Monday, December 24, 2007

वो आदमी

"छोड़िए ,आप मुझे नहीं समझ पाऐंगे।...( फिर एक लम्बी साँस .... कुर्सी के हत्थों से उसके हाथ फिसल कर नीचे गिरने और आँखो मे शून्य घिर आने की एक साथ प्रक्रिया...)...मैं भी खुद को नही समझ पाया ।"- सामने बैठे शख्स के होठो की थिरकन मे लिपटी ये आखिरी आवाज मुझे मीलो दूर से आती लगी।मैने उठने का उपक्रम किया ,पर मीलो दूर से इस आदमी ने अंगुलियों की एक अजीब सी हरकत से मुझे रोक दिया और फिर शुरू हुआ वही सिलसिला .......।

ये पहली बार नही था कि मै उसके सामने बैठा इस स्थिति से गुजर रहा था। और अब तो दावे के साथ कह सकता हूँ ,कि ये आखिरी बार भी नही था। जब भी मै उसके पास जाता था, बातचीत कुछ यूँ मोड़ ले लेती और अंतिम पलों मे ऐसा ही दृश्य उभर आता। वो मीलो दूर से अपने कदम बढाता ,अपने कदमो को जाँचता-परखता मेरी ओर बढता आता और मै सामने वाली कुर्सी पर निर्विकार अपनी धैर्य परीक्षण करता रहता। उसे मुझसे कोई सरोकार नही था;शायद मै ना भी रहता, तो कोई फर्क नही पड़ता।..... कदम हमेशा उसी रफ्तार से बढते,किसी मुकाम पर थमते...पर एक जगह पर वो वापस जरूर मुड़ता था... और जिन्दगी का वो हिस्सा उसने हमेशा अपनी कहानी मे दुहराया था। जिस अदा से, जिन शब्दो के सहारे उसने अपनी कहानी बताई थी, वो मुझे जुबानी याद हो आई थी। शायद उसे भी नही मालूम हो,पर मै जानता था कि फलां हर्फ पे ओठ कितने खुलते हैं ,किस बात पर माथे पे तीन लकीरे उभर आती हैं और......।

वो आदमी था और आदमी नही भी था। दूर से देखने वाले को वो आदमी ही नजर आता- सामान्य कद,इकहरा बदन और शरीर की परिभाषा पूरी करने को जो जो चाहिए था, सब के सब मुकम्मल अपनी जगह जमा थे। आँखे वहीं नाक के उपर और ललाट के नीचे थी, नाक होठो के ऊपर और होठ ठुड्डी के ऊपर- सब गर्दन पे टिके सिर मे ही स्थित थे। ये और बात थी कि आँखे बुझी-बुझी थी,नाक थोड़ी झुकी थी,ठुड्डी थोड़ी निकली और होठो के दोनो सिरे पे अदृश्य सी लक्ष्मणरेखा। उसे इस लक्ष्मणरेखा के बारे मे पता नही था। पर महीनों मैने उसके होठो का जरा भी क्षैतिज फैलाव नही देखा,फिर सीता-सुरक्षा के इस विद्या के स्वामित्व की जानकारी उसे दी। उसे तो ब्रम्हास्त्र मिल गया और अब मेरे सामने मुस्कराने की भी कोशिश नही करता था ।

पर इस आदमी सा दिखने वाले जीव के नजदीक कोई भूल से भी पहुँच जाता,फिर मालूम होता था कि ये आदमी नही था। वो तो एक खुली किताब था ,जो गुजरी जिन्दगी के हर पलो को खुले पन्ने मे बिखेरे पड़ा था। पता नही भूत का भूत उस पर इस कदर छाया था कि आज की तस्वीरों मे भी वो कल की सूरत ढूँढता फिरता। जो कोई भी अपना लगता,उसे सारी कहानी सुना डालता। विषय कोइ भी हो,मसला कैसा भी हो, साहबान सारे वाकयात अपने उपर ढाल लेंगे और जैसे ही उनके ओठो से ये लफ्ज फिसलता कि "छोड़िए ,आप मुझे नहीं समझ पाऐंगे।",फिर आगे की बाकी सारी घटनाएँ मेरे आगे नाच जाती - एक लम्बी साँस... फिर कुर्सी पे टिका हाथ नीचे झूल जाएगा;उसी समय आँखो मे सूनापन पसर आएगा..बहुत दूर से एक आवाज आएगी-"मैं भी खुद को नही समझ पाया।"... मै उठने की कोशिश करूँगा, वो अंगुलियाँ धीरे-धीरे मुठ्ठी बाँधने की स्टाइल मे खींचेगा(मुझे रोकने की ये उसकी खास अदा थी।).. और प्रोजेक्टर पर पहली रील चढ जाएगी फिर से। उसके करीबी लोगो की ये बदनसीबी थी कि उसके रीलो की संख्या दिन-प्रतिदिन बढती जाती थी। इस बात पर फिर अफसोस होने लगता था कि ये वर्तमान फिसल कर अगले ही पल भूत क्यूँ बन जाता है।

शुरू-शुरू मे तो अजीब सा लगता था,जब मै यूँ घंटो बैठा उसकी रोज की वही बकवास सुनता रहता था। वो हर बार कुछ इस तरह से पुरानी बातो को दुहराता रहता, मानो एक नई दास्तां उसके जीवन मे गढी गई हो। प्रतिक्रिया-स्वरूप टोकता भी था मै बीच मे-"क्या ये पुरानी जिन्दगी से चिपके हुए हो।भविष्य के सुनहरे सपने देखो;सपने ना रास आते हो, तो वर्तमान की कठोर जमीन पे चलो।"एक बार यहाँ तक पूछ डाला था-"यार,आँखे तुम्हारी जड़ी तो सामने है,पर पीछे ही क्यूँ देखती है?"सुनकर सूनी आँखों से मुझे घूरा उसने(शुक्र था,उस क्षण वो आगे को ही देख रही थी)और फिर वही से शुरू हो गया,जिस शब्द पे उसने बात रोकी थी। धीरे-धीरे मै भी अपनी इन हरकतों की निरर्थकता समझ गया अब तटस्थ भाव से उसके सामने बैठा रहता हूँ। कहानी चलती रह्ती है ;रील पे रील चढती जाती है....और मै बीच मे फुर्सत निकाल जाने-पहचाने पात्रो को कोई और जामा पहनाने की सोंचता रहता हूँ।

सब के सब तो मेरे परिचित हैं,जान पहचान वाले बन गए हैं। मैं उसके मुहल्ले के उस अवारा,बदमाश लड़के को लाखो की भीड़ मे पहचान सकता हूँ,जिसने गुल्ली-डण्डे मे इसे सैंकड़ो बार पदाया था। बाल-मनोविञान की परख से वंचित उसके मास्टर को भी मैं पहचान सकता हूँ, जिसने होम-वर्क नही कर पाने के कारण इसे दिन भर धूप मे मुर्गा बनाए रखा था। जिस बॉस ने पहली बार देर से आने पर इसे डाँटा था,उसकी डाँट और दानवी चेहरा मै कभी भी जेहन मे ला सकता हूँ। वो बात-बात पर पीटने वाला बड़ा भाई,बगल मे रहने वाला इसकी बहन का आशिक,कॉलेज मे पढ़ने वाली दो चोटी वाली लड़की,इसकी मरगिल्ली पत्नी(sorry,अब दिवंगत हो गई है),दिन मे दो बार घर खाली करने की धमकी देने वाला मकान-मालिक और सारे ऐसे लोग,जो गलती से इसकी जिन्दगी का शरीके-इतिहास बनने आए(इतिहास की ऐसी मिट्टी पलीद होती है,जानता होता तो कोई अतीत को शब्दों का आकार ना देता)-सबको भली-भाँति जानता हूँ मै। कभी-कभी तो लगता है,जिसका भी जिक्र चल रहा होता है,वो आकर हम दोनो के बीच बैठ गया है और मुझसे दरख्वास्त कर रहा होता है कि उसकी नजरो से मै उसे देखूँ। पर मुझे तो कहानी से मतलब है,उसकी सच्चाई या सापेक्षता से नही।

आप कहेंगे कि ये तो सबकी जिन्दगी मे होते रहता हैं;फिर इसे क्यूँ अपने पास सहेजे रखना और रोज जम आए वक्त की धूल को साफ करते रहना। समझाया तो मैने भी यही था इसे,पर कोई फायदा नही हुआ। अपना पुराना राग उसने अलाप डाला-"छोड़िए ,आप मुझे नहीं समझ पाऐंगे।(एक लम्बा अंतराल,शरीर की कुछ हरकतें)शायद मैं भी खुद को नही समझ पाया!"सच कहता था वो,सचमुच मै उसे समझ नही पाया;मैने कोशिश भी नही की। वह जब अपने अतीत की गलियों मे खो जाया करता था,तब मै पूरा ध्यान सिर्फ इसमे टिका रहता कि ये वाली मैने कितनी बार सुन रखी है। वो समझता था कि मै उसके साथ हुमसफर बना चल रहा हूँ,सो कहानी मे उसे किसी नए मसाले भरने की जरूरत नही होती थी। नीरस,बेजान सा वो लफ्ज निकालता रहता और मै जाने कहाँ-कहाँ से उन रास्तों से भागता फिरता।

उसकी जिन्दगी मे आखिर समझने को आखिर रखा भी क्या था-दफ्तर के बाबू के घर मे,जहाँ महीने के बीस तारीख के बाद जीवन के निशान बस दो वक्त बिना सब्जी वाली रोटी हो,वहाँ अपने पाँच भाई-बहनो की छाया मे इसने बचपन गुजारा था। किसी तरह पढता रहा;एक सरकारी स्कूल जाता रहा। फिर ट्यूशन की बैशाखी ने कॉलेज का मुँह दिखा दिया। सालो बेरोजगारी के साथ हमबिस्तरी के बाद किसी तरह से उससे पीछा छूटा और अपनी टूटी खटिया पे वह एक प्राइवेट ऑफिस के बाबू का तमगा लगाए अकेला सोने लगा। फिर शादी हुई,बीबी की बीमारी और इलाज के खर्च ने कभी परिवार बढाने की इजाजत नही दी।... बीबी मर गई और फिर वो अकेला हो गया है। अब ऐसी जिन्दगी मे क्या खासियत हो सकती है,जिसकी गुत्थी मै सुलझाने की कोशिश करता। जटिलताएँ तो वहाँ आती है,जहाँ लोग आम छोटी-छोटी समस्याओं से उपर उठ गए हों;सब कुछ पास मे है,फिर भी अन्जानी सी अपरिभाषित कमी महसूस हुए जा रही है। जिसकी पूरी जिन्दगी मे कमी ही कमी हो,उसके बारे मे क्या दिमाग लगाना। खाली पेट खाना न मिले,तो जाहिर है भूख लगेगी,कमजोरी का अहसास होगा..हाँ,भरपेट लजीज खाने के बाद कोई भूख जगे,तब कोई खास बात है;तह मे जाने को वो वाला कीड़ा कुलबुलाए।

पर थी एक खासियत,जो इसे औरो से जुदा करता था। भूत को इसने अपने वजूद का हिस्सा बना लिया था,जिसके बिना इसे अपना अस्तित्व ही अधूरा लगता;जिसके जिक्र के बिना जिन्दगी इसे बेमानी लगती। वह अपने बीते कल के बिना रह नही सकता था और अतीत उसे वर्तमान और भविष्य की तरफ देखने की फुरसत नही देता था। हाँ,बस इतना ही समझ पाया था उसे...वो भी,क्यूँकि सिर्फ यही खासियत उसमे मुझे दिखी थी। सच बताऊँ,वक्त का इतना अच्छा इस्तेमाल मैने किसी और को करते नही देखा। वक्त घड़ियों की सूई की टिक-टिक मे बँधा रहता था और ये दोनो हाथो से उस बीते हुए टिक को समेटता और अगले टिक के बीतने का इंतजार करता। मैने एक बार पूछा भी था उससे-"तुम्हे नही लगता,कि तुम्हारी जिन्दगी टिक-टिक की मोहताज हो गई है?"वो शायद समझ नही पाया,अलबत्ता उसने एक कहानी जरूर शुरू कर दी थी,जिसमे वो था,उसका बाप था,एक टेबुल घड़ी थी और उसके हाथो से नीचे गिर टिक-टिक के लायक नही बची थी।...कुछेक पात्र और थे-उसके बाप का थप्पर और तीन दिन तक सारे बच्चों के रात का नदारद खाना... हाँ एक नंगी सच्चाई जुड़ी थी-वे महीने के आखिरी दिन थे। अब इस बात को क्या याद रखना और बार-बार दुहराना;बच्चे तोड़-फोड़ करेंगे,तो बाप को गुस्सा आएगा ही।

मै भी क्या करूँ,उसकी वाली नजर कहाँ से लाऊँ। अब देखो ना,उसके साथ पढने वाली दो चोटी बाँधने वाली लड़की छुट्टियों के बाद बॉब-कट मे आ गई,तो जनाब ने उस दिन से उसे देखना ही छोड़ दिया। गुस्से मे रात का खाना भी नही खाया। यहाँ तक तो सोच पाया मै कि ड्रीमगर्ल कैसे नापसंद हो गयी,पर मेरी समझ के बाहर की बात थी कि उसने रात का खाना क्यूँ नही खाया। एक और तफसील(उसी की जुबानी)संग इसके जोड़ना चाहूँगा कि उस दिन शाम मे घर पहुँचने पर बाप ने उसे अवारा,बेरोजगार आदि विशेषणों से लांछित किया था और माँ टीन के खाली कनिस्तरों को पटक-पटक कर उनमे से आटा निकालने की नाकाम कोशिश रात नौ बजे तक करती रही थी।

कई सारे ऐसे वाकयात हैं,जो मुझे भी सोचने को बाध्य कर देते हैं कि उससे बोल ही डालूँ-"मै आपको नही समझ सकता।"जब इसकी पत्नी बहुत ज्यादा बीमार थी और बिस्तर पे पड़े-पड़े भगवान को याद करती थी,तो ये भी साथ मे उपरवाले से कुछ माँगा करता था। दवा या दुआ -दो विकल्प हैं;सब तो इतने खुशकिस्मत होते नही कि दोनो एक साथ मिल जाए। बात उन दिनो की थी,जब नौकरी मे छँटनी वाली लिस्ट मे इसका भी नाम था। इसने मुझे जब बताया कि वो दुआ किसलिए करता था,तो सचमुच मुझे लगा कि इसे समझने के लिए कई और बुद्धियाँ मुझे चाहिए। अपनी बीबी से जुड़े इसके पास मुकम्म्ल दो या तीन किस्से ही थे,जिनको सुनाते वक्त आँखो का सूनापन और गहरा हो जाता था और बीच-बीच मे होठ अपनी हरकत बंद कर निगाहों को आगे की दास्तां का जिम्मा दे देते थे। एक तो बता चुका मै कि उसकी बीमार पत्नी उपर जाने का इन्तजार कर रही थी और वो दुआ माँग रहा था कि इन्तजार कम से कम हो जाए;सही मे दिल से इसने कभी ठीक होने कि दुआ नही माँगी। हाँ,बाकी कुछ जो भी वो माँगती थी,ये दे देता था...पानी पिलाता रहता था,दूर कुर्सी पे सामने बैठा रहता था...उन दिनो ये भी बैठा ही था। दुनियावाले समझते थे कि बीबी का कितना ख्याल रखता है और ये जानता होता था कि लोग इसे समझ नही सकते।

बाकी दोनो दास्ताने एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। शादी हुई जब इसकी,पतित्व के सारे अरमान मचल रही थे;फूटपाथी किताबो के अफसाने और वात्सायन के फल्सफे कुलाचे मार रहे थे। पर पहली रात ही इसे पता चला कि लोग मुर्दों के साथ सोने मे डरते क्यूँ हैं। अंत मे वही इसके बेवजह पौरूष प्रदर्शन से टूट गई और शादी के पहले की दास्तां....वादे,कसमें और किसी और के हो जाने की तफसील सुना डाली। ये पत्थर का बुत हो गया और बुत जब हिला,तो कमरे मे दो बिस्तर(अलग-अलग)लग चुके थे....दोनो अभी भी हैं। वैसे बीबी जल्द ही साथ छोड़ गई;उसकी लाश के संग उसकी दो तमन्नायें भी जल के धुआँ हो गई। जब तक जीती रही,सोचती रही कि अपने पति(वैध)की गोद मे सर रख के बीमार जिस्म मे नई रूह जगवाए और उसके पावों मे सर रखके माफी माँग ले। पर जनाब ने न कभी छुआ,न छुने की छुट दी। काश इतना ही तटस्थ रहता... पर सब कुछ होते हुए व्यक्तित्व की मूरत मे झाँकते रहते थे-reactions,over-reactions,retaliation और कभी escapism...फिर भी दुनियावाले इसे neutral ही समझते रहते थे। जब इसकी बहनो के किस्से आम होने लगे थे,फिर इसने वो शहर छोड़ दिया था...मैने उसके व्यक्तित्व की मूरत से झाँकते सारे चेहरो का विशेषण उस पर थोप दिया था और उसका सपाट सा जबाब था-"मै क्या हूँ,ये नही जानता।पर इतना जरूर मालूम है कि ये मेरी जिन्दगी का हिस्सा है।"अब बताइए,ऐसे मे कौन इसे समझ पाएगा।

बाप का जिक्र आते ही नफरत और हिकारत से इसका चेहरा विद्रूप हो जाता। माँ को भी कभी स्वतंत्र माना नही इसने,सो बाप के संग वो भी होम हो जाती थी। अपने जीवन के शुरू के हिस्से की कहानियों का खात्मा वो कुछ यूँ किया करता-"my birth was an accidental default..सालो ने अपनी मस्ती के लिए..।"कभी उसने ये नही सुनाया था कि बाप ने कन्धे पे बिठा गलियो मे उसे घुमाया था या माँ ने गोद मे बिठा बड़े-बड़े कौर उसके मुँह मे ठूँसे थे। हाँ,बड़े भाईयो के दोस्तो से उसे ये जरूर पता चला था कि उसके जन्म के कुछ दिन तक उसका बाप अपने बच्चों से नजर बचाते रहता था। फिर एक गाली उसकी जुबान से फटाक से निकलती थी-"साले के पास इतनी ही शरम थी,फिर बेटियों से क्यूँ?"मैने कभी उससे पूछा भी नही कि बाप को लेकर इतना गन्दा क्यूँ सोचता है। शायद उसके जबाब से मै संतुष्ट भी नही हो पाता;उसका नजरिया मै समझ कहाँ पाता हूँ। एक sophisticated आदमी की जुबान से इतनी गन्दी भाषा-ये विरोधाभास समझ पाना हर किसी के बस की बात थोड़े ही है।

हुआ यूँ था कि दफ्तर मे काम करने वाली एक संवेदनशील महिला,जिसका कोई भाई नही था,ने रक्षाबंधन पे इसे राखी बाँधने की पेशकश की। पहले ये तो ठठाकर हँसा,फिर उसने कलाई के इस धागे का महत्व पूछा। वो चकरा गई और खिसियाना सा चेहरा बनाए खिसक गई। शायद वो समझ ही नही पाई-सवाल मे जुड़े तथ्य को,या सवाल पूछने वाले आदमी को-या कुछ और तो नही समझ गई ,जैसी विडम्बना इसके साथ अक्सर होती है। बाद मे इसने मुझे बताया था कि जब से बाहर से लगे कमरे मे इसकी दोनो बड़ी बहने सोने लगी थी ,परिवार की माली हालत सुधरने लगी थी। जब इसने अपने किताबो के आदर्श को यथार्थ की जमीन पर पटकना चाहा,फिर’बहन...’ का इल्जाम लगा इसे घर से निकाल दिया गया। अर्थ और मूल्यों की इस लड़ाई से अब किसी को क्या लेना,क्यूँ कोई समझने की कोशिश करे।

उसकी जिन्दगी हर मायने मे अधूरी सी लगती रहती थी,हाँ हर जगह कमी ही कमी भरी हुई थी;अभाव का कही अभाव बिल्कुल नही था। हर खाली गैप को भरने की उसकी अदा भी निराली थी-उस गैप से जुड़े किस्से से जिन्दगी का खालीपन भर लेता था। उसकी जिन्दगी एक शीशे का मकान सा था,जिसमे वो कैद था। रोज कुछ शीशा पिघल कर उसमे समा जाता और मकान का दायरा घटता जाता। मकान सिमट रहा था,वो बढता जा रहा था। एक बार मैने सवाल का प्रारूप बदल दिया था-"क्या आपने खुद को समझने की कभी कोशिश की?"कुछ पल खामोश रहा,फिर बोल फूट पड़े-"एक मुकम्मल तस्वीर तभी बन पाती है,जब आईने के सामने एक ही चेहरा हो। आईने के सामने खड़े होते ही बहुत सारे चहरे एक साथ आ जाते हैं,सबको मिलाकर देखने की कोशिश मे एक अजीब सा चेहरा सामने आता है-थोड़ा मूर्त्त,थोड़ा अमूर्त्त-शायद लिजलिजा सा। लिजलिजेपन को छूने गया,फिर अपने लिजलिजे वजूद का अह्सास होते ही खुद पर से विश्वास ही हट गया।"उसने मेरे चेहरे पर अजीब सी असामान्यता देखी और फिर अपने किशोरवय की वो दास्तां शुरू कर दी,जब उसकी मसें भींगने लगी थी और दिन मे बीसियों बार वो अपना चेहरा देखता रहता था.... और तब तक सुनाता रहा,जब तक मेरा चेहरे पे सुनी कहानी को फिर से सुनने की जिल्लत और उससे उत्पन्न खीझ नही दिखाई देने लगी।

वो तो खुद को नही समझ पाया,पर मै क्या समझूँ उसे-पिघला हुआ शीशा,लिजलिजा अक्स....या अतीत के पर्दो मे छुपा एक कुण्ठित व्यक्तित्व... पर कुण्ठा तो मेरे ही अंदर है। ठीक ही कहता है वो-"देखिए,आप मुझे नही समझ सकते।"

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