होते ही बाँध लिया था उसने।सब मनौती पूरी की थी रामधन के होने पर।मजार पर चादर भी चढ़ा आई थी वो।दबी जुबान से सास ने खर्चे पर टोका भी-"पिछले दो की तरह कहीं ये भी फिर....?" डर तो गई थी सुखिया इस आशंका पे और हर सुबह उठते के साथ बच्चे को काजल-टीका कर देती थी। कितना जतन से पाला था!.....नीचे चटाई पर लेटे रामधन को देखकर गर्व हो आया उसे।

बच्चा पालना भी कोई हस्सी-ठठ्ठा का कम नही है,कपार का पसीना तरवा से चूने लगता है।जो जतन से पालता है,वही जानता है।उसकी सास ने पहली बेटी को खूब मन लगाकर पाला; पर बाकी दोनो लड़कियों को तो जी भर के देखा तक नही।राणाबीघा वाली चाची बता रही थी कि सौर घर से उल्टे पाँव वापस लौट गई थी,अन्दर कदम भी नही रखा।हाँ,उसके बाद जो बेटे हुए, उसमे हुलस-हुलस के गीत गाया।ढोलक पे खुद बैठी थी।दिन भर कलेजे से चिपकाए रखती थी। केवल दूध पीने के लिए सुखिया के पास बच्चा आता।दोनो भगवान के घर चले गए....सुखिया ने उपर देखते हुए एक गहरी साँस ली।रामधन हुआ,तो सास भावी आशंका लिए अपने अरमानो को दिल मे दबाकर रह गई।सुखिया ने सारी जिम्मेवारी अपने उपर ले ली - सास के दिल की व्यथा वो समझती थी।यहाँ तक कि नेग माँगने पर सास ने जब सबके सामने अपनी बेटियों को खरी-खोटी सुनाना शुरू किया,तो उसी ने उन्हे रोका और ननदो की फरमाईश पूरी की। औरत ही औरत के दिल की बात जानती है! खैर अब तो बच्चा पालने मे वो एक्सपर्ट हो गई है।बड़ी लड़की भी तो अपनी एक साल की बेटी छोड़ गई थी नैहर,जब तुरन्त एक पीठपीछा बेटा हो गया उसे।फिर दूसरी बेटी का बेटा और छोटकी का.....।

"मुनिया के पप्पा ने खाना खा लिया।"खाने के लिए लक्ष्मी के इस बुलौहटे ने सुखिया को इस दुनिया मे वापस खींच लिया। पतंग कटती भी है,तो तुरंत से जमीन पर नही आ जाती..... कटने पर भी लहरा लहरा कर उड़ते हुए का आभास कराते हुए जमीन पर धीरे-धीरे आती है।अभी भी दिमाग मे बच्चे ही बच्चे भरे हुए थे।बगल मे सोई मुन्नी,कुल्ला करता रामधन,थाली मे खाना परोसती लक्ष्मी - सब उसे बच्चे ही लग रहे थे।सब के चेहरे वैसे ही मासूम,निर्दोष,पवित्र और निर्द्वन्द्व। मातृत्व के असीम सुख से भर गई वो और देह मे नई जान सी आने लगी।उठते-उठते कमर पर कुछ चुभा।हाथ लगाया,वही खजाना था।एकदम से देह निढ़ाल पड़ गया-"वो भी तो बच्चे ही होते!"
मुन्नी के चेहरे की ओर देखना चाहा उसने,पर हिम्मत नही जुटा सकी।.....इस जंजाल से निकाला लक्ष्मी ने,जो खाना लेकर वही पहुँच गई थी-
"ईहें खा ला।तबीयत ठीक ना मालूम पड़ै हय।"
इतना प्यार पाकर सुखिया फिर से जोश मे आ गई -
"जा, तू भी अपन निकाल ला। साथे खैबै हम दोनो।"
फिर कुछ सोच के बोली-
"हमरा दूध कम्मे दिहा आज।"

खाना खाकर लक्ष्मी सारा जूठा बरतन समेट कर कोने वाले नल की ओर बढ़ गई। पचासेक परिवार वाली बस्ती का यही नल था;पर चौबीसो घण्टे पानी देता था। सुबह-सुबह तो महायुद्ध का माहौल छिड़ जाता था - नहाने वाले,बरतन-बासन करने वाले,पानी भरने वाले - सब के सब एक ही समय जुट जाते थे। वो तो विधायक ददन भैया ने साल भर पहले ये नल लगवा दिया था,नही तो मील भर दूर से पानी भर भर के लाता था रामधन। बस्ती की आधी ताकत तो इसी जल-प्रयाण को समर्पित हो जाती थी,फिर काम करेगा क्या और कमाएगा क्या?शहर वाले,अखबार वाले सब ददन को गुण्डा कहते थे,डरते भी थे।
’गुण्डा हुआ तो क्या हुआ।पानी देलवा दिया,केतना आराम हो गया।’
बरतन पर राख मलती लक्ष्मी अपने विचारो मे मग्न थी -
’फिर उकरे वोट देंगे।और इ बार बड़का वाला भेपर-लैंप भी लगवाने के लिए कहेंगे।इ अंधेरा मे साँप-बिच्छू पता नही कब काट जाय।चनरमा देवता तो घटते-बढ़ते रहते हैं,इनका कोई भरोसा नही।रोशनी हो जायेगा,फिर मुनिया को भी साल-दो साल मे बरतन बासन करने भेज सकती है- पर उसकी दादी थोड़े ही मानेगी।पता नही पढ़ा-लिखा के कौन सा लाट साहब बनाएगी?’
राख लगे सारे बरतनो को पानी की धार के नीचे रख दिया ;पानी के छीटों के साथ उसके विचार भी इधर-उधर बिखरने लगे। सारी गृहस्थी उसने गिन कर समेट ली-दू ठो बड़का थाली,एक छोटका,कड़ाही,छलनी,दो कटोरी,एक तसला और एक बड़ा सा तवा - पूरे आठ।

घर वापस पहुँची,तो सुखिया तो बाहर खटिए पर चादर बिछाते पाया। एक ही कमरे का घर-
’आखिर लाज-लिहाज भी तो कोई चीज होता है।फिर भी जाड़ा और मेघा-बूँदी मे बेटा-बहू के साथ सोना पड़ता है।करवट फेर लेती है,आँख बन्द रहता है,पर कान का क्या करे?जब तक नींद नही आ जाती,अपनी काम करते ही रहते हैं मुआ।’
बीड़ी का आखिरी बचा टुकड़ा फेंकते हुए सुखिया ने आवाज लगाई-"मुनियाँ के हमरा पास दे जा।"
जब से मुन्नी थोड़ी होशियार हुई है,तब से अपने ही पास सुलाती है उसे।है भी लड़की बड़ी होशियार - मास्टर साहब भी तारीफ कर रहे थे,जब स्कूल मे फीस जमा करने गई थी वो।अँग्रेजी का कितना सारा गीत जुबानी याद है उसे; डॉक्टर साहब के बच्चा की तरह उसको भी इंगलिश वाला गिनती आता है।दूध को पता नही क्या कहती है- मिकिल..नही,म..म...... मिलुक...नही,मुलुक..नही ये भी नही है।अच्छा भोरे दिमाग लगा कर पूछेगी दूध का अँग्रेजी।जरूर अपनी मुनिया मेम बनेगी, गिटिर-पिटिर करेगी। अपने कमर मे खोंसे गाँठ को उसने एक बार और टटोला और दृढ़ता की एक चमक आ गई आँखो मे-
’बियाह उसका वो डाक्टर से ही करेगी।पर उ अच्छा होगा,इ पपियहवा जैसा नही।पैसा के लिए ऐसा पाप का काम नही करेगा।खैर उसे इससे क्या,उपर वाला इन्साफ करेगा उसका।है तो भागीदार वो भी,पर वो तो अपने परिवार के लिए,अपनी मुनिया के लिए कर रही ये सब कुछ।’

दिन भर की थकान से निढ़ाल सुखिया कब सो गई,उसे पता भी ना चला।सुबह आँखे खुली,तो पाया कि रामधन तो रिक्शा लेकर निकल गया था और मुन्नी स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी।सास को देखते ही लक्ष्मी मुन्नी को छोड़ चाय गरम करने दौड़ गई।’सही मे खराब आदत लग गया है उसको।बिना पिए कुछ होता ही नही’-चाय सुड़कते हुए वो मुन्नी को तैयार होते देखती रही।सफेद कमीज,बुल्लू स्कर्ट,लाल रिबन,उजला मोजा,काला जूता,स्कूल का बेल्ट - कितनी सजी-धजी लग रही है!स्कूल बैग पीठ पर लाद कर जब उसने टाऽऽऽटाऽऽऽऽ किया,कलेजा चौड़ा हो गया सुखिया का -
’जरूर बड़ी मेम बनेगी इ छौड़ी।क्या कहेगा सब कि इत्ती पढी-लिखी की दादी ’लिख लोढ़ा,पढ़ पत्थर’ है।’
अपने अनपढ़ होने पर पहली बार इतना खराब लगा उसे।अचानक कुछ याद आया और हड़बड़ा उठी वो।आज तो पोस्टऑफिस भी जाना है उसे।

निकल ही रही थी घर से कि लक्ष्मी उधर से शर्माई,सकुचाई आकर खड़ी हो गई।दोनो की नजरे मिली,एक नजर झुक गई।अनुभवी आँखो ने झुकी नजरों की भाषा पढ़ ली -
"कैम्मा महीना चल रहा है?"
"तीसरा चढ़ गया,दू दिन हुए।उल्टी खूब हो रहा है।लगता है इस बार बेटा का आसार है।"
सुखिया हुलस गई,सब देवी-देवता को मन ही मन पूज लिया।इतने दिन से पोते की साध थी,पूरी होने वाली थी।
’पूरी बस्ती मे मिठाई बाँटेगी,गीत-गाना होगा। पोते की छठ्ठी मे सोने का कड़ा देगी,अपना कानवाला और नाकवाला गला के। ऐसे भी तो रखे ही रहता है। रामधनवा का बापू चला गया,अब गहना किस काम का।आदमिए नही है,तो उसका निसानी रख के क्या करे। और दे भी तो उसी के पोता को ही रहे हैं।’
सुख और आनन्द के इस अतिरेक मे उसने बहू को गले लगा लिया। भारी काम ना करने और भारी सामान न उठाने के निर्देश के साथ एक स्नेह भरा आदेश भी दे डाला-
"कल तैयार रहिया।साथे नर्सिंग होम चलिहा।"

चहक-चहक के काम करती रही दिन भर।सबसे हँस के बात की;सब काम किया - न हील,न हुज्जत।शाम को डॉक्टर साहब आखिरी राउण्ड लगाकर निकलने ही वाले थे कि वो सामने जा कर खड़ी हो गई।
"क्या बात है सुखिया?सब ठीक-ठाक।"उन्हे लगा पैसा बढ़ाने को बोलेगी।
सुखिया ने दाँत निपोर दिए-
"सब आप ही दया है सरकार।हमको पोता होने वाला है।थोड़ा बहू को देख दिजिएगा।"
"हाँ,हाँ, कल लेती आना।"बोझ हल्का होते ही मुस्कराए डाक्टर साहब-"तुम्हे कैसे मालूम कि पोता होगा।"
अकचका गई सुखिया;मुँह से बोल ही नही फूटे। ये प्रश्न एक भावी आशंका बनकर उसके दिलो-दिमाग पर छाता चला गया। सच ही तो कहते हैं! ये लक्ष्मी भी झूठ-मूठ का सोचते रहती है। उल्टी से थोड़े ही पता चलता है - उसे भी दूसरी बेटी के समय कितना उल्टी हुआ था।

पर रास्ते भर वो भी यही सोचते हुए आई। रोज की तरह चलती रही,घर पहुँच गई। सब कुछ वैसा ही था। मुन्नी गरदन मे लटकी,चॉकलेट लेकर भागी,लक्ष्मी चाय बना लाई। पर मन कही और था-दो विकल्पो के बीच झूलता हुआ। एक के बारे मे जितना सोचती थी,दूसरा उतने ही शिद्दत से सामने खड़ा हो जाता। विकल्प चुनने की समस्या नही थी,उनके विद्यमान होने पर भी कोई शक नही था। हाँ,सोच का गहरापन और सारा उहापोह दोनो मे से किसी एक के हो जाने के बाद के स्तर से जुड़े थे। इसी उधेड़बुन मे वही खटिए पर पसर गई। सास को परेशान देख लक्ष्मी ने मुन्नी को पास भी फटकने नही दिया। रात मे दो चार कौर अनमने ढ़ंग से लिया,फिर हाथ धो लिया।’खाती क्या?’ - दिमाग मे तो वही झंझावात चल रहा था;पूरे परिवार का गणित बिगड़ने का डर था।

मुन्नी के लिए तो उसने सारा खाका तैयार कर लिया था।अपनी ना जी हुई जिन्दगी,अपने सपनो की जिन्दगी... मुन्नी के सहारे जीने की सोची थी। सारी दमित-शमित इच्छाएँ,दबे-कुचले अरमान, खुली या बन्द आँखो से देखे सपने.... सब के सब पूरा होने का बस एक ही जरिया था उसके पास।लक्ष्मी ने तो मना भी किया था,पर वही अपनी जिद पर मुन्नी को अँग्रेजी स्कूल मे भरती करवा आई थी।
"बाप रे!इतना चोंचला।इत्ती महंगी पढ़ाई।एतना पैसा फूँको।उ पर भी पढ़-लिख के फायदा क्या?" शुरू-शुरू मे कितना बड़बड़ाती थी लक्ष्मी।पर धीरे-धीरे उसे भी ये सब अच्छा लगने लगा था;शायद सुखिया की आँखो के कुछ सपने छिटककर उसकी तरफ भी पहुँचने लगे थे।

’एक दिन नाम रौशन करेगी इ बच्ची’-सोचते हुए पास सोई मुनिया को उसने अपने मे चिपटा लिया।पहले कुनमुनाई, फिर दादी संग चिपक गई।’इसका भाई हुआ,तो उसे भी उसी स्कूल मे पढ़ाएगी।नही,और भी अच्छा स्कूल मे - आँखो मे एक दृढ़-निश्चय की चमक कौंधी। बड़ा अफसर बनेगा,खानदान का नाम बढ़ाएगा।पैसा का क्या है,इंतजाम हो जाएगा।डॉक्टर साहब से कहकर लक्ष्मी को भी कहीं काम पर धरवा देगी। वो भी किसी साहब के घर मे बरतन-बास,झाड़ू-पोछा का काम पकड़ लेगी,बैठी ही तो रहती है सबेरे-शाम।’
मेम होगी मुन्नी,साहब बनेगा उसका भाई - सुखिया के होठो पर मुस्कान दौड़ गई।पर आँखों का छोटा सा आसमान इतने बड़े बादल को समेट नही पाया। पल्लू से उसने गीली हो आई आँखो को पोछ लिया। इस डगर पर इतनी दूर बढ़ आई थी कि पता ही नही चला कि कब दूसरी ओर खींचने वाला बल भी उतना ही विशाल हो कर मन को डराने लगा था-
"कहीं लड़की हुई तो?"
कुछ अनचाहे दृश्य और विचार मन पर बोझ बनकर जमने लगे।घबराकर उसने सारे बोझ को परे ढ़केला-
’कल पता चल ही जायेगा।’और करवट बदल कर सो गई।

पता चल ही गया,जब लक्ष्मी को दवा के लिए कम्पाउण्डर के पास बिठाकर वो डॉक्टर साहब के केबिन की ओर भागी और वहाँ घुसकर चुपचाप खड़ी हो गई।
"सब कुछ नॉर्मल है।हर महीना लाकर दिखा जाना।"
सुखिया ने कृतज्ञ भाव से हाथ जोड़ लिए-"और डॉक्टर साहब?"
प्रश्न के चोले वाले इस ’और’ का अर्थ,संदर्भ और औचित्य पता नही जो भी हो,पर इसकी प्रासंगिकता पूछने वाले और जबाब देने वाले - दोनो को स्पष्ट थी।असली बात कुछ ही क्षणों मे खुल कर आ गई -
’लक्ष्मी पर लक्ष्मी जी सवार हुई थी।’
थके कदमो से सुखिया बाहर चली आई।रामधन तब तक पहुँच गया था सब को घर लिवा जाने के लिए।रास्ते भर लक्ष्मी डॉक्टर साहब के गुण-गान करती रही-
"केतना बढ़िया थे।न इलाज का पैसा लिया,ना खून-पेसाब जाँच का। दवाईयो मुफ्त मे दे दिए। हर महीना आकर दिखाने को भी बोले हैं। आजकल ऐसा पुण्यात्मा-धर्मात्मा मिलता कहाँ है,जो गरीब-गुरबा के बारे मे सोचे।"
"सब माई के कारण होलै। ना त कोई ओतना दयालु ना हय हियाँ पर।"
रामधन ने दोनो पैर पायडिल पर जमाए हुए गरदन पीछे घुमाकर जमाने पर अपनी सटीक टिप्पणी दी। और वक्त होता,तो माई का छाती फूल जाता इ सब सुनकर,पर अभी विचारो का बवंडर चल रहा था।चुपचाप रिक्शे पे कोने मे सिमटी बैठी रही।

रात मे मुन्नी के सो जाने के बाद उसने रहस्य पर से परदा हटाया। लक्ष्मी जड़ हो गई, मुण्डी जमीन की ओर गाड़ लिया।रामधन चुपचाप बैठा रहा। सपने जब टूटते हैं,तो इतनी गहरी आवाज होती है कि बाकी सारी आवाजें उसी की गहराई मे दफन हो जाती हैं.......फिर छूट जाती है एक घनी सी चुप्पी,गूँगी-बहरी खामोशी!...कोई कुछ ना बोलना चाहता है,ना ही कुछ सुनना।
सब के सब चुप बैठे थे;एक शब्दहीन माहौल पसरा हुआ था। बड़े होने का दायित्व निभाते हुए सुखिया ने ही चुप्पी तोड़ी-
"कि करै के हय?"
स्तब्ध,शांत आँगन मे मानो एक थाली उपर से किसी के हाथ से छूटी।छन की आवाज थाली की थरथराहट के साथ धीरे-धीरे मद्धिम पड़ती चली गई,फिर थाली और छन दोनो शांत। फिर सब चुप। कुछ भारी-भारी से लम्बे होते क्षण और बीते,फिर दिल कड़ा कर उसने बात आगे बढ़ाई-
"डॉक्टर साहब बोलय हलथिन कि अगर तैयार हओ,तो सब इंतजाम हो जैतै।"
"का बोलेगा उ डगडरवा? पापी कहीं का। हमर पेट के बच्चा को मार देगा। जालिम! जमराज! हमरा सराप लगेगा उसको। उसके बंस का नास हो जाएगा।"
लक्ष्मी गरजी अचानक से मुण्डी उठाकर और डॉक्टर के पूरे खानदान को एक सिरे से गालियाँ देनी शुरू कर दी। सुखिया का चेहरा भक्क! ऐसी प्रतिक्रिया उसने सोंची भी नही थी। लक्ष्मी जैसी समझदार और परिवार चलाने वाली बहू इस कदर आपे से उखड़ जाएगी,ये बात भी कल्पना के परे थी।
"तमाशा हो जैतै। चुप रहा अभी।" रामधन ने समझाया।


पता नही रामधन का असर था,परिवार के प्रतिष्ठा का या उसके पास की सारी गालियाँ खत्म हो गई थी - लक्ष्मी की आवाज मद्धिम पड़ती गई और उसने वही बैठ के सुबकना शुरू कर दिया। सोंच और आक्रोश की दिशा धीरे-धीरे सास की ओर मुड़ने लगी-
’कैसे फटाक से बोल दिया माई जी ने।कलेजा पत्थर का मालूम पड़ता है।आधा दर्जन बच्चा खुद जना,फिर भी मोह नही।आखिर रोज काम भी तो यही करते रहती है!’
लक्ष्मी को बहुत पहले उड़ती सी खबर मिली थी कि उस नर्सिंग होम मे क्या होता है। शायद के बुर्के मे लपेट के उस शुभचिंतक ने ये सच भी उगल दिया था सुखिया उन अजन्मी-अधूरी लाशों को लेकर जंगल वाले कुएँ मे फेंकने जाती है। अपने वजूद के एक जिन्दा हिस्से को यूँ बियावान मे कूड़े के जैसे फेंक दिए जाने का ख्याल आते ही उसके सब्र का बाँध टूट पड़ा और रोने की आवाज तेज हो गई।
"चुप्प करा। रोना-गाना एकदम बन्द।" रामधन गरजा।
अपनी माँ ने अपराधग्रस्त होते चेहरे को देखकर उसे सबसे सही यही लगा। लक्ष्मी चुप तो लगा गई,पर रूलाई रोकने की जबरदस्ती कोशिश मे खाँसी का एक लम्बा दौर शुरू हो गया। पानी पिलाया सुखिया ने और फिर वही बैठकर उसे कलेजे से लगा लिया.....नवजात शिशु की तरह वो चिपकती चली गई।पहले-पहल चुप रहे,फिर दोनो बुक्का फाड़ कर रो पड़े।रामधन छत निहारता रहा।रात भर कोई नही सोया;सब अपनी-अपनी सोच मे उलझे हुए थे।

सबेरे भी माहौल भारी ही था।सब अपना अपना काम यंत्रवत कर रहे थे। मुन्नी को स्कूल पहुँचाने के बहाने सुखिया खिसक ली। इस स्थिति के लिए वो खुद को जिम्मेवार मान रही थी। घर मे अकेले बचे दोनो - अपनी-अपनी चुप्पी मे खोये हुए। शुरूआत लक्ष्मी ने ही की। रात के दबे आक्रोश को अब तक शब्द के सहारे मिल चुके थे। सुखिया भी नही थी,सो कोई मेड़ भी नही डाली;सारा पानी बहने लगा। शुरू मे तटस्थ रहा रामधन,चुपचाप उसके प्रलाप सुनता रहा। सीमाएँ जब दूर तक लँघ गई और चुप रहने से बात के और बढ़ने और बिगड़ने की आशंका दिखने लगी,फिर उसने मोर्चा सम्भाला। लक्ष्मी को पास बिठाया और समझाने के अंदाज मे बोला-
"बेचारी बूढ़ी सब कुछ करय हय केकरा लिए? हमरा,तोरा,परिवार के लिए न।अब ओकर उमर खटै वाला हय। बोलहो? तैयो दिन-रात,हर बखत अपना देह के भूलाके काम करे ला तैयार रहय है। तोरा त अपन बेटी से भी जादा मानै हय।"
अपनी बात का असर होते देखकर वो फिर मूल मुद्दे पे आया-
"एगो लरकी के पाले मे एत्ता खरच होवै हय।तू त देखवे करय हो।अब बताहो,दोसर छौड़ी के खरच कहाँ से ऐतै?फेर दोनो के सादी के खरचा!उहे ला उ ऐसन बात बोलले होतै।तू ना जानय हो माय के कलेजा।हमरा तोरा से जादे मुनिया के मानय हय।"
बात भी सच्ची ही बोल रहा था वो।लक्ष्मी भी इससे इन्कार नही कर सकती थी।मुन्नी के पढ़ाई का सारा खर्च,दूध,दवा-दारू, सबके कपड़े-लत्ते,साबुन,तेल,सर्फ - सब का जिम्मा तो सुखिया ने उठा रखा था। बेचारी उसी की चिंता मे दिन-रात लगी रहती थी।रामधन की कमाई से तो किसी तरह बस खाना-खुराकी चल पाता था। जितना ज्यादा वो सोंचती गई,भावनाओं का आशियाना मोम बनकर पिघलता गया। घर की माली स्थिति के पैराशूट से धीरे-धीरे वो यथार्थ के जमीन की ओर उतरने लगी.....वहाँ आसमान मे सूनापन उतरने लगा था। लक्ष्मी की माया देखो - एक लक्ष्मी अपने अन्दर की अपनी लक्ष्मी से धीरे-धीरे दूर हटते जा रही थी...पहचानने को,अपना कहने तक को भी इन्कार करने के लिए तैयार होती जा रही थी।

स्कूल मे मुन्नी को छोड़कर सुखिया व्यर्थ ही सड़क पर इधर-उधर टहलती रही। ’बेकार का बवाल खड़ा कर दिया उसने घर मे। होने देती बच्चा,जब खर्चा बढ़ता,तो फिर पता चलता? लेकिन लक्ष्मी भी क्या करती बेचारी - कोई भी रोएगा जब उसके बच्चे को मार दिया जाएगा।माँ का दर्द तो वो समझती ही थी।’ पर जब खूब धूप निकल आई,फिर घर की ओर बढ़ने लगी;नर्सिंग होम भी तो जाना था। अपराध-बोध और असंभाव्य के बीच डोलते हुए घर मे जब कदम रखा,तो लक्ष्मी को गुमसुम एक कोने मे बैठा हुआ पाया। सास को देखते ही वो उठ खड़ी हुई-
"माई जी,नस्ता कर ला। जाय के ना हय कि? "
सुखिया अकबका गई। क्या बोले,कुछ सूझा ही नही। तब तक थाली मे रोटी-सब्जी-अचार सामने आ चुका था।
"हमरा भूख ना लगल हय।"
लक्ष्मी ने सास को जबरदस्ती बिठाया और एक कौर उसके मुँह मे डाल दिया। डबडबा आई आँखों से धार फूट पड़ी। पल्लू से आँसू पोछते हुए सुखिया ने उसे गले लगा लिया और फफक पड़ी। लक्ष्मी खामोश रही,कलेजा पत्थर का कर लिया था उसने! निकलने ही वाली थी कि कानो मे एक सर्द आवाज टकराई-
"डाक्टर से बात कर लिहा।"
भागते कदमो से वो वहाँ से निकल गई;नजर मिलाने की हिम्मत कहाँ बची थी उसमे।

दो दिन रही लक्ष्मी अस्पताल मे। चेहरा पीला पड़ गया था - खून शायद ज्यादा बह निकला था। सुखिया भी पिस गई थी उन दिनो - घर और बीमार दोनो की व्यवस्था करते-करते। मुन्नी ने पूछा भी,पर दादी ने उसे बहला-फुसला लिया। उसे यही बताया कि उसकी माँ किसी काम से नैहर गई है। खैर घर लौट के आ गई लक्ष्मी और सब लोग पहले की तरह अपने-अपने काम मे जुट गए;जिन्दगी ढ़र्रे पर लौटने लगी।

पर कहाँ लौट पाई पहले जैसी जिन्दगी! सब कुछ दिख तो सामान्य ही रहा था,पर बहुत कुछ बदल गया था। सुखिया कटी-कटी सी रहती,सुबह पहले ही निकल जाती थी और शाम मे खूब अँधेरा ढ़लने पर वापस आती। लक्ष्मी पहले भी कम ही बोलती थी,अब और भी चुप्पी लगाए रहती थी। दोनो जब तक घर मे साथ-साथ रहते,एक खींचा-खींचा सा माहौल हो जाता था;चुप्पी ही मानो भावो के उठ रहे तूफानो का प्रतीक बन गया था। केवल औपचारिकताओ के अलावा शायद ही कोई बात करते दोनो। सुखिया ने दो-एक बार मुन्नी को बातचीत का जरिया भी बनाया,पर ऐसे हर प्रयास को लक्ष्मी ने अपने नपे-तुले शब्दो से शुरू होते ही विफल कर दिया।
"मुनिया,जा माय के कह दे उ भी दूध पीतय।"
"हम दूध पीके कहा जैबै? फेर जादे दूध के पैसा कहा से ऐतै?"
इन प्रश्नो का जबाब देने पर कितने मुद्दे जुटते चले जाते और अंत मे कौन सी बात आ जाती, सुखिया को आभास था इसका।बारूद के ढ़ेर को क्यूँ चिन्गारी दिखाना - सो चुप लगा गई।
नर्सिंग होम मे कोई नई दवा की कंपनी वाला आया था,डॉक्टर साहब को बहुत सारी विटामिन की गोली दे गया था। उन्होने सुखिया को ढ़ेर सारी पकड़ा दी घर ले जाने को।
"मुनिया, आय से सब कोय खैतै इ गोली सुबह-शाम। खून बनतय,ताकत ऐतै।"
"हमरा खून बनके कि होतय? ताकतो कौन काम के? कोनो बच्चा थोरिए पैदा करे के हय......"
आगे भी कुछ बोलना चाहती थी,पर मुन्नी को देख अचानक से चुप लगा गई।

रामधन तटस्थ था;शायद निर्विकल्प भी - क्या प्रतिक्रिया देता भला! घर मे उठ रहे इन छोटे-मोटे तूफानो को समेटे रहने मे ही भलाई थी। माँ ने तो कभी कुछ नही कहा,पर मौका पाते ही लक्ष्मी अकेले मे मन का सारा गुबार उसके सामने निकाल देती थी। उस समय चुप रहने के सिवा कोई चारा भी नही था,कुछ समझने की स्थिति मे वो थी भी नही। अपने वजूद के एक अंश खो देने का सारा मलाल सास के लिए आक्रोश बन कर निकल पड़ा था। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा - इसी सोच के साथ खुद को स्थिर रखे त्रिभुज के दोनो बिन्दुओं को दूर जाता देख रहा था। इन सब से परे थी तो मुन्नी-त्रिभुज का केन्द्र। किसी ने उसे बिल्कुल ही आभास नही होने दिया कि कुछ हुआ है। वैसे ही उछलती रहती,स्कूल जाती,सबके सपनो को जीती,रात मे दादी से चिपट कर सो जाती। घर उसी तरह से चल रहा था,जिसका वो आदी था।

’उस दिन भी तो तीन केस हुआ था!’ - बिस्तर पे पड़े सुखिया सोच रही थी।...फी बच्ची बीस रूपैया...साठ तो उसे मिले ही थे। पानी का नया बोतल बदलाया लक्ष्मी का,तो घण्टा भर के लिए निश्चिंत होकर उस काम के लिए निकल पड़ी थी। कम्पाउण्डर ने काली पोलिथिन की एक थैली पकड़ा दी उसे और हर बार की तरह वो निकल भागी कुँए की तरफ। पीपल के पास से मुड़ते हुए ख्याल भी आया कि खोल कर एक बार देख ले-
’कहाँ पहचान पाएगी? सब त मांस का लोथड़ा ही होगा।’
निष्काम भाव से उसने थैली फेंक दी। अपनी अजन्मी पोती का अंतिम संस्कार कर के कुछ दूर बढ़ी ही थी कि लगा कोई पीछे से पुकार रहा है।
"दादी इ इ इ ऽऽऽऽऽ, ओ दादी इ इऽऽऽऽऽऽऽऽऽ ।"
आवाज बिल्कुल मुनिया जैसी थी;वो भी पसर कर ऐसे ही तो बोलती है!
समूचा देह गनगना गया उसका,माथे पर पसीना चुहचुहा आया। हनुमान जी को याद करते हुए दौड़ पड़ी। रोड पर भी भागती रही... नर्सिंग होम पहुँची,तो जान मे जान आई। वहीं सीढ़ियों पर बैठ गई। कलेजा धौंकनी से भी तेज चल रहा था। साँसे जब थमी,फिर मुँह-हाथ धोया और लक्ष्मी के बेड की ओर बढ़ गई। वो सोई हुई थी;सुखिया ने चैन की साँस ली।

बगल मे लेटी मुन्नी कुलबुलाई,तो सुखिया के सोच की रेखा तितर-बितर हो गई।चद्दर ठीक से ओढ़ा दिया उसे और खुद भी सोने की कोशिश करने लगी।दिन-भर की थकान,घर का बोझिल माहौल,आँखें बन्द हो गई।
- बहुत भारी सा काला थैला लिए वो कुँए की तरफ जा रही है। बारह-पन्द्रह तो होंगे ही... मन मे हिसाब भी लगा लिया... मुनिया के एक महीने का फीस निकल आएगा। थैला जैसे ही उसने फेंका, देखा मुनिया नीचे से उड़ते हुए आ रही है।
"तू यहाँ कैसे?"
"तू ही फेंक के गई थी दादी।"
दादी को काटो खून नही।अचानक एक और मुनिया आई,फिर एक और..फिर सैंकड़ो-हजारो मुनिया कुँए से निकलने लगे।वो भागने लगी,पर कानो मे एक साथ हजारो आवाजो का हुजूम टकराने लगा-
"दादी इ इ इ ऽऽऽऽऽ,ओ दादी इ इऽऽऽऽऽऽऽऽऽ।" -
झटके से उठ बैठी सुखिया....पूरा बदन अभी तक थरथरा रहा था। आस-पास देखा,कोई नही था; कोई आवाज भी नही। घर के बाहर खटिए पर वो मुन्नी के साथ सोई हुई थी। जान मे जान आई उसकी। पानी पीकर फिर से सोने की कोशिश की,पर अब नींद कहाँ। उठी बिस्तर से और वही घर के आगे टहलने लगी।
"दादी,ओ दादी"- रोने की आवाज कानो मे पड़ी,तो डर सी ही गई पहले। थोड़ा सम्भाला खुद को फिर - मुन्नी जग गई थी और साथ मे उसे ना पाकर रूआँसी हो गई थी। अपने से चिपकाया उसे और थपकियाँ देते हुए सुलाने लगी।

अब सही मे डर लगने लगा था उसे उस कुँए और उससे जुड़े़ संदर्भों से। पर करती भी क्या, रोज का रास्ता भी वही था और काम भी वहीं का - उपर से थोड़ी कमाई भी हो जाती थी! एक बार तो मना भी किया,तो खुद डॉक्टर साहब ही आकर बोल गए, फिर कैसे नहीं जाती। रेट भी उन्होने बढ़ा दिया बिना बोले;फी केस पच्चीस रूपए मिलने लगे थे। डॉक्टर की भी मजबूरी थी,इस काम के लिए भरोसे वाला आदमी चाहिए था उन्हे। किसी नए पर विश्वास नही किया जा सकता था। सो बीच-बीच मे पचास-सौ अलग से पकड़ा दिया करते थे। ऐसी सब उपर वाली कमाई को सुखिया बिना नागा किए नियम से पोस्ट-ऑफिस मे जमा करवा आती थी और हर ऐसे अवसर पर उसकी आँखों मे ढे़रो सपनो की एक नई चमक दिखाई देती थी,मानो उन सपनो ने नए कपड़े पहन लिए हों!

सब अपनी-अपनी जगह मजबूर थे;जीए जा रही चीज को जिन्दगी कहकर आत्म-संतुष्ट थे। अब देखो ना,एक ही घर मे रहते हुए तीनो की मजबूरी अपनी-अपनी थी,आत्म-संतुष्टि के मायने अलग थे और कह सकते हैं कि जिन्दगी भी अलग ही जी जा रही थी। अब दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की किसे फुर्सत? रामधन को मानो पृथ्वी को आर-पार किये हुए सुरंग मे फेंक दिया गया था- चिरकाल तक इधर से उधर डोलने के लिए।एक छोर पर माँ की गहराती जाती चुप्पी थी,तो दूसरी तरफ पत्नी का मुखर होता जाता आक्रोश।दोनो दिन पर दिन बढ़ते जा रहे थे! रामधन के डोलने की आवृति भी वैसी ही बढ़ती जा रही थी। डर भी लगता था मन मे - कहीं दोनो छोर मिल गये तो?
’प्रलय हो जाएगा!! धरती डोल जाएगी!! - सब कुछ खत्म!!!’

धरती डोल ही गई! इतवार का दिन था। मुन्नी का स्कूल बन्द,सुखिया भी देर से ही जाती थी। सुबह-सुबह सब चाय पी रहे थे। अचानक मुन्नी उछलती-कूदती आई और दादी के गरदन मे लिपट के जोर से बोली-
"दादी बुतरखौकी है।"
सब अवाक! सुन्न! कोई हरकत नही!
मुन्नी को लगा किसी ने सुना नही। वो और जोर-जोर से बोलने लगी-
"दादी बुतरखौकीऽऽऽऽऽ..... दादी बुतरखौकीऽऽऽऽऽ...."
रामधन ने लक्ष्मी की ओर देखा,उसने मुण्डी नीचे गाड़ ली- ये नाम भी तो उसी का दिया हुआ था! मुनिया को पीटने को दौड़ा,तब तक वो उछलती हुई बाहर भाग गई थी। आधी चाय वही खटिए के नीचे रख सुखिया उठी,चप्पल पाँव मे फँसाए और काँपते कदमो से बाहर निकल गई। पीछे से लात-मुक्के-गालियो की बौछार से खुद को बचाती रोने की एक आवाज उसके कानो पर पड़ी,पर वो तो बहरी हो चुकी थी।वहाँ तो बस एक ही आवाज गूँज रही थी-
"बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! "

सर झुकाए वो चलती रही। कोई ताकत नही,जान नही,जिस्म को मानो घसीटते हुए बस्ती के बाहर ले गई। सब कुछ हार गई थी आज वो। एकदम से कंगाल हो गई थी। अपना घर,परिवार ,सारी आशायें,सारे सपने,यहाँ तक कि खुद को...सब कुछ जिन्दगी की दाँव मे गवाँ बैठी थी।
’ जिनके लिए अभी तक मरती रही,जिन्हे देख कर जीती रही,उन सबने ही उसे जीते-जी मार डाला। जिसके लिए पाप किया,वही पापिन बोले - घोर अनर्थ है! सब बेकार है! सब कुछ खत्म!’
...........कुँए मे कूदने ही वाली थी कि हजारो आवाजे एक साथ कानो से टकराई-
"बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! "
साथ मे एक और आवाज आ रही थी.....उसने सुनने की कोशिश की......!
"दादी इ इ इ ssss,ओ दादी इ इsssssss।"
...........सर पकड़ कर वही मुंडेर को थामे-थामे धम से गिर पड़ी।


सिनेमा चल रहा है मानो। कई सारे दृश्य एक एक करके आँखो के सामने आते जा रहे हैं-

’बीच चौराहे पर सुखिया को नंगा खड़ा कर दिया गया है - बिल्कुल मादरजात!
सब चिल्ला रहें हैं;ढे़र सारी आवाजे आ रही हैं - "बुतरखौकी को मार डालो। हमारा बच्चा खा जाएगी।"
भीड़ मे उसने देखा है - लक्ष्मी सबसे आगे है पत्थर हाथ मे लिए!
रामधनवा नही दिख रहा। मुनिया भी कही खेल रही होगी। नही, स्कूल गई होगी!’

’मुन्नी मेम बन गई है। गाँधी बाबा उसको अवार्ड दे रहे हैं। वो अँग्रेजी मे गिटपिटया कर बोलती है कि सब हमारे दादी का प्रताप है और उसे मंच पर बुलाती है। सुखिया मंच पर खड़ी है,पास मे गाँधी बाबा - नोट से निकल के एकदम साक्षात खड़े हैं, ताली बजा रहे हैं।डॉक्टर साहब भी ताली बजा रहे हैं। सुखिया लजा जाती है।’

’ मुन्नी की शादी हो रही है। खूब गाजा-बाजा। खूब सजा हुआ है। राजकुमारी लग रही है लाल साड़ी मे,सोना का किनारी खूब फब रहा है। उसका दूल्हा भी सजीला राजकुमार है! डॉक्टर है! सब आशीर्वाद दे रहे हैं,अक्षत छींट रहे हैं। सुखिया भी नई साड़ी पहने हुए है। दोनो दुल्हा-दुल्हन पैर पे पड़े हैं। विदाई हो रहा है,दादी से लिपट कर मुनिया भोंकार पार के रो रही है। बड़की गाड़ी मे मुनिया चली जाती है ससुराल। रात भर का जगरना हुआ है,अब सुखिया चैन से सोएगी।’

’सुखिया की लहास पड़ी है।मुन्नी लिपट के रो रही है। रामधनवा माथा पकड़ के बैठा है,आँखे गीली है। लक्ष्मी बदहवास सी चिल्ला रही है-
"हमहि मार देलिअय माईजी के। हमरा माथा पर डाकिणी सवार हो गेले हलय।अपन माय के कथि ना बोललिअय। हमरा से गलती हो गेलय। माफ कर दहो अपन बचिया के। काहे छोड़ के चल गेलहो माई जीऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ"....
.......................सुखिया की लाश को जलाया जा रहा है।’

’मुनिया का स्कूल छूट गया है फीस ना भरने के कारण। दिन भर इधर उधर बनच्चर जैसा घूमते रहती है। लक्ष्मी दो चार घर मे बरतन-बासन करती है।एक दिन एक साहब ने उसे पकड़ लिया है.... वो चिल्ला रही है,पर कौन आएगा? रामधनवा त रिक्शा खींच रहा है। घर चलाने के लिए दिन-रात करके मेहनत कर रहा है। डॉक्टर उसको टी बी बताया है। लक्ष्मी कह रही है अकेले मे उसे -
"माईजी हलथिन ,त कोई दिक्कत ना हलै। उ गेलखिन,सब कुछ खतम हो गेलै। माफ कर दिहा माईजी।"
...................आसमान मे बैठी सुखिया उसे माफ कर रही है।
आँखे खुली,तो सुरज देवता पश्चिम मे चले गए थे। सांझ की वेला थी,सब अपने अपने घर लौट रहे थे। उठी,साड़ी ठीक किया,अंधेरे मे किसी तरह से चप्पल ढूँढ़े। कही से कोई आवाज नही आ रही थी।
"सब बुतरूए हय।बुतरू-बानर के बात के कोय मतलब नय।"
उसने खुद से कहा और घर की ओर चल पड़ी।



परिशिष्ट
कहानी की सुखिया को तो परिवार चलाना है,अपने सपने जीने हैं,सो घर वापस चली जाती है। पर सुखिया स्वतंत्र है कुछ भी करने को। आत्महत्या करने से लेकर कन्या-भ्रूण हत्या के विरोध मे उठ खड़ी एक मुखर नेता बनने के दोनो अति के बीच मे जितने भी विकल्प आते हैं,सब के सब खुले हैं उसके पास। जरूरत है तो बस संदर्भों की,मायनो की,जो सुखिया के चरित्र को अपना एक प्रतिमान दे पाए। पर समस्या यही है कि सबके संदर्भ अलग हैं,सोच के मायने अलग हैं.....सो शायद सुखिया भी अलग-अलग है!

अपनी बात
ये कहानी उन अभागे दधीचियों को समर्पित है,जिन्हे उनसे बिना पूछे यूँ ही बलि-वेदी पर चढ़ा दिया गया। पता नही कौन से असुर का वध करना था? और अस्त्र भी कहाँ से बन पाता,कौन बना पाता;अभी तो हड्डियाँ भी ठीक से नही बन पाई थी!
मैने भी ऐसा ही एक पाप किया है।
प्रायश्चित-स्वरूप उन्हे अपनी रचनाधर्मिता की एक श्रृद्धांजलि -

"परेशान हैं सारे
अफवाह उड़ा दी है किसी ने-
कि लड़कियाँ कम हैं यहाँ पे!

पर/मालूम नही उन्हे /कि
घर हमारे भर गए हैं,
कोख भी कम पड़ गए हैं,
सो -
वे
बिना जन्मी हुई साँसे बनकर,
अधूरे तन की लाशे बनकर,
कूड़ों पे सज रही हैं
कुँओं मे मिल रही हैं।"

[रचनाकार का उद्देश्य किसी भी दृष्टिकोण से कन्या-भ्रूण हत्या को जस्टिफाई करना नही है। यह एक सामाजिक कुरीति और कानूनन अपराध है और हमे मिल-जुल कर अपने समाज को इस से पवित्र रखना है।]

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